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सन्मति-विद्या-प्रकाशमाला भूलसे या अहंकारादिके वश अपनी मान लिया जाता है। मुक्तात्माओंमें मोहनीय कर्मका अभाव हो जाने से इच्छा, अहंकार तथा परवस्तुमें अपनी मान्यता-जैसी भूलका कोई सद्भाव ही नहीं बनता, और इसलिये स्वेच्छादिके वश उनमें देने-दिलानेकी कोई बात नहीं बन सकती; तब उनके इस निजपद-दानकी वातमें क्या रहस्य है और वह दान-क्रिया कैसे सम्पन्न होती है, यह सभीके जानने योग्य है और इसलिये उप यहाँ खोलकर रखने अथवा स्पष्ट करके बतलानेकी जरूरत है। ___वस्तुस्थिति ऐसी अयवा असल बात यह है कि सारे भव्यजीव द्रव्यदृष्टिसे परस्पर समान हैं-सबमें मुक्तिपद-प्राप्तिकी योग्यता है। परन्तु अनादि-कर्ममलसे मलिन एवं आच्छादित होनेके कारण वह योग्यता पूर्णतः विकसित या व्यक्त नहीं हो पाती, प्रायः शक्तिरूपमें ही स्थित चली जाती है । मुक्तात्माओंमें उम योग्यताका पूर्णतः विकास देखकर भव्यप्राणियोंको अपनी भूली हुई आत्मनिधिकी सुधि मिलती है और वे उसे प्राप्त करनेके लिये उन सिद्धास्माओंका भजन, आराधन, सेवन एवं पदानुसरण किया करते हैं, और ऐसा करके असंख्यात गुणी कर्मकी निर्जरा करते हुए उन-जैसी योग्यताको अपनेमें विकसित करके उनके पदको प्राप्त करनेमें उसी प्रकार समर्थ होते हैं जिस