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अध्यात्म-रहस्य
निविकल्प-स्वसवित्तिरनपित-परमहा । सजानं निश्चयानुफ व्यवहारनयात्परम् ॥६॥ सद्वृत्तं सर्वसावद्य-योग-व्यावृत्तिरात्मनः। गौणं स्याद् वृत्तिरानन्द-सान्द्रा कर्मच्छिदाऽजसा Hol तत्त्वार्याऽमिनिवेश-निर्णय-तपश्चेष्टामयीमात्मनः । शुद्धि लब्धिवशाभवन्ति विकलां यद्यच पूर्णामपि । स्वात्म-प्रत्यय-वित्ति-तल्लयमयीं तद्व्यसिंहप्रियां। भूयाद्वो व्यवहार-निश्चयमय रलत्रयं श्रेयसे | ये चारों पद्य 'रत्नत्रयविधान' ग्रन्थके हैं । इनमेंसे प्रथम वीन पद्य उसमें क्रमशः सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रकी पूजात्रोंमें पुष्पांजलि क्षेपणके अनन्तर पाये जाते हैं और चौथा पद्य सम्यञ्चारित्रकी पूनाके अन्तमें नो तीन पद्य आशीर्वादात्मक है उनमें मध्यका (६१ वाँ) पद्य है । यह ग्रन्थ सागारथर्मामृत-टीकाकी समाप्तिसे भी पहले बन चुका था, और इसीसे इसका उल्लेख उक्त टीकाकी प्रशस्तिमें निम्न प्रकारसे पाया जाता है
रलत्रय-विधानस्य पूजा-माहाल्य-वर्णनम् । रलत्रयविवानाख्यं शास्त्र वितनुते ल यः ॥१॥
इससे स्पष्ट है कि ये चारों पद्य अध्यात्म-रहस्यसे पूर्वकी रचना हैं और इन्हें ज्यों का त्यों अपने प्रस्तुत ग्रन्थका भी अंग बनाया गया है, जोकि एक बहुत कुछ स्वाभाविक घटना है।