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अध्यात्म- रहस्य
असतुरूप ही हूँ; ऐसा मैं अनुभव करता हूँ। '
व्याख्या ——यहाँ आत्माके सत् और असत् रूपकी दृष्टिको स्पष्ट करके बतलाया गया है । सत्की दो दृष्टियाँ हैं - एक स्वद्रव्यादि - चतुष्टयकी और दूसरी प्रतिक्षणश्रव्योत्पत्ति - व्ययात्मक होनेकी । इन दोनों दृष्टियोंसे जो रहित है - परद्रव्यादि - चतुष्टयकी दृष्टिको लिये हुए है अथवा प्रतिक्षण धौव्योत्पत्ति-व्ययात्मक नहीं है वह असत् है । तच्चार्थसूत्र में 'सद्द्रव्यलक्षणम्' सूत्रके द्वारा द्रव्यमात्रका सामान्य लक्षण 'सत्' देकर फिर उस सत्का लक्षण ही 'उत्पाद-व्यय-धौव्ययुक्त सत्' दिया है । और स्वामी समन्तभद्रने देवागममें साफ लिखा है:--
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सदेव सर्व को नेच्छेत्स्वरूपादि-चतुष्टयात् । असदेव विपर्यासान्न चेन्न व्यवतिष्ठते ॥ १५ ॥ अर्थात् — सर्वद्रव्य स्वरूपादि - चतुष्टयकी दृष्टिसे सत् - रूप ही हैं और पररूपादि चतुष्टयकी दृष्टिसे असवरूप ही हैं। यदि ऐसा नहीं माना जायगा तो सत् और असत् दोनोंमेंसे किसीकी भी व्यवस्था नहीं बन सकेगी ।
स्वामीजीके इस वाक्यको लेकर ही रामसेनाचार्यने तवानुशासनमें निम्न वाक्यकी सष्टि की है—
सन्नैवाऽह सदाऽप्यस्मि स्वरूपादि-चतुष्टयात् । असन्तेवाऽस्मि चात्यन्तं पररूपाद्यपेक्षया ॥ १५४ ॥
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