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अध्यात्म-रहस्य
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गुण होता है उसी प्रकार चेतनद्रव्य-श्रात्मामें चिदात्मक पर्याये और पर्यायोंमे चैतन्यगुण रहता है, और ये सब हारस्थानीय आत्मद्रव्यके साथ तन्मय होकर मिले हुए हैं और आत्मद्रव्य इनके साथ तन्मय हो रहा है।
आत्माके आनन्द-स्वरूपका स्पष्टीकरण ॐ यश्चक्रीन्द्राहमिन्द्रादि-भोगिनामपि जातु न। शश्वत्सन्दोहमानन्दो मामेवाभिव्यनस्मितम्।४१
'जो आनन्द चक्रवर्ती, इन्द्र, अहमिन्द्र और धरणेन्द्रको भी कभी प्राप्त नहीं होता उस शाश्वत आनन्द-सन्दोहको मैं अपने में ही अनुभव करता हू ।'
व्याख्या-यहाँ आत्माके दूसरे विशेषगुण 'आनन्द'का उल्लेख है, जो आत्माके चैतन्यगुणकी तरह अन्य किसी भी द्रव्यमें नहीं पाया जाता | शुद्ध-स्वात्मा अपनेमें ही उस आनन्द-गुणका चिन्तन करता हुआ यह अनुभव करता है कि ऐसा शाश्वत आनन्द तो कभी चक्रवर्ती तथा इन्द्र-अहमिन्द्रादिको भी प्राप्त नहीं होता। उन्हें जो आनन्द प्राप्त होता है वह सब इन्द्रिय-जन्य तया पराधीन है और यह अतीन्द्रिय तथा स्वाधीन है। इससे स्पष्ट है कि * यदन्न चक्रिणां-सौख्यं यच स्वर्गे दिवौकसाम् । ___कलयापि न तत्तुल्यं सुखस्य परमात्मनाम् ।।२४६ (तत्त्वानु०) १ अनुभवामि।
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