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अष्टम प्रकारा
अध्यात्म-रहस्य
अपर नाम योगोद्दीपन-शास्त्र सानुवाद-हिन्दी-व्याख्यासे मंडित
व्याख्याकार जुगलकिशोर मुख्तार, युगवीर
संस्थापक 'वीरसेवामन्दिर' सरसावा जिला सहारनपुर
प्रकाशक वीर-सेवा-मन्दिर २१ दरियागंज, दिल्ली
प्रथमावृत्ति । मंगसिर, वीर सं० २४८४ . १००० प्रति
वि० सं०२०१४ आर) नवम्बर, १९५७
र
एक रुपया
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प्रकाशकीय आज 'अध्यात्म-रहस्य' नामक एक ऐसे दुर्लभ एवं महत्वपूर्ण प्राचीन ग्रन्थरत्नको अनुवादादिके साथ पाठकोंके हाथोंमें देते हुए बड़ी प्रसन्नता होती है जो चिर-प्रतीक्षित था, जिसका बहुतसे शास्त्र भण्डारोंकी खोज हो जाने पर भी कहींसे कोई पता नहीं चल रहा था, और जिसको निर्मित हुए आन ७१४ वर्षसे भी ऊपरका समय हो चुका है। समाजके लिये यह एक बड़े ही सौभाग्यकी वात है जो अजमेर वड़ा धड़ा पंचायती जैन मन्दिरके भट्टारकीय शास्त्रभएडारकी छानबीन करते समय मुख्तारश्री जुगलकिशोरजीको दो वर्ष हुए यह अतीव उपयोगी ग्रन्थ एक जीर्ण-गुटकेसे उपलब्ध हुआ है। इसने मुख्तारश्रीको अपनी ओर इतना आकर्षित किया कि उनके हृदयमें इसके अनुवादादिका. भाव जागृत हो उठा और उनकी सहज प्रेरणा पर प्रकाशनके लिये कुछ सज्जनोंका आर्थिक सहयोग भी प्राप्त हो गया। ग्रन्थकी व्याख्या तथा प्रस्तावनाके प्रस्तुत करनेमें जो स्तुत्य-श्रम हुआ है आशा है उससे पाठकजन यथेष्ट लाभ उठाने में प्रवृत्त होंगे और यह ग्रन्थ लोकमें अध्यात्म-योग-विषयक रुचिको प्रोजन देने में समर्थ होगा।
जयन्तीप्रसाद जैन, प्रभाकर
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समर्पण
स्व-पर-भेद-विज्ञानमें अनुरक्त, हिंसादिक पापोंसे विरक्त, इन्द्रिय-विषयोंमें अनासक्त, राग-द्वेषादि-शत्रुओंके
उन्मूलनमें उद्युक्त, सदाचारकी भावनाओंसे ओत-प्रोत
__ एवं
आत्म-विकासमें सदा दत्त-चित्त, माननीय मुमुक्षु-जनोंको
सादर समर्पित
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धन्यवाद इस 'अध्यात्म-रहस्य' शास्त्र के प्रकाशनमें निम्न सजनोंने बड़ी खुशीसे अपना आर्थिक सहयोग प्रदान किया है
और उसके द्वारा एक लुप्तप्राय महत्वपूर्ण ग्रन्थके शीघ्र उद्धारमें वीरसेवामन्दिरका हाथ बटाया है । इस उदारता
और श्रुतसेवाके लिये ये सभी सजन धन्यवादके पात्र हैं। संस्थाकी ओरसे ग्रंथकी २०० प्रतियाँ दातार महानुभावोंको यथेच्छ वितरणके लिये भेंट की गई हैं और.१०० प्रतियाँ अन्य अध्यात्मप्रेमी सजनों तथा मुमुचुजनोंको भेंट की जाएँगी:२५१) ला० मक्खनलालनी ठेकेदार,७ दरियागंज, दिल्ली । १०१) वा० लालचन्दजी जैन, एडवोकेट, रोहतक । १०१) वा० रघुवरदयालजी जैन एम.ए., करौलबाग, दिल्ली
-प्रकाशक
सन्मति प्रेस, २३० गली कुन्जस, दरीबा कलां, देहली।
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प्रस्तावना
ग्रन्थकी उपलब्धि और परिचय अध्यात्मके रहस्यको लिए हुए योग-विषयक यह अन्य विद्वद्वर पंडित आशाधरजीकी कृति है। यह ग्रन्थ अभी तक उपलब्ध नहीं था । इसकी मात्र सूचना ही अनगार-धर्मामृतकी टीका-प्रशस्तिके निम्न वाक्य-द्वारा मिलती थी:
आदेशात् पितुरध्यात्म-रहस्य नाम या व्यधात् ।
शास्त्रं प्रसन्न-गम्भीरं प्रियमारब्धयोगिनाम् ॥ इस वाक्यम बतलाया है कि 'अध्यात्म-रहस्य' नामका यह शास्त्र पिताके आदेशसे रचा गया है। साथ ही यह भी प्रकट किया है कि 'यह शास्त्र प्रसन्न, गम्भीर तथा आरब्ध-योगियोंके लिये प्रिय वस्तु है ।' योग-विषयसे सम्बन्ध रखनेके कारण इसका दूसरा नाम 'योगोद्दीपन' भी है, जिसका उल्लेख हालमें खोजी गई ग्रन्थ-प्रतिके अन्तमें निम्न प्रकारसे पाया जाता है:
* ५० नाथूरामजी प्रेमीने अक्तूबर १९५६ में प्रकाशिव 'जैन साहित्य और इतिहास' में भी इस ग्रन्थको 'अप्राप्य' लिखा है ।
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अध्यात्म - रहस्य
इत्याशाघर - विरचित धर्मामृतनाम्नि सूक्ति-संग्रहे योगोद्दीपनयो नामाष्टादशोऽध्यायः ।
ग्रन्थके इस समाप्ति-सूचक पुष्पिका - वाक्यसे यह भी मालूम होता है कि पं० आशाधरजीने इसे प्रथमतः अपने धर्मामृतग्रन्थके अठारहवें अध्यायके रूपमें लिखा है । धर्मामृतमें अनगार धर्मामृतके नौ और सागारधर्मामृतके आठ अध्याय हैं । सागारधर्मामृतके अन्तिम अध्यायमें उसे क्रमशः सत्रहवां अध्याय प्रकट किया है । यह १८ वॉ अध्याय, जो उसके पश्चात् होना चाहिये था, अभी तक धर्मामृत किसी भी संस्करणके साथ प्रकाशित नहीं हुआ और न उसकी किसी लिखित ग्रन्थ- प्रतिके साथ जुड़ा ही मिला है । जान पड़ता है आशाधरनीने इसे सागारधर्मामृतकी टीकाके भी बाद बनाया है, जो कि विक्रम संवत् १२६६ पौषकृष्ण सप्तमीको बनकर समाप्त हुई है; क्योंकि उस टीकाकी प्रशस्तिमें इस ग्रन्थका कोई नामोल्लेख तक न होकर वादको कार्तिक सुदि पंचमी सं० १३०० में वनकर पूर्ण हुई अनगार- धर्मामृतकी टीकामें इसका उक्त उल्लेख पाया जाता है । और इससे यह स्पष्ट है कि प्रस्तुत ग्रंथकी रचना उक्त दोनों टीका - समयोंके मध्यवर्ती किसी समय में हुई है और वह मूल 'धर्मामृत' ग्रन्थसे कई वर्ष बादकी - कृति है । साथ ही, यह भी पता चलता है कि पं० आशा
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प्रस्तावना
धरजी यद्यपि अपनी इस कृतिको धर्मामृतका १८ वाँ अध्याय करार देकर उसीका चूलिकादिके रूपमें एक अंग बनाना चाहते थे, परन्तु मूलग्रन्थ-प्रतियों और सांगारधर्मामृतकी टीकाके भी अधिक प्रचारमें आजाने आदि कुछ कारणोंके वश वे वैसा नहीं कर सके और इसलिये वादको अनगार-धर्मामृतकी टीकामें उन्होंने उसे 'अध्यात्म-रहस्य' नाम देकर एक स्वतन्त्र शास्त्रके रूपमें उसकी घोषणा की है। __ इस ग्रन्थकी पद्यसंख्या ७२ है, जब कि उक्त ग्रन्थप्रतिमें वह ७३ दी हुई है। ४४ वें पद्यके वाद निम्न वाक्य नं० ४५ डाल कर लिखा हुआ है, जिसमें भावमन और द्रव्यमनका लक्षण दिया है
"गुण-दोष-विचार-स्मरणादिप्रणिधानमात्मनो मावमनः । तदभिमुखस्योस्यैवाऽनुपाहिपुद्गलोच्चयो द्रव्यमनः ।" इस वाक्यको पहले गधरूपमें समझ लिया गया था और तदनुसार अनेकान्त (वर्ष १४) में, 'पुराने साहित्यकी खोज' शीर्षकके नीचे (पृष्ठ १३) प्रकट भी किया गया था, परन्तु वादको मालूम हुआ कि यह तो पद्य है और इसके छन्दका नाम 'आर्यागीति है, जिसके विपम चरणोंमें १२ और समचरणोंमें २० मात्राएँ होती हैं। इस दृष्टिसे चौथे चरणमें प्रयुक्त 'ऽनुपाहि' शब्द 'ऽनुग्राही' पद होना चाहिये, जो समझने की भूलमें सहायक हुआ है। पं०
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अध्यात्म-रहस्य आशाधरजीने अपने अनगारधर्मामृतके प्रथम पद्यकी स्वो० टीकामें इसे पद्यरूपसे ही 'भवति चाऽत्र पद्यम्' इस वाक्य के साथ उद्धृत किया है और इसमें 'ऽनुग्राही' पद का ही प्रयोग किया है। उनके इस उद्धरण से स्पष्ट है कि यह पद्य उनका नहीं है--किसी दूसरे ग्रन्थका पद्य है।
