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सन्मति - विद्या- प्रकाशमाला
व्याख्या– स्वानुभूतिकी वृद्धिके लिये शुद्ध-स्वात्मा निरन्तर यह भावना किया करता है कि मैं राग-द्वेषादिरूप हेयका त्याग और चिदानन्दरूप आदेयका' ग्रहण करता हुआ अपने रत्नत्रयात्मक शुद्धस्वरूपका भोक्ता बनूँ; क्यांकि के त्याग और आदेयके ग्रहण- विना आत्मा अपने शुद्धस्वरूपका भोक्ता नहीं बन सकता । शुद्धोपयोगका क्रम-निर्देश हित्वोपयोगमशुभं श्रुताभ्यासाच्छुभं श्रितः । शुद्धमेवाधितिष्ठेयं श्रेष्ठा निष्ठा हि सैव मे ॥५५
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'मैं, श्रुताम्यासके द्वारा शुभ उपयोगका आश्रय कर्ता हुआ, शुद्ध उपयोगमें ही अधिकाधिक स्थिर रहूँ, यही मेरी श्रेष्ठ - निष्ठा - श्रद्धाअ थवा धारणा - है ।'
व्याख्या – यहाँ शुद्ध-स्वात्माकी उस ~ श्रेष्ठ - निष्ठाका उल्लेख है जो अशुभ उपयोगको त्याग कर शास्त्राभ्यासके द्वारा शुभ-उपयोगका आश्रय लेते हुए शुद्धोपयोगमें ही अधिक स्थित रहने की रहती है। इसके द्वारा शुद्धोपयोगके क्रमका भी निर्देश हो जाता है और वह यह है कि पहले अशुमोपयोगका त्याग किया जाता है, दूसरे शुभोपयोगका
• आश्रय लिया जाता है, जो कि शास्त्राभ्यास - ( स्वाध्याय) -
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-के द्वारा सबसे अधिक ठीक बनता है; तीसरे शुद्धोपयोगमें
प्रवृत्ति तथा उसमें अधिक स्थिर रहने की भावना की जाती