________________
-
प्रस्तावना अलग लक्षण ग्रंथमें दिए हुए हैं (३६-३८) । जो द्रव्य संख्यामें अनन्त हैं उनमेंसे प्रत्येक द्रव्य प्रदेश मेद और पर्याय-भेदके कारण अपनी अपनी नातिके दूसरे द्रव्योंसे । मित्र है (गुणोंको दृष्टिसे भिन्न नहीं) और अपना स्वतंत्र अस्तित्व रखता है-एकमें तन्मयता के साथ दूसरे द्रव्यका अस्तित्व (सद्भाव) नहीं है । इसीसे स्वामी समन्तभद्रने देवागममें यह प्रतिपादन किया है कि प्रत्येक द्रव्य स्व-द्रव्यक्षेत्र-काल-भावकी अपेक्षा सवरूप है.पर द्रव्य-क्षेत्र-काल भावकी अपेक्षा सत्रूप नहीं है। यदि ऐसा नहीं माना जायगा-एकमे दुसरेके द्रव्यादिचतुष्टयका निषेध न करके उसका भी सद्भाव माना जायगा-तो उस एकके स्वरूपकी प्रतिष्ठा (स्थापना) ही नहीं हो सकेगी। इसी तरह दूसरे भी किसी द्रव्य अथवा वस्तुकी कोई व्यवस्था नहीं बन सकेगी । सत्-असत्के इस सिद्धान्तको भी ग्रन्थमें अपनाया गया है और सत्स्वरूपकी दोनों ही दृष्टियोंसे आत्मा तथा ब्रह्मको सदसबके रूपमें प्रतिपादित किया है (३१) । अतः जैनतत्वज्ञानकी दृष्टिसे ब्रमका सत् विशेषण कथंचित् सत्के रूपमें स्थित है-सर्वथा सरके रूपमें अथवा एक मात्र ब्रह्मको ही सह प्रतिपादन के रूपमें नहीं है। * सदेव सर्व को नेच्छेत् स्वरूगादिचतुष्टयात् । असदेव विपर्यासान्न चेन्न व्यवतिष्ठते ॥१५॥