________________
सन्मति - विद्या-प्रकाशमाला
इन्हीं दोनों अथवा तीनों आचार्योंके उपदेशानुसार यहाँ श्रात्माका सत्-असत् रूपसे प्रतिपादन किया गया है। आत्मा जगत नहीं है
* यथा जातु जगन्नाहं तथाहं न जगत् कचित् । कथंचित्सर्वभावानां मिथोव्यावृत्ति - वित्तितः ॥३२
'जैसा जगत है वैसा मैं कभी नहीं हूँ और जैसा मैं हूँ वैसा जगत कभी नहीं है; क्योंकि कथंचित सर्व पदार्थोंकी पारस्परिक विभिन्नताका अनुभव होता है ।'
व्याख्या —— यहाँ आत्मा जगतके स्वरूपसे अपने स्वरूपको भिन्न अनुभव करता है । उसे विचारने पर कथंचित् सर्व-पदार्थोंकी विभिन्नताका बोध होता है । ग्रंथ में भी आगे लक्षणादिके भेदसे द्रव्योंकी विभिन्नताका बोध कराया गया है ।
आत्माके चित्स्वरूपका स्पष्टीकरण
४४
+ यदचेतत्तथानादि चेततीत्थमिहाद्य यत् । चेतिष्यत्यन्यथाश्नन्तं यच्च चिद्द्रव्यमस्मि तत् ३३
* परस्पर-परावृत्ताः सर्वे भाषाः कथंचन । नैरात्म्य जगतो यद्वन्नैर्जगत्य तथात्मनः ॥ (तत्त्वानु० १७४५) १ परस्परम् । २ पृथक् स्वभाव-परिज्ञानम् ।
* यदचेतत्तथा पूर्व चेतिष्यति यदन्यथा । चेततीत्थ यदत्राद्य तच्चिद्रव्य समस्म्यहम् || १५६ || (तत्त्वानु०) ३ अन्येन प्रकारेण