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अध्यात्म-रहस्य (२) ब्रह्मके उक्त लक्षणमें 'चित्' विशेषण चैतन्यका और 'आनन्द' विशेषण सुखका वाचक है, जो दोनों ही आत्मद्रव्यकी अन्यद्रव्योंसे व्यावृत्ति-विभिनताका बोध करानेवाले आत्माके विशेष गुण है, इन गुणोंसे विशिष्ट आत्मापरमात्मा अथवा ब्रह्म-परब्रह्मको गुणी होना चाहिये,जब कि वेदान्ती उसे निगुण बतलाते हैं और प्रमाणमें "निर्गुणं निष्क्रिय शान्तं निरवद्य निरंजनं" इस श्रुति-वाक्यको उपस्थित करते हैं । सांख्यदर्शनने जिस प्रकार सत्व, रजस, तमस ऐसे तीन गुण मानकर उन्हें प्रकृति-जन्य बतलाया है उसी तरह वेदान्तियोंने भी उन्हीं तीन गुणोंको मानकर उन्हें माया जन्य अथवा मायामय प्रकट किया है, और इसीसे अन्यत्र गुणका निषेध किया जान पड़ता है। परन्तु प्रकृतिके अस्तित्वकी तरह मायाका अस्तित्व उन्होंने स्वीकार नहीं किया-उसे मिथ्या बतलाया है और उसी मिथ्या एवं सतरूपमें अस्वीकृत ब्रह्मोपगता मायासे चराचर जगतकी सष्टि बतलाकर जगतको भी मिथ्या एवं अस्तित्वबिहीन घोषित किया है । यह सब कथन जैनदर्शनकी दृष्टिके बाह्य है, औरइसलियेप्रन्थमें जैनदर्शनके अनुसार ब्रह्म अथवा आत्माको भी द्रध्य होनेके कारण गुण-पर्यायवान मानाहै और 'चैतन्यं गुणः पुस्यन्वयित्वतः' जैसे वाक्योंके द्वारा 'चैतन्य'को आत्मा-परमात्माका सदा साथ रहनेवाला तथा