________________
७०
-
सन्मति-विद्या-प्रकाशमाला कार्यों अथवा कर्म-फलोंमें आसक्ति घटती है और एक दिन उन सबसे निवृत्तिकी भी प्राप्ति हो जाती है।
भावकर्मका स्वरूप भाव्यते ऽभीक्ष्णमिष्टार्थ-पीत्याद्यात्मतयात्मना। वेद्यते यत्करोतीमं यद्वशेष भावकर्म तत् ॥६१॥
'जो निरन्तर इट अर्थकी प्रोति (राग) आदिके रूपसे आत्माके द्वारा अनुभव किया जाता है और जिसके । वशवर्ती होने पर संसारी जीव राग-द्वेषादिरूप प्रवृत्ति करता है, वह 'भावकम है।
व्याख्या-राग-द्वेप-काम-क्रोधादिके रूपमें जिसे सदा अनुभव किया जाता है उसको तथा कर्मरूप परिणत पुद्गल पिण्डकी उस शक्तिको भावकर्म कहते हैं जिसके वश यह नीव रागादिकका कर्ता होता है । गोम्मटसार-कर्मकाण्डकी छठी गाथामें द्रव्यकर्म और भावकर्मका स्वरूप बतलाते हुए "पोग्गलपिंडो दवं तस्सत्ती भावकम्मं तु" यह वाक्य दिया है और गाथाकी टीकामें लिखा है_ "प्रागुक्तं सामान्यकर्म कर्मत्वेन एकं तु पुनः द्रव्य-भाव-भेदाद् द्विविधं । तत्र द्रव्यकर्म पुद्गलपिण्डो भवति । पिंडगतशक्तिः कार्ये कारणोपचारात् शक्तिजनिताऽज्ञानादिर्वा मावकर्म भवति।"
इससे मालूम होता है कि ज्ञानावरादि-द्रव्यकर्मरूप१वेद्यते । २ सति।
-
-