जान पड़ता है यह लक्षणात्मक पद्य ४४ वे पद्यमें प्रयुक्त 'मन' पद अथवा अगले पद्यमें प्रयुक्त हुए 'द्रव्यमना' पदके वाच्यको स्पष्ट करनेके लिये किसीने टिप्पणीके तौर पर ग्रन्थके हाशिये पर उद्धृत किया होगा और वह प्रतिलेखककी असावधानीसे मूलग्रन्थका अंग समझा जाकर अन्यमें प्रविष्ट होगया और उस पर गलतीसे पद्य-नम्बर भी पड़ गया है । उसीके फलस्वरूप अगले पद्योंके क्रमाङ्कोंमें एक-एक अंककी वृद्धि होकर अन्तका ७२ वॉ. पद्य ७३. नवम्बरका बन गया है । अस्तु यह ग्रन्थ अजमेरके भट्टारकीय शास्त्रभंडारके एक गुटकेमें, जिसके पत्रोंकी स्थिति अति जीर्ण है, ७ पत्रों पर (२५२ से २५६ तक) अंकित है और प्रायः ४०० वर्षका लिखा हुआ जान पड़ता है। पत्रोंकी लम्बाई तथा चौड़ाई समान ६॥ इंच और प्रतिपत्र पंक्तिसंख्या प्रायः २६ है। हाशिये पर संस्कृत-टिप्पणी भी अंकित है।
प्रस्तुत अन्य अपने विषयका एक बड़ा ही सुन्दर एवं
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प्रस्तावना सार ग्रन्थ है। अनगार-धर्मामृतकी टीका-प्रशस्तिमें इसके लिये जिन वीन विशेषणोंका प्रयोग किया गया है वे इस पर ठीक-ठीक घटित होते हैं। यह निःसन्देह 'प्रसन्न और 'गम्भीर' है। प्रसन्न इसलिये कि यह झटसे अपने अर्थको प्रतिपादन करनेमें समर्थ है और गम्भीर इसलिये कि इसकी अर्थव्यवस्था दूसरे अध्यात्मशास्त्रोंकी-समाधितन्त्र तथा तत्वानुशासनादि-जैसे ग्रन्थोंकी-भी अपेक्षाको साथमें लिये हुए हैक । योगका प्रारम्भ करनेवालोंके लिये तो यह बड़े ही कामकी चीज है उन्हें योगका मर्म समझाकर ठीक मार्ग पर लगानेवाली तथा उनके योगाभ्यासका उद्दीपन करनेवाली है। और इसलिये इसे उनके प्रेमकी अधिकारिणी एवं प्रिय वस्तु कहना बहुत ही स्वाभाविक है । ग्रन्थका सारा विषय अध्यात्म-योगसे सम्बन्ध रखता है। उसका प्रारम्म ही 'मार्गादारूढयोगः स्यान्मोक्ष-लक्ष्मीकटाक्षभाक् (२), स योगी योगपारगः (३)-जैसे वाक्योंसे होता है और इसलिये ग्रन्थका दूसरा नाम 'योगोद्दीपन' सार्थक ही नान पड़ता है। अध्यात्म-रसिक वृद्ध पिताजीके आदेशसे लिखी गई यह कृति आशाधरजीके सारे जीवनॐ प्रसन्नगंभीर-प्रसन्न झगित्यर्थप्रतिपादनसमर्थम् । गम्भीर शास्त्रान्तर-सव्यपेक्षार्थ । प्रसन्नच तद्गम्भीरं च प्रसन्न-गम्भीरं ।
-अनगारधर्मामृत-प्रशस्ति-टिप्पणी ।
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अध्यात्म - रहस्य
के अनुभवका निचोड़ जान पड़ती है। मैं तो समझता शारीने इसे लिखकर अपने विशाल 'धर्मामृत' नामक ग्रन्थ-प्रासाद पर एक मनोहर सुवर्ण कलश चढ़ा दिया है । और इस दृष्टिसे यह उस ग्रन्थके साथ मी अगले संस्करणोंमें प्रकाशित होनी चाहिये। मुझे इस ग्रन्थको देखकर बड़ी प्रसन्नता हुई और साथ ही इसके अनुवादादिककी भावना भी जागृत हो उठी। उसी के फलस्वरूप यह ग्रन्थ अपने वर्तमानरूपमें पाठकोंके सामने उपस्थित है।
यहाँ पर एक बात खास तौरसे ध्यानमें लेनेकी है और वह यह है कि ग्रन्थके उक्त समाप्ति-सूचक पुष्पिका-वाक्यमें धर्मामृत गून्यको, जिसके १८ वें अध्यायके रूपमें प्रस्तुत ग्रन्थ प्रथमतः निर्मित हुआ है, 'सूक्तिसंग्रह' विशेपणके साथ उन्लेखित किया है। धर्मामृत मूलका यह विशेषण नया ही प्रकाशमें आया है और वह बहुत कुछ सार्थक जान पड़ता है। उसका यह आशय कदापि नहीं कि ग्रन्थ में दूसरे विद्वानोंकी - आचार्यादि-प्रमाण-पुरुषोंकीसूक्तियोंका शब्दशः संग्रह किया गया है; बल्कि वह प्रायः अर्थशः उन सूक्तियोंके संग्रहका द्योतक है— कहीं कहीं विपयके प्रतिपादिनादिकी दृष्टिसे श्रावश्यक शब्दोंका संग्रह हो जाना भी स्वाभाविक है, और इसीलिये यहाँ अर्थशः के पूर्व 'प्राय:' शब्दका प्रयोग किया गया है। स्वयं ग्रन्थ
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प्रस्तावना
कारने अनगारधर्मामृतके अन्तमें उसे जिनप्रवचनसे उद्धृत श्रमणधर्मका सार,और उसके प्रत्येक अध्यायकी टीकाके अन्तमें प्रयुक्त पद्यमें 'जिनेन्द्रागमरूप क्षीरसागरको मथकर निकाला हुआ धर्मामृत प्रकट किया है। साथ ही अन्यकी प्रशस्तिमें उसे 'अर्हद्वाक्यरस' विशेषणके साथ भी उल्लिखित किया है, जिसका अर्थ टिप्पणीमें 'जिनागमनिर्यासभूतं' (जिनागमका रस या सार) दिया है । इस सब कथनसे भी उक्त 'सूक्तिसंग्रह' विशेषण, प्रतिपादित आशयके साथ, सार्थक जान पड़ता है। यहाँ 'सूक्ति' शब्द सद्गुरुत्रोंकी उक्तियोंका वाचक है और सद्गुरुओंमें मुख्यतः अर्हन्तों तथा गौणतः उन गणधरादि परम्परा-आचार्योका ग्रहण है नो अर्हद्वाणी तथा उसके द्वारा प्रतिपादित अर्य एवं आशयको श्रुतनिबद्ध करके उसे सुरक्षित रखते आए हैं। धर्मामृतके दोनों भागोंकी टीकाओंमें प्रमाणादिके रूपमें उद्धृत वाक्योंको देखनेसे स्पष्ट पता चलता है कि ग्रन्थकार महोदयने कहाँसे किन वाक्योंका किस रूपमें क्या कुछ सार खींचा है अथवा उन्हें किस रूपमें अपनाकर अपने ग्रन्थका अंग बनाया है। और इससे उनके साहित्य
* "जिनप्रवचनाम्बुधेरुद्धृतं... श्रमणधर्मसारम् ।"
"यो धर्मामृतमुधार सुमनस्तृप्त्यै जिनेन्द्रागमक्षीरोदं शिवधीनिमथ्य जयता स श्रीमदाशावर।"
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अध्यात्म-रहस्य
सृजनकी कला और चातुरी भी स्पष्ट सामने आ जाती है, जिसमें उनके ग्रन्थनिर्माणकी सारी विशेषता संनिहित है । निःसन्देह पं० श्रशाधरजीने अपने बुद्धिवलसे श्रगाध जैनागम समुद्रका बहुत कुछ मन्थन करके सूक्तियोंके रूपमें धर्मामृत निकाला है और इसीसे वह अपने उक्त ग्रन्थको इतना सुन्दर एवं प्रामाणिक बना सके हैं।
प्रस्तुत ग्रन्थ भी एक सूक्तिसंग्रह है, जिसमें अध्यात्मविपयके अनेक ग्रन्थोंका मन्थन करके अपनी रुचि तथा आवश्यकता के अनुसार उपयुक्त सूक्तियोंका संग्रह किया गया है; जैसा कि ग्रन्थकी व्याख्या तथा पाद-टिप्पणियों (फुटनोट्स) में उद्धृत वाक्योंकी तुलनासे जाना जाता है। साथ ही, उससे यह भी मालुम होता है कि ग्रन्थकारके सामने यद्यपि अध्यात्म विपयके कितने ही ग्रन्थ रहे हैं परन्तु उनमें समाधितन्त्र, तवानुशासन और इष्टोपदेशादि जैसे कुछ ग्रन्थ अधिक प्रिय तथा अपने त्रिपयके लिये उपयुक्त जान पड़े हैं, और इसी लिये उनकी सूक्तियोंका ग्रन्थ में अधिक संग्रह किया गया है। संग्रह तथा सारग्रहणकी पद्धतिका भी उनसे कितना ही बोध हो जाता है । ग्रन्थको शीघ्र प्रकाशनकी प्रेरणादिके वश जहाँ व्याख्याको कहीं कहीं विशेष रूप नहीं दिया जा सका वहाँ व्याख्यादिमें और अधिक पद्योंको तुलना करके रखनेका अवसर भी
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प्रस्तावना .amirmwamremamurarmerramerama
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नहीं मिल सका-ऐसे और भी अनेक पद्य चादको मिले है परन्तु इतना सुनिश्चित है कि ग्रन्थमें जो कुछ लिखा गया है वह निराधार नहीं है। पं० आशाधरजी 'नाऽमूलं लिख्यते किंचित्' इस नीतिका अनुसरण करनेवाले विद्वानोंमेंसे थे, और इसलिये कल्पितरूपमें ऐसा कुछ भी लिखते मालूम नहीं होते जिसके लिये उनके पास कोई मूल आधार या प्रमाण न हो । इस ग्रन्थमें उन्होंने अपने कुछ पूर्व-रचित पद्योंका भी संग्रह किया है, ऐसा निम्न पद्योंके अस्तित्वसे जान पड़ता है :
शुद्ध-बुद्ध-स्वचिद्र पादन्यस्यामिमुखी रुचिः ।
व्यवहारेण सम्यक्त्वं निश्चयेन तथाऽऽत्मनः ॥१७॥ * यहाँ उनमेसे नमूनेके तौर पर दो पद्य नीचे दिये जाते हैं:(१) यथैकमेकदा द्रव्यमुत्पित्सु स्थास्तु नश्वरं।
तयैव सर्वदा समिति तत्त्वं विचिन्तयेत् ।। __ यह तत्वानुसाशनका पद्य है, इसके आशयको कुछ स्पष्ट करते हुए दो पद्यों नं० ३४,३५ में उद्धृत किया गया है । (२) स्थूलो व्यंजनपर्यायो वाग्गम्योऽनश्वरः स्थिरः।।
