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अध्यात्म-रहस्य
mmmmminmmmmmmmca.comm. वश बहुधा उसकी अवहेलना तथा उपेक्षा कर.जाता है और इसलिये सन्मार्गसे च्युत होजाता अथवा वना रहता है।
मोक्षमार्ग और उसकी आराधना करलत्रयात्म-स्वात्मैव मोक्षमार्गोजसास्ति तत् । स पृष्टव्यः स एष्टव्यः स द्रष्टव्यो मुमुक्षुभिः ॥१४॥ _ 'रत्नत्रयात्मक-सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप-वह शुद्ध स्वात्मा ही यथार्थतः मोक्षमार्ग है। अतः मुमुक्षुओंके द्वारा वही पृच्छनीय, वही अभिलपणीय और वही दर्शनीय है। ___ व्याख्या-यहाँ उसी निश्चयनयकी दृष्टिसे कथन है, बो शुद्धस्त्रात्माको ही परमार्थतः गुरु वतलाती है । उसकी दृष्टिमें जत्र शुद्धस्वात्मा सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्ररूप है तो वही वास्तवमें साक्षात् मोक्षमार्ग है, तब मुमुक्षुओंको उसे छोड़कर अन्य किससे मोक्षमार्ग पूछना चाहिये, किसकी अभिलाषा करनी चाहिये और किसके दर्शनोंकी इच्छा रखनी चाहिये ? एकमात्र अपने उस रत्नत्रयात्मक स्वात्माको ही गुरु मानकर उमसे पूछना चाहिये और उसको अपना अमिलवणीय तथा दर्शनीय बनाना चाहिये । जब कोई अपने शुद्ध स्वात्मासे गाढ • अविद्याभिदुरं ज्योतिः परं ज्ञानमयं महत् । प्रिष्टव्यं तदेष्टव्यं तद्रष्टव्यं मुमुक्षुभिः॥४॥
---इष्टोपदेशे, पूज्यपादाचार्य: