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सन्मति-विद्या प्रकाशमाला अनादि-सन्ततिसे उसी प्रकारकी अपनी चेतन-पर्यायोंके द्वारा परिवर्तित हो रहा हूँ-अर्थात् प्रतिक्षण पूर्वपर्यायसे नष्ट और उत्तरपर्यायसे उत्पन्न होता हुआ भी चैतन्यरूपसे सदा स्थिर चेतनामय बना हुआ हूँ।'
व्याख्या-पिछले पद्यमें श्रात्माने अपनेको चेवन द्रव्यके रूपमें अनुभव किया है, जो कि एक सामान्यदृष्टि है। इन पद्योंमें वह अपने आत्मद्रव्यकी अनादि-सन्ततिमे चली
आई क्रमवर्ती चेतन-पर्यायोंको लन्य करके अपनेको उत्पाद, व्यय और धौव्यके रूपमें अनुभव कर रहा है, जो कि एक विशेष दृष्टि है । इस दृष्टिमें उसे यह भी प्रतिभासित हो रहा है कि द्रव्यमात्र प्रतिक्षण उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यसे युक्त हैकोई भी द्रव्य ऐसा नहीं जो किसी समय द्रव्यके इस सत्लक्षणसे रहित हो * । वह विषयकी स्पष्टताके लिये उदाहरणके रूपमें किसी एक प्रसिद्ध अथवा प्रमाणसिद्ध द्रव्यको, जैसे सुवर्णनामके पुद्गलद्रव्यको, अपनी कल्पनामें लेता है और देखता है कि सुवर्णकी डलीसे जिस समय कंकण बनाया जा रहा है उस समय डली-रूपके नाशसे सुवर्णका नाश नहीं हो रहा है और न कंकणरूपके उत्पादसे कोई नया सुवर्ण ही उसमें आरहा है। बल्कि वही पीतादिगुण-विशिष्ट सुवर्ण है जो पहले डली, सरी आदिके रूपमें स्थित सद्व्य-लक्षणम् । उत्पाद-व्यय-प्रौव्ययुक्तं सत् ।। (तत्त्वार्थः)