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अध्यात्म-रहस्य नायगी और उसीके अनुसार आत्माके गुणोंका विकास भी सधता जायगा, जो किसी समय अपनी उत्कृष्टावस्थ अथवा चरमसीमाको भी पहुँच जायगा। यही सब भाव इस पद्यमें संनिहित है।
द्रव्य और पर्याय-दृष्टिसे आत्माकी एकानेकता समस्तवस्तुविस्ताराकारकीर्णोपि पर्ययात् । द्रव्यार्थादेक एवास्मि वाच्यः कस्यापि नार्थतः ॥ ___ 'पर्यायष्टिसे समस्त वस्तुओंके विस्ताराकारसे पूर्व होता हुआ भी मैं द्रव्यदृष्टिसे एक ही हूँ और वस्तुतः (निश्चयतः) किसी भी शब्दका वाच्य नहीं हूँ-वचनके अगोचर हूँ। । व्याख्या-यहाँ खोन्मुख हुआ आत्मा सोचता है कि यद्यपि अनादिकालीन अनन्तपर्यायोंकी दृष्टिसे मैं समस्त वस्तुओंके विस्तार-जितने आकारोंको लिये हुए हूं फिर भी द्रव्य दृष्टिसे मैं एक ही हू-सब पर्यायोंमें एक ही द्रव्यरूपसे रहा हूँ। इसलिये वस्तुतः मेरा वाचक ऐसा कोई भी शब्द नहीं है जो मुझे पूर्णरूपमें प्रस्तुत या उपस्थित कर सके । और इस दृष्टि से मैं अनिर्वचनीय है।
१यवहारात् । २ बचनगोचरः। ३ निश्चयात् । . ...