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अध्यात्म-रहस्य.. बानती है अन्यथा अथवा न्यूनाधिकरूपमें नहीं और सदा स्वात्माके सम्मुख रहती है-स्वात्माके ज्ञानसे कभी विमुख नहीं होती और इस तरह जो स्व-पर-प्रकाशिका होती है। ऐसी बुद्धिका नाम ही मम्यग्ज्ञान है। यहाँ वुद्धिके आत्म-सम्बन्धको समझनेकी प्रेरणा की गई है। आत्माके साथ बुद्धिका घनिष्ठ अथवा तादात्म्य सम्बन्ध है। बुद्धिके विना आत्मा और आत्माके विना बुद्धि नहीं होती.। जो बुद्धिको आत्मरूपमें ग्रहण करता है, चाहे वह कितनी ही अल्प-विकसित अवस्थामें क्यों न हो, वह आत्माको ग्रहण करता है और एक दिन उसका अधिकाधिक विकास करनेमें समर्थ हो सकता है। प्रत्युत इसके, जो बुद्धिके आत्म-सम्बंधको नहीं समझता, बुद्धिको अचेतन पदार्थों का-पृथ्वी, जल, अग्नि और वायुरूप भूतचतुष्ककाकार्य मानता है वह आत्मज्ञानसे शून्य है और इसलिए अात्मविकासको सिद्ध करनेमें समय नहीं हो सकता।
“स्वसंवेदनके अतिरिक्त अन्यके त्यागका विधान अहमेवाहमित्यात्म-ज्ञानादन्यत्र चेतनाम् । । इदमस्मि करोमीदमिदं मुंज इति नि॥१८॥ - मैं ही मैं हूँ, इस आत्मज्ञानसे मित्र , अन्यमें 'यह मैं १चिन्तनाम्।