Book Title: Tattvartha Sutra Jainagam Samanvay
Author(s): Atmaram Maharaj, Chandrashekhar Shastri
Publisher: Lala Shadiram Gokulchand Jouhari
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तत्त्वार्थसूत्रजैनाऽऽगमसमन्वयः
भाषा टीका-संरम्भ, समारम्भ और आरम्भ । फिर इन तीनों भेदों को मन, वचन और काय के द्वारा तीन प्रकार करने से नौ भेद हुए। फिर इन नौ को न करना (कृत), न कराना (कारित) और न करते हुए अन्य व्यक्ति का समर्थन करना (अनुमोदना)। सो यह नौ तिया सत्ताईस भेद हुए। फिर इन सत्ताईसों में क्रोध, मान, माया और लोभ के होने से [ सत्ताईस चौक एक सौ आठ भेद जीवाधिकरण के होते हैं।] संगति - इन सब सूत्रों का आगम वाक्यों के साथ नाम मात्र का ही भेद है।
निर्वतनानिक्षेपसंयोगनिसर्गा द्विचतुर्द्वित्रिभेदाः परम्। णिवत्तणाधिकरणिया चेव संजोयणाधिकरणिया चेव ।।
स्थानांग स्थान २, सु. ६०. आइये निक्खिवेज्जा ।
उत्तराध्ययन भ० २५, गाथा १४. पवत्तमाणं ।
उत्तराध्ययन अ० २४, गाथा २१-२३. छाया- निर्वर्तनधिकरणिका चैव संवोगाधिकरणिका चैव ।
आददीत निक्षिपेद्वा ।
प्रवर्तमानम् (मनोवचः काये)। भाषा टीका - निर्वतनाधिकरण, संयोगाधिकरण, निक्षेपाधिकरण और प्रवर्तमानाधिकरण (मन, वचन, काय में प्रवर्तमान) [यह चार भेद अजीवाधिकरण के होतेहैं ]
संगति – प्रवर्तमानाधिकरण और निसर्गाधिकरण में केवल शाब्दिक भेद ही है, तात्विक भेद बिलकुल नहीं है।
तत्प्रदोषनिह्नवमात्सर्यान्तरायासादनोपघाता ज्ञानदर्शनावरणयोः।
६,१०.