________________
अध्यात्म-नहस्य
मोहकी निवृत्ति अथवा उपशान्तिको लिये होता है। रागद्वेष-मोह ही आत्माकी तुलाको समसे विषम बनाये रखते हैं और इसीलिये राग-द्वेषकी निवृत्ति ही चारित्रका मुख्य लक्ष्य है। इसीसे स्वामी समन्तभद्र ने कहा है-"रागद्वेप-निवृत्यै चरणं प्रतिपद्यते साधुः ।" ग्रंथकी टिप्पणीमें मी, जो संभवतः ग्रंथकारके द्वारा ही की गई जान पड़ती है, 'दृम्बोधसाम्यात्मा' पदके लिये 'दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप ऐसा अर्थपद दिया है। दर्शन-ज्ञान-चारित्र ही 'रत्नत्रय' कहलाते हैं, इन्हींकी सूचना ग्रंथके १४वें पद्यमें 'रत्नत्रयात्मस्वात्मैव मोक्षमार्गः इस वाक्यके द्वारा की गई है।
श्रुतिका लक्षण आप्तोपज्ञमदृष्टष्ट-विरोधा'द्धर्म्य-शुक्लयोः । ध्यानयोःशास्ति या ध्येयं सा गुरूक्तिरिति श्रुतिःभ६ _ 'जो गुरूक्ति-गुरुवाणी-आप्त-द्वारा उपज्ञ-प्रथमतः ज्ञात एवं उपदिष्ट-ध्येयको ध्यानके विषयभूत शुद्धात्मा को-धर्म्यध्यान तथा शुक्लध्यानमें दृष्ट (प्रत्यक्ष ) और इष्ट (भागम) के अविरोधरूपसे अथवा प्रत्यक्ष-परोक्षप्रमाणका विरोध न करके शासित-आयोजित एवं व्यवस्थित करती है उसका नाम 'श्रुति' है। १ परोक्ष-प्रत्यक्ष-विरोधाभावात् । २ आत्मानं प्रति रहस्य इत्यर्थः ।