Book Title: Tattvartha Sutra Jainagam Samanvay
Author(s): Atmaram Maharaj, Chandrashekhar Shastri
Publisher: Lala Shadiram Gokulchand Jouhari

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Page 267
________________ परिशिष्ट नं०२ [ २४९ इन्द्रियां १५–इन्द्रियां पांच ही होती हैं । १६-वह इन्द्रियां दो २ प्रकार की होती हैं-- द्रव्येन्द्रिय और भावेन्द्रिय ।। १७-निति और उपकरणों को द्रव्येन्द्रिय कहते हैं। १८-लब्धि, और उपयोग भावेन्द्रिय हैं । पांचों इन्द्रिय और उनके विषय१९- स्पर्शन ( त्वचा ), रसन (जीभ), प्राण (नासिका ), चक्षु ( नेत्र ), और श्रोत्र (कान ) यह पांच इन्द्रियां हैं। २०- इन पांचों इन्द्रियों के विषय क्रम से स्पर्श (हलका, भारी, रूखा, चिकना, कड़ा, नरम, ठंडा, और गरम), रस (खट्टा, मीठा, कडुवा, कषायला और चरपरा ), गंध (सुगन्ध, दुर्गन्ध ), वर्ण ( काला, पीला, नीला, लाल और सफेद ) और शब्द हैं। २१-मन का विषय श्रुतज्ञान गोचर पदार्थ है। षट्काय जीव२२–पृथिवी कायिक, अपकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक और वनस्पतिकायिक जीवों के पहिली स्पर्शन इन्द्रिय ही होती है। ___ * नामकर्म के निमित्त से हुई इन्द्रियाकार रचना विशेष को निति कहते हैं । यह दो प्रकार की होती है-एक आभ्यन्तर निति, दूसरी बाह्य निवृति। आत्मा के प्रदेशों का इन्द्रियों के प्राकार रूप होना आभ्यन्तर निवृति है । और पुद्गल परमाणु की इन्द्रिय रूप रचना होना सो बाह्य निवृति है। न निवृति को जो सहायक हो उसे उपकरण कहते हैं। जैसे नेत्र में सफेद भाग, पलक मादि। ----- ज्ञानावरण कर्म की क्षयोपशम रूप शक्ति विशेष को लब्धि कहते हैं। -- लब्धि होने पर आत्मा का विषयों के प्रति परिणमन होने से प्रात्मा में उत्पन्न हुए ज्ञान को उपयोग कहते हैं।

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