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सन्मति-विद्या प्रकाशमाला
आत्माको जब अपने शुद्ध-स्वरूपकी अनुभूति हो जाती है तव उसे कितने अधिक सुखकी प्रासि होती है, जिससे सारे ही लौकिक सुख फीके पड़ जाते हैं।
आत्म-विकासका क्रम अविद्यां विद्यया मय्याप्युपेक्षा-संज्ञया सकृत् ।। कृन्ततो मदभिव्यक्तिः क्रमेण स्यात्परापि मे ४२
'मुझमें जो अविद्या-अज्ञता विद्यमान है उसे उपेक्षा नामकी विद्यासे निरन्तर काटते हुए मुझमें मेरे स्वरूपकी अभिव्यक्ति (प्रकटता) होती है और यह अभिव्यक्ति क्रमक्रमसे परा अर्थात् चरम-सीमाको भी प्राप्त हो जाती है।' ___व्याख्या-जब स्वात्मा अपनेमें चैतन्य और आनन्दजैसे सातिशय-गुणोंके अस्तित्वका अनुभव करता है और फिर यह देखता है कि उन गुणोंका यथेष्ट विकास नहीं हो रहा है तब वह उसका कारण अपनी अविद्याको पाता है और उस अविद्याके छेदनेका उपाय सोचता है। उसी उपायकी चिन्ता एवं कार्यरूप-परिणतिका इस पद्यमें उल्लेख है । अविद्याको जिम विद्यासे छेदा जाता है. उसका नाम है 'उपेक्षा' । उपेक्षा रागादिके अभावको कहते हैं। जितनी उपेक्षा बढ़ती जायगी अविद्या उतनी ही घटती
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१ मम प्रकटता।