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सन्मति विद्या प्रकाशमाला
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'जीव- पुद्गलकी व्यंजनपर्याय वाग्गोचर है, नश्वर न
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होकर स्थिर है और मूर्तिक है । प्रत्येक द्रव्य अर्धपर्याय और व्यंजन पर्याय -मय है और वे पर्यायें द्रव्य-मय हैं ।'
व्याख्या - इस पद्यमें जीव और पुद्गल द्रव्योंकी
व्यंजनपर्यायका उल्लेख है और यह प्रकट किया है कि वह पर्याय वचनगोचर है, क्षणभंगुर न होकर टिकनेवाली है और सुर्तिक है। साथ ही, यह भी व्यक्त किया है कि प्रत्येक द्रव्य इन दोनों पर्यायरूप होता है और ये पर्याय
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द्रव्यके साथ तन्मय होती हैं—उससे अलग नहीं होतीं । मुक्ताहारके रूपमे आत्माकी भावना
चेतनोऽहमिति द्रव्ये शौक्ल्यं' मुक्ताश्च हारवत् । चैतन्यं चिद्विवर्ताश्च' मय्या मील्य मिलाम्यजे ४०
'जिस प्रकार हारमें हारकी, मोतियोंकी और शुक्लताकी पृथक् पृथक् प्रतीति होते हुए भी वे सब हार-मय हैं, उसी
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प्रकार आत्मद्रव्य में 'मैं चेतन हूँ, मुझमें चैतन्य है और चेतन - पर्यायोंको अभिव्याप्त करके में अनरूप आत्मद्रव्यमें मिल रहा हूँ -- तन्मय हो रहा हूँ, ऐसी प्रतीति होती है ।'
व्याख्या -- वहाँ मुक्ताहारके रूपमे आत्माकी अनुभूि की गई है। मुक्ताहारमें जैसे मोती और मोतियोंमें शुक्रवा १ ज्ञान पर्यायान २ आत्मद्रव्ये ।