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प्रस्तावना
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मिन्नात्मानमुपास्यामा परो मवति तादृशः। वर्तिदीप यथोपास्य मिना भवति तादृशी ॥ (समाधितन्त्र)
स्वात्माको परमात्मा बनानेमें 'सोऽहं'की दृढभावनाद्वारा जो योग संघटित होता है उसे यद्यपि शब्दोंके द्वारा ठीक व्यक्त नहीं किया जा सकता (५७) परन्तु बत्ती और दीपकके इस दृष्टान्त-द्वारा बहुत ही स्पष्टरूपसे अनुभवमें लाया जा सकता है। दृढभावनाका अर्थ मात्र तोता-रटन्तके रूपमें 'सोऽहं' पदकी उच्चारणा अथवा उसकी कोरी जाप जपनेका नहीं है। बल्कि 'स' और 'अहं'के वास्तविक रखरूपको ठीक समझते हुए 'अहं'को 'स. के स्वरूपमे परिणत करनेके दृढ संकल्प एव निश्चयको लिये हुए उसमें अपने भावको पूर्णतः जुटानेका है। जब तक ऐसी साधना नहीं हो पाती तब तक सिद्धि भी नहीं बनती। स्वात्माको परमात्माके रूपमें परिणत करना कोई साधारण खेल या तमाशा नहीं है, उसके लिये पूर्ण-निष्ठाके साथ अभ्यासमय जीवनकी वर्षों तथा जन्म-जन्मान्तरोंकी साधना एवं तपश्चर्या अपेक्षित है । और इसी लिये यह कहा गया है कि आत्मापरमात्माकी कथनीको वर्षों तक यथेच्छरूपमें दूसरोंके मुखसे सुनते और अपने मुखसे उसका उच्चारण करते अथवा दूसरोंको सुनाते रहनेसे भी आत्माकी उसके विकासको रोकनेवाले बन्धनोंसे मुक्ति उम वक्त तक नहीं बनती जत्र