सूक्ष्मः प्रतिक्षणध्वंसी पर्यायश्चार्थसंज्ञकः ।।
यह पद्य अनगारधर्मामृत द्वि० अध्यायके २४वें पद्यकी स्वोपन-टीकामें 'उक्तंच' रूपसे उद्धृत है और इसलिये ग्रन्थकर्ताकी निजकी कृति न होकर किसी दूसरे ग्रन्थकारकी कृति जान पड़ती है। इसके पूर्वार्ध तथा उत्तरार्धके आशयको क्रमश: दो पद्यों ३८,३८ के उत्तरार्ध तथा पूर्वार्ध में संग्रह किया गया है।
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अध्यात्म-रहस्य
निविकल्प-स्वसवित्तिरनपित-परमहा । सजानं निश्चयानुफ व्यवहारनयात्परम् ॥६॥ सद्वृत्तं सर्वसावद्य-योग-व्यावृत्तिरात्मनः। गौणं स्याद् वृत्तिरानन्द-सान्द्रा कर्मच्छिदाऽजसा Hol तत्त्वार्याऽमिनिवेश-निर्णय-तपश्चेष्टामयीमात्मनः । शुद्धि लब्धिवशाभवन्ति विकलां यद्यच पूर्णामपि । स्वात्म-प्रत्यय-वित्ति-तल्लयमयीं तद्व्यसिंहप्रियां। भूयाद्वो व्यवहार-निश्चयमय रलत्रयं श्रेयसे | ये चारों पद्य 'रत्नत्रयविधान' ग्रन्थके हैं । इनमेंसे प्रथम वीन पद्य उसमें क्रमशः सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रकी पूजात्रोंमें पुष्पांजलि क्षेपणके अनन्तर पाये जाते हैं और चौथा पद्य सम्यञ्चारित्रकी पूनाके अन्तमें नो तीन पद्य आशीर्वादात्मक है उनमें मध्यका (६१ वाँ) पद्य है । यह ग्रन्थ सागारथर्मामृत-टीकाकी समाप्तिसे भी पहले बन चुका था, और इसीसे इसका उल्लेख उक्त टीकाकी प्रशस्तिमें निम्न प्रकारसे पाया जाता है
रलत्रय-विधानस्य पूजा-माहाल्य-वर्णनम् । रलत्रयविवानाख्यं शास्त्र वितनुते ल यः ॥१॥
इससे स्पष्ट है कि ये चारों पद्य अध्यात्म-रहस्यसे पूर्वकी रचना हैं और इन्हें ज्यों का त्यों अपने प्रस्तुत ग्रन्थका भी अंग बनाया गया है, जोकि एक बहुत कुछ स्वाभाविक घटना है।
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प्रस्तावना mummmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm ___ इस तरह यह ग्रन्थका संक्षिप्त परिचय है; विशेष परिचय ग्रन्थकी विषय-सूचीसे प्राप्त किया जा सकता है।
ग्रन्थके विषयका विवेचन प्रस्तुत ग्रन्थका विषय उसके नामसे स्पष्ट है और वह है अध्यात्मका रहस्य । 'अध्यात्म' नाम आत्मा तथा परमात्माका, तचत्सम्वन्धीका और उस सम्बन्धका भी है जो प्रत्येक जीवात्माका शक्ति तथा व्यक्तिके रूपमें स्थित परमात्माके साथ सुघटित है । 'रहस्य' नाम गुह्य-गूढ तच अथवा मर्मका है। इस सबका फलितार्थ यह हुआ कि इस ग्रन्थमें आत्मा-परमात्मा और दोनोंके सम्बन्धका जो यथार्थ वस्तु-स्थितिका प्रकाशक गुप्त रहस्य अथवा मर्म है--जिसको साधारण जनता नहीं जानती और कितने ही मिथ्यादृष्टि-प्रधान विद्वान् भी जिसके विषयमें भ्रान्त चले जाते हैं-उसे संक्षेपमें प्रकट किया गया है । संक्षेपमें इसलिये कि ग्रन्थ अल्प-विस्तारवाला होनेसे सूत्ररूपमें ही उस के प्रकट करनेकी दृष्टिको लिये हुए है।
श्रीकुन्दकुन्दाचार्यने मोक्खपाहुढ(मोक्षप्राभूत) में और श्रीपूज्यपादाचार्यने समाधितन्त्रमें आत्माको तीन भेदोंमें विभक्त किया है-१ वहिरात्मा, २ अन्तरात्मा और ३ परमात्मा। ये तीन भेद आत्माकी किसी जातिके
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अध्यात्म- रहस्य
वाचक नहीं, बल्कि भव्यात्माकी अवस्था विशेषके संद्योतक हैं । बहिरात्मता उस अवस्थाका नाम है जिसमें यह आत्मा अपनेको नहीं पहिचानता, देह तथा इन्द्रियोंके द्वारा स्फुरित होता हुआ उन्हींको अपना आत्मा समझता है और इसलिये मूढ तथा अज्ञानी कहलाता है और अपनी इस भूल के वश नाना प्रकारके दुःख-कष्ट भोगता है । अन्तरात्मता उस अवस्थाविशेषका नाम है जिसे प्राप्त होकर यह जीवास्मा अपनेको पहिचानता है, देहादिकको अपने स्वरूपसे मित्र जानता है, उनमें आसक्त नहीं होता और इसलिये ज्ञानी तथा आत्मविद् कहा जाता है; परन्तु पूर्णज्ञानी तथा : पूर्णसुखी नहीं हो पाता । परमात्मा आत्माकी उस विशिष्टतम अवस्थाका नाम है, जिसे पाकर यह जीव अपने पूर्ण विकासको प्राप्त होता हुआ पूर्णज्ञानी और पूर्णसुखी बन जाता है । इस तरह अवस्था या पर्यायकी दृष्टिसे आत्माकी त्रिविधता है - स्वरूपसे या द्रव्यको दृष्टिसे वह तीन प्रकारका नहीं, किन्तु एक ही प्रकारका है।
श्रात्माके इन तीन अवस्था - मेदोको प्रकृत ग्रन्थमें स्वात्मा, शुद्धस्वात्मा और परब्रह्म, इन तीन नामोंसे उल्लेखित किया गया है, जिनमें 'परब्रह्म' परमात्माका, 'शुद्धस्वात्मा' अन्तरात्माका और 'स्वात्मा' शुद्धस्वात्मासे पूर्ववर्ती होनेके कारण अशुद्धस्वात्मा श्रथवा बहिरात्माका
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प्रस्तावना
वाचक है। यहाँ आत्माका 'स्व' विशेषण अपनी खास विशेषता रखता है और इस बातका संघोतक है कि प्रत्येक संसारी बीवका आत्मा अन्य जीवोंके आत्माओंसे अपना पृथक् व्यक्तित्व और अस्तित्व रखता है, वह किसी एक ही (सर्वथा अद्वैत) अखण्ड आत्माका अंशभूत नहीं है और इसलिये ब्रह्माद्वैतवादी वेदान्तियोंने संसारी जीवोंके पृथक अस्तित्व और व्यक्तित्वको न मानकर उन्हें जिस सर्वथा नित्य, शुद्ध, एक, निगुण और सर्वव्यापक ब्रमका अंश माना है वह ब्रह्म भी यहाँ 'परब्रम' पदके द्वारा अभिप्रेत नहीं है । वैसे किसी ब्रह्मका अस्तित्व तात्विकी जैनदृष्टिसे बनता ही नहीं। और इसलिये यहाँ परब्रह्म पदका अभिप्राय उस पूर्णतः विकासको प्राप्त मुक्तात्माका है जो अनादिअविद्याके वश संलग्न हुई द्रव्य-भावरूप कर्मोपाधि और वजन्य विमाव-परिणतिरूप अशुद्धिको दूर करता हुआ अपनी स्वाभाविकी परमविशुद्धि एवं निर्मलताको प्राप्त होता है और इस तरह प्राप्त अथवा प्राविभूत हुई शुद्धावस्थाको विकारका कोई कारण न रहनेसे सदा अक्षुण्ण बनाये रखता है। __ ऐसे ही परब्रमके ध्यानसे, जो अपने आत्म-प्रदेशोंसे सर्वत्र व्यापक नहीं होता, 'सोऽहं' इस सूक्ष्म शब्दब्रह्मके द्वारा मनको संस्कारित करनेका ग्रन्थमें उल्लेख है (४४)। 'सोऽहं' पदमें 'स' शब्द उसी परब्रमका वाचक हैन कि
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अध्यात्म-रहस्य
वेदान्त-सम्मत उस परब्रह्मका जिसे नित्य शुद्ध और विमुक्त होने पर भी माया व्याप्त होती है तथा जिसके अनेकानेक अंशों-अंगोंको अविद्या सताती है और 'अहं' शब्द स्वात्माका वाचक है, जो कि अपने प्रदेशों तथा गुणोंकी दृष्टिसे अपना स्वतन्त्र तथा मिन अस्तित्व रखता हुआ भी द्रव्यदृष्टिसे परमब्रह्म-परमात्माके ही समान है। दोनों में एक ही जैसे गुणोंका सद्भाव है, अन्तर केवल इतना ही है कि एकमें वे गुण पूर्णतः विकसित हो चुके हैं और दूसरे अविकसित तथा अल्पविकसित-दशामें अवस्थित हैं। गुणोंकी दृष्टिसे मैं वही हूँ जो परमब्रह्म-परमात्मा, इस सोऽहंकी निरन्तर भावना-द्वारा विकसित श्रात्म-गुणोंको अपने सम्पर्क में लाकर स्वात्मामें शक्तिरूपसे स्थित गुणोंका विकास किया जाता है, और इस तरह स्वात्माको परमब्रह्म अथवा परमात्मा बनाया जाता है (५७-५६)। मिनात्मा परब्रह्मकी गाढ आराधना अथवा उसमें लीनतासे स्वात्मा उसी प्रकार परब्रह्म-परमात्मा बन जाता है जिस प्रकार कि तैलादिसे सुसज्जित बत्ती प्रज्वलित दीपककी गाढ-आलिंगन द्वारा उपासना करती हुई तद्रप ही दीपशिखा बनकर प्रज्वलित हो उठती है। जैसा कि श्री पूज्यपादाचार्यके निम्न वाक्यसे भी प्रकट है।
