________________
४७
अध्यात्म-रहस्य था। इस तरह सुवर्णद्रव्य अपने गुणोंकी दृष्टिसे धौव्य
और पर्यायोंकी दृष्टिसे व्यय तथा उत्पाद के रूपमें लक्षित होता है। और यह सब एक ही समयमें घटित हो रहा है। व्यय और उत्पादका समय यदि मिन्न-भिन्न माना जायगा तो द्रव्यके सदरूपकी कोई व्यवस्था ही नहीं बन सकेगी; क्योंकि एक पर्यायके व्ययके समय यदि दूसरी पर्यायका आविर्भाव नहीं हो रहा है तो द्रव्य उस समय पर्यायसे शून्य ठहरेगा और द्रव्यका पर्यायसे शून्य होना गुणसे शुन्य होनेके समान उसके अस्तित्वमें बाधक है। इसीसे द्रव्यका लक्षण गुण-पर्यायवान भी कहा गया है, जो प्रत्येक समय उसमें पाया जाना चाहिये-एक क्षणका भी अन्तर नहीं बन सकता । एक समयका भी अन्तर द्रव्यके अमावका सूचक होगा और तब उत्पाद भी सर्वथा असदका उत्पाद कहलाएगा और इसलिये नहीं बन सकेगा । द्रव्यकी पूर्वपर्याय उत्तरपर्यायके उत्पादमें कारण पड़ती है, जब पूर्वपर्यायका पूर्वक्षणमें ही नाश हो गया और उत्तरक्षणमें उसका अस्तित्व नहीं रहा तव उत्पादके लिये कोई कारण भी नहीं रहता । अतः प्रत्येक द्रव्यमें उत्पाद-व्यय और ध्रौव्य तीनों एक क्षणवर्ती हैं, आत्मा भी चूँ कि द्रव्य है इसलिये उसमें भी ये प्रतिक्षण पाये जाते हैं, इसमें सन्देहके लिये कोई स्थान नहीं है।