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अध्यात्मरहस्य है। अशुभ-भावोंके त्याग और शुम-भावोंमें प्रवृत्तिके विना शुद्धोपयोग बनता ही नहीं। शुद्धोपयोग ही नहीं किन्तु सामान्य चारित्र भी नहीं बनता; क्योंकि अशुभसे विनिवृत्ति तथा शुभमें प्रवृत्तिका नाम व्यवहार चारित्र है, जो कि व्रत, समिति तथा गुप्तिरूप है; जैसा कि श्रीनेमिचन्द्राचार्यके द्रव्यसंग्रहकी निम्न गाथासे प्रकट है
असुहादो विणिवित्ती सुद्दे पवित्ती य जाण चारित्तं । बद-समिदि-गुत्तिरूव ववहारणया दु जिणभणियं ॥
अशुभ, शुभ और शुद्ध उपयोगोका स्वरूप उपयोगोशुभो राग-द्वेष-मोहैः क्रियात्मनः। शुभःकेवलिधर्मानुरागाच्छुद्धःस्वचिल्लयात् ५६ __'राग-द्वेप-मोहके द्वारा आत्माकी जो क्रिया-परिणति होती है वह अशुभ उपयोग है; केवलि-प्रणीत-धर्ममें अनुगण रखनेसे जो आत्माको परिणति होती है वह शुभ उपयोग है और अपने चैतन्यस्वरूपमें लीन होनेसे आत्माकी जो परिणति बनती है वह शुद्ध उपयोग है।
व्याख्या-यहाँ अशुभ, शुभ और शुद्ध तीनों प्रकारके उपयोगोंका स्वरूप दिया है । राग, द्वेष और मोहके साथ जो आत्माकी खुली परिणति है-उमका-नाम-अशुभोयोम है; केवलि-द्वारा प्रणीत हुए मुनि तथा श्रावक धर्मके