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प्रस्तावना
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मिन्नात्मानमुपास्यामा परो मवति तादृशः। वर्तिदीप यथोपास्य मिना भवति तादृशी ॥ (समाधितन्त्र)
स्वात्माको परमात्मा बनानेमें 'सोऽहं'की दृढभावनाद्वारा जो योग संघटित होता है उसे यद्यपि शब्दोंके द्वारा ठीक व्यक्त नहीं किया जा सकता (५७) परन्तु बत्ती और दीपकके इस दृष्टान्त-द्वारा बहुत ही स्पष्टरूपसे अनुभवमें लाया जा सकता है। दृढभावनाका अर्थ मात्र तोता-रटन्तके रूपमें 'सोऽहं' पदकी उच्चारणा अथवा उसकी कोरी जाप जपनेका नहीं है। बल्कि 'स' और 'अहं'के वास्तविक रखरूपको ठीक समझते हुए 'अहं'को 'स. के स्वरूपमे परिणत करनेके दृढ संकल्प एव निश्चयको लिये हुए उसमें अपने भावको पूर्णतः जुटानेका है। जब तक ऐसी साधना नहीं हो पाती तब तक सिद्धि भी नहीं बनती। स्वात्माको परमात्माके रूपमें परिणत करना कोई साधारण खेल या तमाशा नहीं है, उसके लिये पूर्ण-निष्ठाके साथ अभ्यासमय जीवनकी वर्षों तथा जन्म-जन्मान्तरोंकी साधना एवं तपश्चर्या अपेक्षित है । और इसी लिये यह कहा गया है कि आत्मापरमात्माकी कथनीको वर्षों तक यथेच्छरूपमें दूसरोंके मुखसे सुनते और अपने मुखसे उसका उच्चारण करते अथवा दूसरोंको सुनाते रहनेसे भी आत्माकी उसके विकासको रोकनेवाले बन्धनोंसे मुक्ति उम वक्त तक नहीं बनती जत्र
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अध्यात्म-रहस्य
तक कि आत्माको व्यवहारतः (अमली तौर पर) देहादिकसे मित्र तथा परमात्मस्वरूपसे अभिन्नरूपमें अनुभव नहीं किया जाता है । . . ____ आत्मगुणोंके विकासको रोकने वाले जो बन्धन हैं वे कर्मरूप बन्धन हैं और उनके मुख्यतः तीन भेद हैं-भावकर्म,द्रव्यकर्म और नोकर्म । इन तीनों प्रकार के कर्मबंधनोंका ग्रन्थमें संक्षेपतः स्वरूप दिया है और विकासोन्मुख आत्माके द्वारा इनके त्यागकी भावनाको व्यक्त किया गया है (५०-६३)।
इस ग्रन्थमें आत्माकी ब्रह्ममें लीनता तथा आत्मामें ब्रह्म की भावनाके द्योतक अनेक पद्य हैं, जिनमें से एक पद्य यहाँ पर खास तौर से उन्लेनीय है और वह इस प्रकार है:
निश्चयात्सचिदानन्दाऽद्वयरूपं तदस्म्यहम् । ब्रह्मति सतताभ्यासाल्लीये स्वात्मनि निर्मले ॥३०॥
इसमें बतलाया है कि 'सच्चिदानन्दसे अद्वैतरूप जो ब्रह्म है वही निश्चयनयकी दृष्टिसे मैं हूँ, इस प्रकारके निरन्तर अभ्याससे मैं अपने निर्मल आत्मामें लीन होता हूँ-अपने शुद्ध स्वरूपको प्राप्त करनेमें समर्थ होता हूँ।'
यहाँ ब्रमका सद, चित, और आनन्द लक्षण देखने में वही मालूम होता है जो ब्रह्माद्वैतवादी वेदान्तदर्शनमें माना * शृण्वन्नप्यन्यत काम वदन्नपि कलेवरात्। नाऽऽस्मान भावयेदिन यावत्तावन्न मोक्षमा ।। (समाधितन्त्रक)
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प्रस्तावना
गया है; परन्तु वस्तुस्थिति सर्वथा वैसी नहीं है । ग्रन्थमें आगे सत्, चित् और श्रानन्दका जो स्वरूप जैनदशनकी दृष्टिसे १० पद्योंमें व्यक्त किया गया है उसे देखते हुए दोनों। दर्शनोंमें ब्रह्मके इस स्वरूप - निर्देश - विषयमें परस्पर कितना
अन्तर पाया जाता है । उसीका इस प्रसंग पर थोड़ासा दिग्दर्शन कराया जाता है:
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(१) वेदान्ती ब्रह्मको सर्वथा सत्रूप मानते हैं और झसे भिन्न दूसरे किसी भी द्रव्य अथवा पदार्थको सदरूप - में स्वीकार नहीं करते – सारे दृश्य जगत्को अथवा ब्रह्मसे भिन्न जो कुछ भी दिखाई देता या सुनाई पड़ता है उस सबको मिथ्या या असत् बतलाते हैं। प्रत्युत इसके, जैनदृष्टिसे ऐसा नहीं है। जैनदर्शनमें सत्को द्रव्यका लक्षणबतलाया है और यह प्रतिपादन किया है कि वह प्रतिक्षण उत्पाद - व्यय- प्रौव्यसे युक्त है, जो प्रतिक्षण उत्पाद-व्ययश्रीव्यसे युक्त नहीं वह सत् ही नहीं है । द्रव्यका दूसरा लक्षण गुण-पर्यायवान् भी बतलाया है, जिसमें गुणोंको सहभावी और पर्यायोंको क्रमभावी निर्दिष्ट किया है। साथ * जगद्विलक्षणं ब्रह्म ब्रह्मणोऽन्यन्न किंचन । : ब्रह्माऽन्यद्भाति चेन्मिथ्या यथा मरुमरीचिका ॥६३॥ दृश्यते श्रूयते यद्यद् ब्रह्मणोऽन्यन्न तद्भवेत् । तत्त्वज्ञानाश्च तद्ब्रह्म सच्चिदानन्दमद्वयम् ॥६४॥ — आत्मवोधे, शंकराचार्यः
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अध्यात्म-रहस्य ही पर्यायके दो भेद किये है, जिनमें अर्थपर्यायको सूक्ष्म तथा प्रतिक्षण क्ष्यी और व्यंजनपर्यायको स्थूल तथा टिकाऊ प्रकट किया है । जीव और पुद्गल इन दो द्रव्योंमें दोनों प्रकारकी पर्याय होती हैं और शेष द्रव्योंमें केवल अर्थपर्याय ही रहती है । जो सहभावी गुण हैं वे ही द्रव्यके धौव्यरूप है और जो क्रममावी पर्याय हैं वे ही द्रव्यके उत्पाद-व्ययरूप हैं । इस दृष्टिसे द्रव्यके दोनों लक्षणोंमें परस्पर कोई तात्विक भेद नहीं है।
संसारमें एक ही आत्मद्रव्य और वह भी सर्वथा अमेदरूप नहीं है, बल्कि पाँच मूल द्रव्य और भी हैं और वे हैं धर्म, अधर्म, आकाश, पुद्गल और काल । इनमें प्रथम तीन द्रव्य एक एक ही हैं, और पुद्गल तथा कालद्रव्य अनन्त है । आत्मद्रव्य भी अनन्त हैं और आत्मा को ही 'जीव' कहते हैं। नीववस्तु कोई अलग या ब्रह्मके प्रतिविम्वरूपमें नहीं है । एक आत्मा अथवा नीवद्रव्य असंख्यात-प्रदेशी है,धर्म और अधर्म द्रव्य भी असंख्यात, प्रदेशी हैं, आकाश अनन्तप्रदेशी है, पुद्गल अपने शुद्ध परमाणुरूपमें एक-प्रदेशी है-प्रदेशनचयसे रहित है, और स्कन्धरूपमें संख्यात, असंख्यात तथा अनन्त-प्रदेशी है। छहों द्रव्य अपने अपने विशेष गुण अथवा लक्षण-भेदसे परस्पर मित्र हैं, जिन सबको मित्रताके घोतक अलग
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प्रस्तावना अलग लक्षण ग्रंथमें दिए हुए हैं (३६-३८) । जो द्रव्य संख्यामें अनन्त हैं उनमेंसे प्रत्येक द्रव्य प्रदेश मेद और पर्याय-भेदके कारण अपनी अपनी नातिके दूसरे द्रव्योंसे । मित्र है (गुणोंको दृष्टिसे भिन्न नहीं) और अपना स्वतंत्र अस्तित्व रखता है-एकमें तन्मयता के साथ दूसरे द्रव्यका अस्तित्व (सद्भाव) नहीं है । इसीसे स्वामी समन्तभद्रने देवागममें यह प्रतिपादन किया है कि प्रत्येक द्रव्य स्व-द्रव्यक्षेत्र-काल-भावकी अपेक्षा सवरूप है.पर द्रव्य-क्षेत्र-काल भावकी अपेक्षा सत्रूप नहीं है। यदि ऐसा नहीं माना जायगा-एकमे दुसरेके द्रव्यादिचतुष्टयका निषेध न करके उसका भी सद्भाव माना जायगा-तो उस एकके स्वरूपकी प्रतिष्ठा (स्थापना) ही नहीं हो सकेगी। इसी तरह दूसरे भी किसी द्रव्य अथवा वस्तुकी कोई व्यवस्था नहीं बन सकेगी । सत्-असत्के इस सिद्धान्तको भी ग्रन्थमें अपनाया गया है और सत्स्वरूपकी दोनों ही दृष्टियोंसे आत्मा तथा ब्रह्मको सदसबके रूपमें प्रतिपादित किया है (३१) । अतः जैनतत्वज्ञानकी दृष्टिसे ब्रमका सत् विशेषण कथंचित् सत्के रूपमें स्थित है-सर्वथा सरके रूपमें अथवा एक मात्र ब्रह्मको ही सह प्रतिपादन के रूपमें नहीं है। * सदेव सर्व को नेच्छेत् स्वरूगादिचतुष्टयात् । असदेव विपर्यासान्न चेन्न व्यवतिष्ठते ॥१५॥
