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२८ , सन्मति-विद्या प्रकाशमाला सम्यक्चारित्र-गुणका उच्च विकास है, जिसका प्रधान कारण शुद्धस्वात्माका श्रद्धान है, जो कि बुद्धिमें स्वात्माकी धारणासे बनता है । और इस तरह बुद्धिमें स्वात्माकी . धारणाको बड़ा महत्त्व प्राप्त है। जो जीव देहादिकमें आत्म-धारणा किये हुए हैं वे भ्रान्त हैं, बहिरात्मा हैं
और उनका आत्म-विकास उस वक्त तक नहीं बन सकता जब तक कि वे वैसी धारणाको अपनाए रहते हैं।
जिस वुद्धिका यहां उन्लेख है उसका स्वरूप आगे दिया गया है।
बुद्धिका लक्षण यथास्थितार्थान् पश्यन्ती धीःस्वात्माभिमुखी सदा। बुद्धिरत्र तदा बन्धो बुद्धयाधानं तदन्वियात् १७ ___ 'जिस रूपमें पदार्थ स्थित हैं उसी रूपमें उनको देखतीजानती हुई धी (मति), जो सदा स्वात्माभिमुखी होती है वह, यहाँ वुद्धिके रूपमें ग्राह्य है। तब हे बन्धु ! उस बुद्धिके आत्म-सम्बन्धको समझो।'
व्याख्या-यहाँ बुद्धि उस सुमतिका नाम है जो जिस रूपमें पदार्थ स्वरूपसे स्थित हैं उनको उसी रूपमें देखती* बहिरात्मा शरीरादौ जातात्मभ्रान्तिः । (समाधितंत्रे पूज्यपादः) १ तस्याः बुद्ध, श्राधानं सम्बन्धः बुद्धधाधानं कथ्यते । । जानीयात् ।
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