Book Title: Tattvartha Sutra Jainagam Samanvay
Author(s): Atmaram Maharaj, Chandrashekhar Shastri
Publisher: Lala Shadiram Gokulchand Jouhari
View full book text
________________
द्वितीयाध्यायः
[
४६
किमिया-पिपीलिया-भमरा-मणुस्स इत्यादि ।
प्रज्ञापना प्रथम पद। छाया- कृमिका - पिपीलिका - भ्रमरो - मनुष्यः इत्यादि ।
भाषा टीका - कीड़ा, (लट अथवा चावलों का कीड़ा), चींटी, भौंरा और मनुष्य आदि । संगति – इनके एक २ इन्द्रिय अधिक होती है। 'संझिनः समनस्काः ।'
२. २४. जस्स णं अस्थि ईहा अवोहो मग्गणा गवेसगा चिंता वीमंसा से णं असरणीति लब्भइ । जस्स णं नत्थि ईहा अवोहो मग्गणा गवेसगा चिंता वीमंसा से णं असन्नीति लब्भइ।.
नन्दिसूत्र सूत्र ४० छाया- यस्य अस्ति ईहा अपोहो मार्गणा गवेषणा चिंता विमर्शः अथ
संज्ञीति लभ्यते । यस्य नास्ति ईहा अपोहो मार्गणा गवेषणा चिन्ता
विमर्शः अथ असंज्ञीति लभ्यते । भाषा टीका-जिसमें ईहा, अपोह, मार्गणा, गवेषणा, चिन्ता और विमर्श करने की योग्यता हो उसे संज्ञी कहते हैं। जिसमें ईहा, अपोह, मार्गण, गवेषणा, चिन्ता और विमर्श की योग्यता न हो उसे असंज्ञी कहते हैं। ___ संगति - ईहा, अपोह, मार्गणा, गवेषणा, चिन्ता और विमर्श करने की योग्यता को ही मन कहते हैं । अतः मन सहित अथवा समनस्क को संज्ञी और मन रहित अथवा अमनस्क को असंज्ञी कहते हैं।
'विग्रहगतौ कर्मयोगः।' कम्मासरीरकायप्पओगे।
प्रज्ञापना पद १६.
२. २५