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अध्यात्म-रहस्य (२) ब्रह्मके उक्त लक्षणमें 'चित्' विशेषण चैतन्यका और 'आनन्द' विशेषण सुखका वाचक है, जो दोनों ही आत्मद्रव्यकी अन्यद्रव्योंसे व्यावृत्ति-विभिनताका बोध करानेवाले आत्माके विशेष गुण है, इन गुणोंसे विशिष्ट आत्मापरमात्मा अथवा ब्रह्म-परब्रह्मको गुणी होना चाहिये,जब कि वेदान्ती उसे निगुण बतलाते हैं और प्रमाणमें "निर्गुणं निष्क्रिय शान्तं निरवद्य निरंजनं" इस श्रुति-वाक्यको उपस्थित करते हैं । सांख्यदर्शनने जिस प्रकार सत्व, रजस, तमस ऐसे तीन गुण मानकर उन्हें प्रकृति-जन्य बतलाया है उसी तरह वेदान्तियोंने भी उन्हीं तीन गुणोंको मानकर उन्हें माया जन्य अथवा मायामय प्रकट किया है, और इसीसे अन्यत्र गुणका निषेध किया जान पड़ता है। परन्तु प्रकृतिके अस्तित्वकी तरह मायाका अस्तित्व उन्होंने स्वीकार नहीं किया-उसे मिथ्या बतलाया है और उसी मिथ्या एवं सतरूपमें अस्वीकृत ब्रह्मोपगता मायासे चराचर जगतकी सष्टि बतलाकर जगतको भी मिथ्या एवं अस्तित्वबिहीन घोषित किया है । यह सब कथन जैनदर्शनकी दृष्टिके बाह्य है, औरइसलियेप्रन्थमें जैनदर्शनके अनुसार ब्रह्म अथवा आत्माको भी द्रध्य होनेके कारण गुण-पर्यायवान मानाहै और 'चैतन्यं गुणः पुस्यन्वयित्वतः' जैसे वाक्योंके द्वारा 'चैतन्य'को आत्मा-परमात्माका सदा साथ रहनेवाला तथा
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प्रस्तावना
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अन्यत्र न पाया जानेवाला गुण स्वीकार किया है ( ३६ ) । नन्दकी भी ऐसी ही स्थिति हैं, वह भी असाधारण गुण है और अन्यत्र नहीं पाया जाता। अतः ब्रह्मका जो
सच्चिदानन्दरूप उपयुक्त पद्यमें बतलाया है उसे जैनदृष्टिसे हो देखना चाहिये - वेदान्तदृष्टिसे नहीं ।
(३) ग्रन्थके उक्त पद्यमें ब्रह्मका जो स्वरूप दिया है उसमें प्रयुक्त 'अद्वय' शब्द यद्यपि 'अद्वैत'का वाचक है परन्तु वहाकी उस अद्वैतताका वाचक नहीं जो सर्वथा एकान्तके रूपमें स्थित है और ब्रह्मसे मित्र दूसरे किसी भी द्रव्य अथवा पदार्थकी सचाको ही स्वीकार नहीं करती; बल्कि सत्, चित् और आनन्द इन तीन गुणोंके साथ ब्रह्मकी अद्वैता - भिन्नताका वाचक है और साथ ही इस बातका भी सूचक है कि शुद्धात्मरूप ब्रह्म परके सम्पर्कसे रहित होता है, इसीसे ग्रन्थमें अन्यत्र उसे 'शून्योप्यन्यैः स्वतोs शून्यः' जैसे विशेषणपदोंके द्वारा उल्लेखित किया है (४६) और इस लिये श्रीरामसेनाचार्यके शब्दों में जो ब्रह्मको परके सम्पर्क से युक्त देखता है वह द्वैतरूप अशुद्ध ब्रह्मको देखता है और जो परके सम्पर्कसे रहित देखता है वह अद्वैतरूप शुद्ध ब्रह्मको देखता है, यह अद्वैतनाकी टि ठीक
* आत्मानमन्य-सम्पृक्तं पश्यन द्वैतं प्रपश्यति । पश्यन् विभक्तमन्येभ्यः पश्यत्यात्मानमद्वयं ॥ (तत्त्वानु०)
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अध्यात्म-रहस्य जान पड़ती है। परन्तु परके सम्पर्कसे रहित देखनेका यह आशय कदापि नहीं कि सम्पर्कमें आनेवाली परस्प कोई वस्तु है ही नहीं, स्फटिककी उपाधिके सदृश पररूप वस्तु जरूर है और उसीके सम्पर्क-असम्पर्कके कारण ब्रह्मको अशुद्ध तथा शुद्ध कहा जाता है । वह परवस्तु भावकर्म, द्रव्यकर्म तथा नोकर्मके रूपमें त्रिविधरूपा है, जिसके तीनों रूपोंका इस ग्रन्थमें अलग अलग परिचय कराया गया है । अतकी यह जैनदृष्टि अद्वैतके वास्तविक वाच्यको बहुत कुछ स्पष्ट कर देती है। इसके विपरीत वेदान्तियों आदिका जो मत ब्रह्मके विषयमें सर्वथा अद्वैतके एकान्त पक्षको लिये हुए है वह सदोष है । स्वामी समन्तभद्रने उसे अपने निम्न वाक्यों द्वारा दूपित ठहराया है:
अद्वैतैकान्तपक्षेऽपि दृष्टो भदा विरुध्यते । कारकाणा क्रियायाश्च नैक स्वस्मात्प्रजायते ॥२४॥ कर्म-दैतं फल-दैत लोक-द्वैत च नो भवेत् । विद्याऽविद्या-द्वयं न स्याद् बन्ध-माक्ष-द्वयं तथा ॥२५॥ हेतोरद्वैतसिद्विश्चेद् द्वैत स्थाई तु-साध्ययोः । हेतुना चेद्विना सिद्धि द्वैतं वाड मात्रतो न किम् ॥२६॥ अद्वैतं न विना तादहेतुरिव हेतुना । संझिनः प्रतिषेधो न प्रतिषेभ्याहते क्वचित् ॥२७॥ (देवागम) इन कारिका-वाक्योंका आशय इस प्रकार है:
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'यदि अद्वैत एकान्तको माना जाय तो कारकों (कर्ता, कर्म, करणादि) का और क्रियाओंका जो मेद (नानापन) प्रत्यक्ष-प्रमाणसे जाना जाता अथवा स्पष्ट दिखाई देने वाला लोक-प्रसिद्ध सत्य है वह विरोधको प्राप्त होता हैमिथ्या ठहरता है। और जो कोई एक है-सर्वथा अकेला एवं असहाय है-वह अपनेसे ही उत्पन्न नहीं होता-उसका उस रूपमें कोई जनक और जन्मका कारपादिक दूसरा ही होता है, दूसरेके अस्तित्व एवं निमित्तके विना वह स्वयं विभिन्न कारकों तथा क्रियाओंके रूपमें परिणत नहीं हो सकता (२४)। __'सर्वथा अद्वैत-सिद्धान्तके मानने पर कर्म-द्वैतशुभ-अशुम कर्मका जोड़ा, फल-द्वैत-पुण्य-पापरूप अच्छेबुरे फलका जोड़ा, और लोक-द्वैत-फल भोगनेके स्थानरूप इहलोक-परलोका जोड़ा नहीं बनता । (इसी तरह) विद्याअविद्याका त (जोड़ा) तथा वन्ध-मोक्षका द्वैत (बोड़ा) भी नहीं बनता। इन द्वैतों से किसी भी द्वैतके मानने पर सर्वथा अद्वैतका एकान्त बाधित होता है। इनमेंसे किसी भी जोड़ेकी एक वस्तुका लोप और दूसरी वस्तुका -ग्रहण करने पर उस दूसरी वस्तुके लोपका भी प्रसंग आता हैं। क्योंकि एकके. विना दूसरीका अस्तित्व नहीं बनता । और इस तरह भी सारे व्यवहारका लोप ठहरता है (२५)।'
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' ( इसके सिवाय, यह प्रश्न पैदा होता है कि द्वैतकी सिद्धि किसी हेतुसे की जाती है या बिना किसी हेतुके ही १ उत्तर में) यदि यह कहा जाय कि श्रद्वैतकी सिद्धि हेतु से की जाती है तो हेतु (साधन) और साध्य दो की मान्यता होताच खड़ी होती है— सर्वथा अद्वैतका एकान्त नहीं रहता । और यदि विना किसी हेतुके ही सिद्धि की जाती है तो क्या वचनमात्रसे द्वैतापत्ति नहीं होती :साध्य अद्वैत और वचन, जिसके द्वारा साध्यकी सिद्धिको घोषित किया जाता है, दोनोंके अस्तित्व से श्रद्वै तता स्थिर नहीं रहती । और यह बात तो बनती ही नहीं कि जिसका स्वयं अस्तित्व न हो उसके द्वारा किसी दूसरेके अस्तित्वको सिद्ध किया जाय अथवा उसकी सिद्धिकी घोषणा की जाय । अतः अद्वैत एकान्तकी किसी तरह भी सिद्धि नहीं बनती, वह कल्पनामात्र ही रह जाता है (२६) ।'
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' (एक बात और भी बतलादेनेकी है और वह यह है क) द्वैत विना श्रद्वैत उसी प्रकार नहीं होता जिस प्रकार कि हेतुके विना हेतु नहीं होता; क्योंकि कहीं भी संज्ञावान् कानामवालेका प्रतिषेध प्रतिषेध्यके विना - जिसका निषेध किया जाय उसके अस्तित्वके बिना नहीं बनता । 'द्वैत' शब्द एक संज्ञी है और इसलिये उसके निषेधरूप जो अद्वैत शब्द है वह द्वैत अस्तित्वकी मान्यता के बिना नहीं
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चऩता (२७)' ।
1 श्रत एकान्तकी ऐसी सदोषावस्थामें ब्रह्मको वेदान्तकी परिभाषा के अनुसार सर्वथा अद्वैत मानने और सारी अच्छी-बुरी, जड़-चेतन सृष्टि अथवा चराचर जगत्को एक ही रूपमें अंगीकार करनेसे ब्रह्मकी भारी विडम्बना हो जाती है और वह कोई आराध्य वस्तु नहीं रहती ।
2.
