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सन्मति-विद्या प्रकाशमाला .. .. ... आनन्दो निहल्यनं कर्मेन्धनमनारतम् । ..... न चाऽसौ खियते योगी वहिदुखवचेतनः ॥४i .,
इनमें बतलाया है कि 'जो आत्माके अनुष्ठानमें-आत्माको देहादिकसे मिन्न करके आत्मामें ही अवस्थापित करनेमें-तत्पर है और प्रवृत्ति-निवृत्ति अथवा ग्रहण-त्यागरूप , व्यवहारसे बाह्य है उस ध्याता योगीके स्वात्मध्यानरूप
योगके कारण कोई ऐसा अनिर्वचनीय आनन्द उत्पन्न 'होता है जो परम है-अन्यत्र असंभव है । यह परमानन्द प्रचुर कर्मसन्ततिको उसी तरह जला डालता है जिस तरह कि अग्नि ईधनको । ऐसा परमानन्द-मग्न योगी-ध्यानी 'बाह्य दुःखोंमें-परीषह, उपसर्ग तथा क्लेशादिकोंमें'अचेतन रहता है-~-उमे उनका अनुभव नहीं होता और इसलिये वह खेद अथवा संक्लेशको प्राप्त नहीं होता है।
जीवन्मुक्तिकी ओर अग्रसरता तटैकाग्रय पर प्राप्ती निरुन्धनशुभासवम।'
क्षपयनर्जितं चैनो जीवन्नप्यस्ति निवृतिः॥५६ • ''उस परमैकाग्रताको प्राप्त हुआ तथा अशुभासवको 'रोकता हुआ और उपार्जित पापको क्षय करता हुआ,(योगी) जीवित रहता हुआ भी निवृत है-जीवन्मुक्त है।' * एकाग्र-चिन्तामोधो यः परिस्पन्देन वर्जितः। .. तद्ध्यानं निर्जरा-हेतुः संवरस्य च कारणम् । (तत्वानु० ५६)
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