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प्रध्यात्स-हस्य
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जिसके द्वारा शुद्ध-स्वात्मा ज्ञानशरीरी तथा विशिष्ट भावनाके पलपर श्रुतको अपनेमें स्पष्ट किये हुए साक्षाद किया जाता है--प्रत्यक्षरूपमें प्रतिभासित होता है वह यहाँ (इस अध्यात्म-योगशास्त्रमें) 'दृष्टि' कही जाती है।'
व्याख्या-ध्यातिके अनन्तर शुद्धस्वात्माका जिसके द्वारा साक्षात्-प्रत्यक्ष अवलोकन किया जाता है उसका नाम 'दृष्टि' है। यह दृष्टि बाहिरी चर्मचक्षुओंसे देखनेवाली दृष्टि नहीं है, किन्तु वह अन्तष्टि है जो व्यवधानोंको भेदकर शुद्ध-स्वात्माका साक्षात् दर्शन करानेवाली है । इस दृष्टिके द्वारा खात्मा अपने शुद्ध-स्वरूपमें रागादिक विकल्पोंसे रहित 'ज्ञानशरीरी' नजर आता है और ऐसा जान पड़ता है कि वह विशिष्ट-भावनाके बलपर सारे श्रुतज्ञानको अपने में स्पष्ट अथवा अंकित किये हुए है।
संवित्ति और दृष्टिका स्पष्टीकरण निज-लक्षणतो लक्ष्यं यद्वानुभवतः(ति) सुखम् । सासंविचिष्टिरात्मा लक्ष्यं दृग्धीश्च लक्षणम् १० ___'अथवा जो अपने लक्षणसे लक्ष्यको अच्छी तरह अनुभव करे-जाने वह संविति 'दृष्टि' कहलाती है। यहॉपर आत्मा लक्ष्य है और दर्शन-ज्ञान उसका लक्षण है।' व्याख्या-यहॉ प्रकारान्तरसे संवित्तिके रूपमें दृष्टिके