(४) सांख्यने बुद्धिको जड - प्रकृतिका कार्य माना है और वेदान्तने उसे मायासे उत्पन्न बतलाया है; परन्तु जैनदर्शन के अनुसार वह न तो नड - प्रकृतिका कार्य है और न म्रायासे उत्पन्न, वह चैतन्यरूप है, उसका आत्माके साथ सीधा घनिष्ठ एवं तादात्म्य सम्बन्ध है और उस सम्बन्ध - को समझकर आत्माको पहिचाननेकी ग्रंथ में प्रेरणा की गई है (१६,१७) ।
इस ग्रन्थमें जो कुछ लिखा गया है वह सब अध्यात्मयोग द्वारा संसारी अशुद्ध जीवोंके आत्म-विकासको लक्ष्य - में लेकर लिखा गया है । प्रारम्भसे ही योगकी बात उठाई गई है और उस योगीको योगका पारगामी वतलाया है
* इस युक्तिसे अद्वैत ब्रह्मके निगुए, निष्क्रिय, अनवद्य और निरंजन विशेषण भी नहीं बनते वे अपने अस्तित्व के लिये गुण, क्रिया, अवद्य (पाप) और अंजन ( कर्मादिमल ) के अस्तित्वकी अपेक्षा रखते हैं ।
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अध्यात्म-रहस्य जिसे सद्गुरुके प्रसादसे श्रुति, मति, भ्याति और दृष्टि नामकी चार सिद्धियाँ क्रमशः प्राप्त हो जाती हैं (३)। इन चारों सिद्धियोंका परिचय करानेके लिये ग्रन्थमें इनका स्वरूप दिया है, सद्गुरुका भी स्वरूप दिया है और साथ ही यह प्रकट किया है कि ये सिद्धियाँ उस दर्शनज्ञानचारित्ररूप-परिणत शुद्धस्वात्माको प्राप्त होती हैं जो किसी के साथ राग, द्वेष तथा मोहको प्राप्त नहीं होता । वास्तवमें राग-द्वेष और मोह ये तीनों, जिनमें सारा ही मोहनीयकर्म समाविष्ट है (२७), अशुद्धिके बीन हैं और आत्म-विकासमें बाधक हैं। इनकी उपशान्तिसे आत्मामें शुद्धिकी प्रादुभूति होती है और वह शुद्धि उत्तरोत्तर-शुद्धिका कारण बनती है। इसीसे इन आत्म-शत्रुओंके विनाशार्थ उद्यमका उपदेश है, जो योग-साधनाके द्वारा ही सुघटित होता है। योग, ध्यान और समाधि ये तीनों प्रायः एकार्थक हैं। योगरूप दृष्टिसिद्धिके द्वारा परमात्मा अथवा आत्माकी परमविशुद्ध अवस्थाका साक्षात्कार होते ही ये रागादिक शत्रु खड़े नहीं रह सकते । स्वात्मामें शुद्ध चिद्रूपकी भावना तक इन शत्रुओंकी अनुत्पत्ति तथा विनाशका कारण होती है (२३)। जो योगी राग-द्वेष-मोहसे रहित अपने शुद्ध उपयोगको परम विशुद्धिको प्राप्त परमात्मा अथवा आत्माके शुद्धस्वरूपमें लगाना है वह आत्मशुद्धिको प्राप्त होता है (२५) और
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आत्मशुद्धिको उत्तरोत्तर बढ़ाता हुआ अथवा उपेक्षारूप विद्या अविद्याका छेदन करता हुआ क्रमशः अपने उत्कृष्ट आत्म-विकासको भी प्राप्त करने में समर्थ होता है (४२) ।
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संक्षेपतः ग्रन्थ में स्वात्मा शुद्ध- चिदानन्दमय स्वरूपका अन्य द्रव्यादि पदार्थोंसे पथक बोध कराते हुए उसको साधने - क्रमशः पूर्ण विकसित करने के लिये व्यवहार और निश्चय दोनों प्रकारके रत्नत्रय - सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्पकचारित्ररूप योग-साधनों के अवलम्बनका विधान है।
ग्रन्थकारका संक्षिप्त परिचय
इस ग्रन्थके कर्ता पं० शाघरनी जैनसमाजमें एक बहुश्रुत विद्वान् होगये हैं, जिनके पास अनेक सुनियोंभट्टारकों तथा विद्वानोंने विद्याध्ययन किया है - न्याय, काव्य, व्याकरण तथा धर्मशास्त्रादि - विपयों में शिक्षा प्राप्तकी है, जिन्हें महान् विद्वान् मदनकीर्ति यतिपतिने 'प्रज्ञापुञ्ज' कहा है, उदयसेनसुनिने जिनका 'नय विश्वचतु' 'काव्यामृतौ परसपानसुतृप्तगात्र' तथा 'कलि - कालिदास' जैसे विशेषण - पदोंके द्वारा अभिनन्दन किया है और विन्ध्यवर्मा राजाके महासान्धिविग्रहिकमन्त्री (परराष्ट्रसचिव) कवीश विन्दणने जिनकी एक श्लोक - द्वारा 'सरस्वतीपुत्र' आदिके रूपमें भारी प्रशंसा की है । इमसे आशाघरजी की असाधा
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अध्यात्म-रहस्य
रण, विद्वत्ता एवं क्षमताका पता चलता है, जो उनके अनेक ग्रन्थोंमें प्रद-पद पर प्रस्फुटित हो रही है, और इस लिये पिछले कुछ विद्वानोंने यदि उन्हें 'सूरि' तथा 'आचार्यकल्प' जैसे विशेषणों के साथ स्मरण किया है तो उसे कुछ अनुचित नहीं कहा जा सकता ।
आप घरेवाल जाति में उत्पन्न हुए थे। आपके पिताका नाम सल्लक्षण, माताका रत्नी, पत्नीका सरस्वती और पुत्रका नाम छाह था। पहले आप मांडलगढ़ ( मालवा ) के निवासी थे, शहाबुद्दीन गौरीके हमलोंसे संत्रस्त होकर सं० १२४६ के लगभग मालवाकी राजधानी धारामें श्रा बसे थे, जो उस समय विद्याका एक बहुत बड़ा केन्द्र थी । बादको आपने ऐसी साधन-सम्पन्न - नगरीको भी त्याग दिया और आप जैनधर्मके उदयके लिये अथवा जिनशासनकी ठोस सेवाके उद्देश्यसे नलकच्छपुर (नाला) में रहने लगे थे, जहाँ उस समय बहुत बड़ी संख्या में श्रावकजन निवास करते थे और धाराधिपति अर्जुन भूपालका राज्य था । इसी नगरमें रहकर और यहांके नेमिनिन
* श्रीमदजु नभूपाल राज्ये श्रावकसंकुले ।
जिनधर्मोदयार्थ यो नलकच्छपुरेऽवसन । (धर्मामृत-प्रशस्ति) * अर्जुनकर्मा तीन दानपत्र क्रमशः सं० १२६७, १२० और १२७२ के मिले हैं।
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प्रस्तावना चैत्यालयमें बैठकर पं० आशाधरजीने लगमग ३५ वर्ष तक एकनिष्ठाके साथ ज्ञानकी विशिष्ट-आराधना और साहित्यकी अनुपम-साधना की है । आपके प्रायः सभी उपलब्ध ग्रन्थोंकी रचना उक्त नेमिजिन-चैत्यालयमें ही हुई है । ___आपका जिनयज्ञकम्प (प्रतिष्ठासारोद्धार) नामका ग्रंथ वि० सं० १२८५ में बन कर समाप्त हुआ है, जिसकी प्रशस्तिमें उन बहुतसे ग्रन्थोंकी सूची दी गई है जो उससे पहले रचे जा चुके थे, और जिनमें १ प्रमेयरत्नाकर, २ भरतेश्वराभ्युदयकाव्य (सिद्धयडू),३ धर्मामृत (दो भागोंमें अनगार-सागारके मेदसे) ज्ञानदीपिका नामकी पंजिकासे युक्त, ४ अष्टाङ्ग हृदयोद्योत (वैद्यक), ५ मूलाराधनादर्पण, ६ अमरकोप-टीका, ७ क्रियाकलाप, ८ रौद्रट-काव्यालंकारटीका, सहस्रनाम सटीक,१० नित्यमहोयोत,११ रत्नत्रयविधान और १२ इप्टोपदेश-टीकाके नाम खास तौरसे उल्लेखनीय हैं । त्रिषष्ठिस्मृतिशास्त्रकी रचना सं० १२६२ में हुई, जिसमें श्रीजिनसेनके महापुराणके आधार पर चौबीस तीर्थंकरादि त्रेसठशलाका पुरुषोंका चरित्र संक्षेपमें दिया गया है। संवत् १२९६ में आपने सागारधर्मामृतकी * इनके अतिरिक्त आराधनासार-टीका और भूपाल-चतुर्विंशतिटीकाका भी उल्लेख प्रशस्तिकी टिप्पणीमें 'आदि' शब्दकी व्याख्याके अन्तर्गत पाया जाता है।
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टीका समाप्त की, जिसकी प्रशस्तिमें त्रिष्ठिस्मृतिशास्त्र सटीकके अतिरिक्त जिनयजकल्पकी टीकाके भी रचे जानेका और उल्लेख है । और सं० १३०० में अनगारधर्मामृतकी स्वापज्ञ-टीका पूर्ण की गई, जिसमें उससे पूर्व 'राजीमती-विप्रलम्भ (खण्डकाव्य) और प्रस्तुत 'अध्यात्मरहस्य के रचे जानेका उल्लेख है। इस टीकाके बाद आपकी दूसरी किसी कृतिका पता अभी तक नहीं चला | आपकी जो मुख्य कृतियाँ अभी तक भी अनुपलब्ध चली जाती हैं और जिनकी प्रयत्नपूर्वक शीघ्र खोज होनी चाहिये उनके नाम इस प्रकार हैं
१ प्रमेयरत्नाकर, २ भरतेश्वराभ्युदयकाव्य, ३ रौद्रटकाव्यालंकार-टीका,४ ज्ञानदीपिका (धर्मामृतपंजिका), ५टांगहृदयोद्योत, ६ अमरकोप-टीका, ७ राजीमतीप्रिलम्म ।
इस प्रकार यह ग्रन्थकार और उनकी कृतियोंका संक्षिप्त परिचय है, जो प्रायः उनकी ग्रंथ-प्रशस्तियों परसे उपलब्ध होता है।
उपसंहार और आभार मेरा विचार था कि मैं 'अध्यात्म-योग-विद्या' पर एक गवेषणापूर्ण निवन्ध लिखें और उसे भी इस प्रस्तावनाके साथ प्रकट करूँ, जिसके लिये मैंने ग्रन्थों परसे कितने
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प्रस्तावना
ही नोट्स भी लिये थे; परन्तु अन्यके प्रकाशनकी शीघ्रना, योग्य स्वास्थ्यकी कमी और दूसरी भी कुछ परिस्थितियोंके वश मैं वैसा नहीं कर सका । यदि ८० वर्षकी इस अवस्थाके बाद जीवन शेष रहा और ग्रंयकी द्वितीयावृत्तिका अवसर मिल सका तो उस समय अपने उक्त विचारको पूरा करनेका जरूर यत्न किया जायगा । ____ सन्मार्ग-प्रदर्शक गुरुदेव स्वामी ममन्तभद्रकी हृदयमें निरन्तर भावना रहनेसे मैं इस सत्कार्यको पूरा कर सका, इसके लिये मैं उनका हृदयसे आभारी हूँ | माथ ही, उन ग्रन्थकारोंका भी आभार मानता हूँ जिनके ग्रन्थोंका मुझे व्याख्या तथा प्रस्तावनाके लिखने में माहाय्य प्राप्त हुआ है।
