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अध्यात्म-रहस्य
तक कि आत्माको व्यवहारतः (अमली तौर पर) देहादिकसे मित्र तथा परमात्मस्वरूपसे अभिन्नरूपमें अनुभव नहीं किया जाता है । . . ____ आत्मगुणोंके विकासको रोकने वाले जो बन्धन हैं वे कर्मरूप बन्धन हैं और उनके मुख्यतः तीन भेद हैं-भावकर्म,द्रव्यकर्म और नोकर्म । इन तीनों प्रकार के कर्मबंधनोंका ग्रन्थमें संक्षेपतः स्वरूप दिया है और विकासोन्मुख आत्माके द्वारा इनके त्यागकी भावनाको व्यक्त किया गया है (५०-६३)।
इस ग्रन्थमें आत्माकी ब्रह्ममें लीनता तथा आत्मामें ब्रह्म की भावनाके द्योतक अनेक पद्य हैं, जिनमें से एक पद्य यहाँ पर खास तौर से उन्लेनीय है और वह इस प्रकार है:
निश्चयात्सचिदानन्दाऽद्वयरूपं तदस्म्यहम् । ब्रह्मति सतताभ्यासाल्लीये स्वात्मनि निर्मले ॥३०॥
इसमें बतलाया है कि 'सच्चिदानन्दसे अद्वैतरूप जो ब्रह्म है वही निश्चयनयकी दृष्टिसे मैं हूँ, इस प्रकारके निरन्तर अभ्याससे मैं अपने निर्मल आत्मामें लीन होता हूँ-अपने शुद्ध स्वरूपको प्राप्त करनेमें समर्थ होता हूँ।'
यहाँ ब्रमका सद, चित, और आनन्द लक्षण देखने में वही मालूम होता है जो ब्रह्माद्वैतवादी वेदान्तदर्शनमें माना * शृण्वन्नप्यन्यत काम वदन्नपि कलेवरात्। नाऽऽस्मान भावयेदिन यावत्तावन्न मोक्षमा ।। (समाधितन्त्रक)