अनुवादादिके अनेक स्थलों पर मुझे पं० हीरालालजी सिद्धान्तशास्त्रीका सत्परामर्श प्रास हुआ है, इसके लिये मैं उनका भी आभारी हूँ | अध्यात्मरसिक ला० मक्खनलालजी ठेकेदारने ग्रन्थके प्रकाशनमें सहायताका प्रथम वचन देकर जो अनुवादादि कार्यको शीघ्र प्रस्तुत करनेके लिये मुझे प्रोत्साहित किया इसके लिये वे सभीके श्राभारपात्र हैं। शेष वहन जयवन्तीने ग्रन्थके अनुवादादिकी जो प्रेमकापी तय्यार करके दी और मेरी आँखका ऑपरेशन ताजा होनेकी वजहसे लिखने पढ़नेमें मुझे सहायता प्रदान की इसके लिये मैं उसका क्या आभार प्रकट करूँ ? यह तो उसका
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अपना ही कार्य था।
अन्तमें मेरी यही भावना है कि इस ग्रन्थके अनुवादादिको प्रस्तुत करने में जिस सद्भावका उदय हुआ और जो श्रम बन पड़ा है वह मेरे तथा दूसरोंके आत्मविकासमें सहायक होवे। वीरसेवामन्दिर, दिल्ली । जुगलकिशोर, युगवीर मगसिर सुदि ३, सं० २०१४
शुद्धि-विधान पृष्ठ ५० पंक्ति में 'प्रत्येक से पूर्व 'इनमेसे' शब्द छपनेसे छूट गये हैं। और पृष्ठ ७५ पर तीसरी पंक्तिम 'ही' के पूर्वका 'न' अक्षर दूसरी पंक्तिमें 'पदार्थ के पूर्व जुड़ गया है अतः पाठक प्रेस को इन दो मोटी अशुद्धियोंको सुधार लेनेकी कृपा करें।
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अध्यात्म-रहस्यकी विषय-सूची
विषय पृष्ट विषय
पृष्ठ मंगलाचरण
१] आत्म-ज्योतिका लक्षण ३४ भजमान-मव्योंको निजपद- लक्षण-भेदस स्वपर-भेदसिद्धि ३५ दानका रहस्य
| उपयोगका स्वरूप और भेद ३५ योग-पारगामी-योगी | आत्मशुद्धिका मार्ग स्वात्माका स्वरूप १० अशुद्धि-हेतु रागादिकके शुद्ध-स्वात्माका स्वरूप १२ विनाशका उपाय ३७ श्रुतिका लक्षण
१३ | राग,द्वेष और मोहका स्वरूप ३७ ध्येयका प्राप्तोपज्ञ विशेषण १४ राग-द्वेषरूप प्रवृत्तिका फल २६ धर्म्यच्यान-शुक्र-यानका स्वरूप १६ / कर्मजनित सुख-दुःखकी मतिका लक्षण
। कल्पना अविद्या है ४० ध्यातिका लक्षण १६ इन्द्रिय-विषय सुखरूप नहीं ४० राष्टिका लक्षण
श्रात्मा सच्चिदानन्दरूप है ४१ सवित्ति और दृष्टिका स्पष्टी० २१ आत्माके सत्स्वरूपका स्पष्टी० ४२ दृष्टिका माहाल्य
आस्मा जगत नहीं और न श्रुतसागरके मन्थनका उद्देश्य २३ जगत स्वात्मा ४४ सद्गुरुका स्वरूप २३ आत्माके चित्स्वरूपका स्पष्टी० ४४ मोक्षमार्ग और तदाराधना २५ द्रव्यकी उत्पादव्ययधोव्यात्मकता ४५ रत्नत्रयका स्वरूप (नि: व्य०) २६ प्रतिक्षण उत्पाद-ज्यय-ध्रौव्यका निश्चयरत्नत्रयकी स्पष्ट झांकी २७ । स्पष्टीकरण बुद्धिका लक्षण
२८ द्रव्य-गुणपर्यायके लक्षण तथा स्वसंवेदनके अतिरिक्त अन्यके।
___जीव-गुण त्यागका विधान २६ शेष द्रव्यांके गुण तथा अर्थभ्रान्त-अभ्रान्तका विवेक ३१ पर्यायका स्वरूप ४ आत्मज्योतिके दर्शनकी प्रेरणा ३६ | जीव पुद्गलकी व्यंजनपर्याय ४६ आत्म-दर्शनका उपाय ३२ जीव-पुद्गलके साथ दोनों आत्मज्योतिकी दृश्याश्यता ३३] पर्यायोंकी तन्मयता ५०
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RESS
५५]
प्रशा
सन्मति-विद्या-प्रकाशमाला विषय पृष्ठ | विषय
पृष्ठ मुक्ताहारके रूपमें आत्म-भावना ५० जीवन्मुक्तिकी ओर अग्रसरता ६८ आनन्द-स्वरूपका स्पष्टीकरण ५१ त्रिविधकर्मके त्यागकी भावना ६६ आत्म-विकासका क्रम
भावकर्मका स्वरूप आत्माकी एकाऽनेकता द्रव्यकर्मका स्वरूप आत्मसंस्कारका उपाय नोकर्मका स्वरूप परंज्योतिका स्पष्टीकरण हेय और उपादेयका विवेक ७३ आत्माके द्वारा आत्माका अहंकार-भवितव्यताके त्यागदर्शन कब होता है
ग्रहणकी प्रेरणा ७६ आत्मानुभूतिका उपाय ५६ अहकार को निःसारता और स्वात्माधीन आनन्द वचनके । भवितव्यताके आश्रय-ग्रहण अगोचर है
की दृष्टिका स्पष्टीकरण ७७ पिछली भूलका सिंहावलोकन ५७ | व्यवहार और निश्चय भूल-भ्रान्तिकी निवृत्ति पर
सम्यग्दर्शनका स्वरूप ८५ आनन्दका अनुभव ६०
निऔरव्य०सम्यग्ज्ञान-स्वरूप ८६ तत्त्वज्ञानादिसे व्याप्त चित्तकी इन्द्रिय-दशा ६१
| सविकल्पज्ञानका स्वरूप ८६ स्वानुभूति-वृद्धि के लिये भावना ६३ द्विविधसम्यक्चारित्रका स्वरूप ८७ शुद्धोपयोगका क्रम-निर्देश ६४ उभयरूप रत्नत्रयके कल्याणअशुभसे निवृत्ति और शुभमें | कारित्वकी घोषणा प्रवृत्तिके बिना व्यवहार- हृदयमे परब्रह्मरूपके स्फुरणकी
चारित्र भी नहीं बनता ६५ | __भावना त्रिविध उपयोगका स्वरूप ६५ | अन्त्य-मंगल-कामना ६२ शुद्धात्मकी भावनाका फल ६६
अध्यात्मरहस्यकी पद्यानुक्रमणी ६३ शुद्धात्मस्वरूपमें लीन योगीकी निर्भयता ६७
व्याख्यामें उद्धृत-वाक्योंकी परमानन्द-मग्न योगी बाह
अनुक्रमणी दुःखोंसे खिन्न नहीं होता ६८ | व्याख्यामें सहायक ग्रन्थ-सूची ६६
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अध्यात्म-रहस्य
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विद्वद्वर-श्रीमदाशाघर-विरचित अध्यात्म-रहस्य (योगोद्दीपन-शास्त्र)
मंगलाचरण भक्ति-लीन भव्योंको करते, जो निज-पदका अनुपम दान । उन श्रीवीरनाथको प्रणमू, औ' श्रीगौतम गुरू महान ॥१॥ अध्यात्मादिरहस्य शास्त्र जो, योगोद्दीपन-गुणभंडार | व्याख्या सुगम करूं मैं उसकी,निज-परके हितको उर धार ॥२ भव्येभ्यो भजमानेभ्यो यो ददाति निजं पदम् । तस्मै श्रीवीरनाथाय नमः श्रीगौतमाय च ॥१॥
'जो मनमान भव्योंको-मक्तिमें अनुरक्त सुपात्र भन्यजीवोंको-अपना पट प्रदान करते हैं जिनके भजनआराधनसे भव्यप्राणियोंको उन जैसे पदकी प्राति होती है-उन श्रीवीरस्वामीको-अक्षय-ज्ञानलक्ष्मी एवं भारती
विभूविरूप 'श्री'से सम्पन्न भगवान महावीरको तथा श्री- गौतमस्वामीको नमस्कार हो ।
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सन्मति - विद्या-प्रकाशमाला
व्याख्या - यहाँ भव्योंका 'मनमान' विशेषण और उन्हें निजपद प्रदानकी बात दोनों ध्यानमें लेने योग्य हैं । इनमें भक्तियोगका रहस्य संनिहित अथवा गुप्त है ।
'भजमान' विशेपणके द्वारा यह प्रकट किया गया है कि निज पद-प्रदानका कार्य उन्हीं भव्यजीवोंको होता है जो सदा सच्चे हृदयसे भक्तिमें अनुरक्त रहते हैं और इसलिए उस पदको प्राप्त करनेके सुपात्र होते हैं— अभक्त अथवा कपट-हृदय प्राणी उस पदकी प्राप्तिके योग्य नहीं होते । वादिराजसूरिने एकीभावमें यह बतलाया है कि 'शुद्ध ज्ञान और शुद्ध चारित्र के होते हुए भी यदि मुमुचुकी मुक्तिप्राप्तोंके प्रति उच्चकोटिकी भक्ति नहीं है तो वह मुक्तिके द्वारको, जिस पर सुदृढ महामोहकी मुद्रा ( मुहर ) को लिये हुए कपाट लगे हैं, खोलने में समर्थ नहीं हो सकता उच्चकोटिकी सच्ची सविवेक-भक्ति ही कभी धोखा न देनेवाली या फेल (असफल) न होनेवाली वह कुजी ('अवंचिका कु'चिका') है जो उसे खोलने में सदा समर्थ होती है' । अतः उस पद प्राप्ति के लिये भव्यका 'भजमान' होना
२
* शुद्धे ज्ञाने शुचिनि चरिते सत्यपि त्वय्यनीचा भक्तिर्नो चेदनवधिसुखाऽवंचिका कु'चिकेयम् । शक्योद्घाटं भवति हि कथं मुक्ति - कामस्य पुंसो मुक्तेर्द्वार परिदृढ - महामोह-मुद्रा-कपाटम् ॥ १३ ॥
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अध्यात्म- रहस्य
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वश्यक है और यह विशेषण उसकी निकट भव्यताका भी द्योतक है ।
निजपद - प्रदानकी बात में दो बातें शामिल हैं -- निनपद क्या ? और उसका दान क्या अथवा वह कैसे दिया जाता है ? निजपद शुद्ध-स्वाधीन आत्मीय ज्ञानानन्दमयपदको कहते हैं, जिसका दूसरा नाम मुक्तिपद है और वह अवस्था मेदसे दो भागों में विभक्त है— एक जीवन्मुक्तिपद, दूसरा विदेहमुक्तिपद । शरीरके रहते जिस पदका उपभोग किया जाता है उसे पहला और शरीरके भी सर्वथा सदाके लिये छूट जाने पर जिसका उपभोग बनता है उसे दूसरा मुक्तिपद ( सिद्धपद ) कहते हैं ।
लोकमें जिस प्रकार एक मनुष्य अपना पद (ओहदा - दर्जा) दूसरे को देकर स्वयं उस पदसे रहित अथवा रिक्त हो जाता है उस प्रकार यह स्वकीय मुक्तिपद न तो स्वेच्छासे किसीको दिया जाता है और न अनिच्छापूर्वक दिया जाने पर मुक्तिपद प्राप्त आत्मा इस पदसे रहित या रिक्त ही होता है; क्योंकि मुक्तिपद मुक्तात्माका निजरूप अथवा निजी वस्तु है, जिसका दान नहीं बनता । कोई भी द्रव्य अपने स्वरूप या निजी वस्तु गुणका किसी दूसरे द्रव्यको दान नहीं कर सकता — गुणी मे गुण कभी 'पृथक् नहीं होता और न किया ही जा सकता है। वस्तुतः दान सदा परवस्तुका होता है, जिसे
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सन्मति-विद्या-प्रकाशमाला भूलसे या अहंकारादिके वश अपनी मान लिया जाता है। मुक्तात्माओंमें मोहनीय कर्मका अभाव हो जाने से इच्छा, अहंकार तथा परवस्तुमें अपनी मान्यता-जैसी भूलका कोई सद्भाव ही नहीं बनता, और इसलिये स्वेच्छादिके वश उनमें देने-दिलानेकी कोई बात नहीं बन सकती; तब उनके इस निजपद-दानकी वातमें क्या रहस्य है और वह दान-क्रिया कैसे सम्पन्न होती है, यह सभीके जानने योग्य है और इसलिये उप यहाँ खोलकर रखने अथवा स्पष्ट करके बतलानेकी जरूरत है। ___वस्तुस्थिति ऐसी अयवा असल बात यह है कि सारे भव्यजीव द्रव्यदृष्टिसे परस्पर समान हैं-सबमें मुक्तिपद-प्राप्तिकी योग्यता है। परन्तु अनादि-कर्ममलसे मलिन एवं आच्छादित होनेके कारण वह योग्यता पूर्णतः विकसित या व्यक्त नहीं हो पाती, प्रायः शक्तिरूपमें ही स्थित चली जाती है । मुक्तात्माओंमें उम योग्यताका पूर्णतः विकास देखकर भव्यप्राणियोंको अपनी भूली हुई आत्मनिधिकी सुधि मिलती है और वे उसे प्राप्त करनेके लिये उन सिद्धास्माओंका भजन, आराधन, सेवन एवं पदानुसरण किया करते हैं, और ऐसा करके असंख्यात गुणी कर्मकी निर्जरा करते हुए उन-जैसी योग्यताको अपनेमें विकसित करके उनके पदको प्राप्त करनेमें उसी प्रकार समर्थ होते हैं जिस
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अध्यात्म-रहस्य प्रकार एक बची तैलादिमे सुसज्जित होकर जब दीपककी उपासना करती है और गाढ-सम्बन्ध-द्वारा अपनेको उसके साथ मिला देती है तो वह भी स्वयं दीपक बनकर प्रज्ज्वलित हो उठती है * और दीपक या दीप-शिखा कही जाती है। दूसरे शब्दोंमें यों कहिये कि दीपक जिस प्रकार अपनी उपासना-आराधना करनेवाली भव्य-बत्तीको अनिच्छापूर्वक अपना पद प्रदान करता है और वैसा करके स्वयं उस पदसे रहित नहीं होता-खुद भी दीपक बना रहता है-उसी प्रकार भगवान् महावीर तथा गौतम स्वामी भी अपना भजन-आराधन करनेवाले भव्य-जीवोंको इच्छाके न रहते भी अपना पद प्रदान करते हैं और वैसा करके स्वयं उस पदसे रहित नहीं होते-खुद भी मुक्तिपद-पर आसीन सिद्ध बने रहते हैं। और इसलिये मनमान भव्योंको अपने-जैसा पद प्राप्त करनेमें सबल निमित्तकारण होनेसे वे उन्हें निजपदको प्रदान करनेवाले कहे जाते हैं। यह अलंकारकी भाषामें कथन है।।
यहाँ एक ही पद्यमें वीर-भगवानके साथ गौतमस्वामी* इसी वातको श्रीपूज्यपादाचार्यने अपने समाधितंत्रमें निम्न वाक्यके द्वारा व्यक्त किया है :
मिन्नात्मानमुपास्याऽऽत्मा परो भवति ताश' । वर्तिदीपं यथोपास्य मिन्ना भवति ताशी ॥६७||
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सन्मति-विद्या प्रकाशमाला को रखना और दोनोंको एक साथ नमस्कार करना भी रहस्यसे खाली नहीं है। इसके द्वारा भगवानका अपने भक्तको निजपद प्रदान कर स्वसमान बना लेनेका सुन्दर एवं स्पष्ट उदाहरण सामने रक्खा गया है। इन्द्रभूति गौतम श्रीवीरभगवानके प्रमुख शिष्य और प्रधान गणधर ही नहीं थे बल्कि अनन्यभक्त थे और अपनी उस असाधारण भक्तिके वश तदनुरूप आचरण करके उन्हींके समान मुक्तिपदको प्राप्त हुए हैं-आराधकसे आराध्य और सेवकसे सेव्य बनकर नमस्कारके पात्र बने हैं। इसीसे श्रीवीरस्वामीके साथ उन्हें भी नमस्कार किया गया है। प्रस्तुत पद्यमें 'नम:' शब्द एक होते हुए भी देहली-दीप-न्यायसे दोनों के लिये समानरूपमें प्रयुक्त हुआ है अथवा 'च' शब्दके साथमें अपनी पुनरावृत्तिकी सूचनाको लिये हुए है।
वस्तुतः सच्ची सविवेक भक्ति ही भक्तको भगवान बनानेमें समर्थ होती है और उसके लिये सदा तदनुरूप आचरणकी जरूरत रहती है। तदनुकूल आचरणके बिना भक्तिके कोरे गीत गाने अथवा यंत्र-संचालित-जैसी भावशन्य-क्रियाएँ करनेसे वह नहीं बनती। गौतमस्वामीने तदनुकूल आचरण करके वीरमगवानके प्रति अपनी भक्तिको चरितार्थ किया है और इसीसे वे उनके पदको प्राप्त करनेमें समर्थ हुए हैं। दोनोंके साथ 'श्री' विशेषण भी
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अध्यात्म-रहस्य
समान रूपसे प्रयुक्त हुआ है, जो उनकी ज्ञान-लक्ष्मी और भारती-विभूतिका घोतक है । अभन्योंको यह पद कभी प्राप्त नहीं होता, इसलिये भव्योंको लक्ष्य करके ही यहाँ निजपद प्रदानकी बात कही गई है और उसके द्वारा निमित्तकारणके माथ उपादानकारणकी भी आवश्यकता एवं अनिवार्यताको घोषित किया गया है।
. इस तरह साधारण-सा प्रतीत होनेवाले इस मंगलपधमें भक्ति-योगका आध्यात्मिक रहस्य भरा हुआ है।
नमः सद्गुरुवे तस्मै यद्वाग्दीप-स्फुटी-कृतात्। मार्गादारूढयोगःस्यान्मोक्षलक्ष्मीकटाक्षभाक्रं
'उस सद्गुरुको नमस्कार है जिसके वचनरूप दीपकके द्वारा स्पष्ट किये गये (योग)मार्गके कारण आरूढयोगीयोग-मार्ग पर चलना प्रारम्भ करनेवाला ध्यानी भव्यप्राणी-मोक्ष-लक्ष्मीके कटाक्षका भागी होता है-मोक्षलक्ष्मी प्रसन्न होकर उसे अनुरागमरी तिर्यकदृष्टि (तिरछीनज़र) से देखने लगती है और वह क्रमशः योगमें उन्नति करता हुआ उस लक्ष्मीको प्राप्त करनेमें समर्थ होता है।'
व्याख्या-यहाँ सद्गुरुको नमस्कार करते हुए मोक्षलक्ष्मीकी प्राप्तिमें योगाभ्यासकी प्रधानताको घोषित किया है और साथ ही यह बतलाया है कि वह योगमार्ग सद्
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सन्मति-विद्या-प्रकाशमाला गुरुके वचन-प्रकाशसे स्पष्ट दिखाई पड़ता है और तमी उसपर चलना बनता है । वह सद्गुरु कौन ? यह एक समस्या है जो यहाँ हल होनेके लिये रह जाती है। सद्गुरु अनेक होते हैं और अनेक विषयोंके अलग अलग भी होते हैं। यहाँ उस सद्गुरुका अभिप्राय है जिसकी वाणीके प्रसादसे अभ्यासी जनको उस दृष्टिकी प्राप्ति होती है जिससे शुद्धात्माको साक्षात् किया जाता अथवा देखा जाता है,
और वह सद्दष्टि ही मोक्ष-लक्ष्मीको अपनी ओर आकर्षित करती है । ऐसे सद्गुरु निश्चय और व्यवहारनयकी मेददृष्टि से दो प्रकारके होते हैं—व्यवहारगुरु तो वे लोकप्रसिद्ध गुरु हैं जिनके वचनोंको सुनकर तथा पढ़कर सद्दष्टिकी प्राप्ति होती है, वे चाहे साक्षात् मौजद हों या न हों। और निश्चयगुरु एक अपना अन्तरात्मा होता है, जिसकी वाणी अन्तर्नाद कहलाती है और जो कभी-कभी भीतर ही भीतर सुनाई पड़ा करती है । इसी निश्चयदृष्टिको लेकर श्रीपूज्यपाद आचार्यने अपने समाधितंत्रमें, 'श्रात्मैव गुरुरात्मनः' इस वाक्यके द्वारा, यह प्रतिपादन किया है कि वास्तवमें आत्मा ही आत्माका गुरु है।
योग-पारगामी योगी शुद्धे श्रुति-मति-ध्याति-दृष्टयः स्वात्मनि क्रमाव। यस्य सद्गुरुतः सिद्धाःस योगी योगपारगः॥३॥
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अध्यात्म-रहस्य 'निसके शुद्धस्वात्मामें-निजात्माकी राग-द्वेष-मोहसे रहित अवस्थामें-सद्गुरुके प्रसादसे श्रुति, मति, ध्याति
और दृष्टि ये चारों (शक्तियाँ) क्रमशः सिद्ध हो जाती हैं वह योगी योगका पारगामी होता है।'
व्याख्या-यहाँ योगके अभ्यासीको योगका पारगामी (पूर्ण योगी) होनेके लिए जिन चार शक्तियों श्रुति, मति, ध्याति और दृष्टिके क्रमसे सिद्ध होनेकी जरूरत है उनका क्या स्वरूप अथवा लक्षण है उसे ग्रंथकारने स्वयं आगे बतलाया है। साथ ही स्वात्मा, शुद्धस्वात्मा और सद्गुरुका भी अभीष्ट स्वरूप दिया है। अत: उन सबकी यहाँ व्याख्या करनेकी ज़रूरत नहीं है, केवल इतना ही बतलाना पर्याप्त होगा कि शुद्धस्वात्माका अभिप्राय यहाँ द्रव्यकर्म, भावक्रम और नोकर्मरूप मलके सर्वथा अभाव होनेका नहीं है-सारे कर्ममलके सर्वथा अभाव हो जाने की अवस्थामें तो फिर किसी योग-साधना अथवा सिद्धि-प्राप्ति की जरूरत ही नहीं रहती-, किन्तु अपने आत्माकी उस समय-सम्बन्धी शुद्धावस्थासे अभिप्राय है जिस समय वह राग-द्वेप और मोहमें प्रवृत्त न होकर दर्शन, ज्ञान और साम्य भावक रूपमें परिणत होता है। उस शुद्धावस्थाको कुछ काल तक स्थिर रखनेका अभ्यास बढ़ाते हुए ही उक्त श्रुति आदिकी सिद्धिका प्रयत्ल किया जाता है। स्वात्माकी
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सन्मति - विद्या प्रकाशमाला
शुद्धावस्था में उनकी सिद्धि नहीं बन सकती, इसी बातको द्योतन करनेके लिये 'स्वात्मनि' पदका विशेषण 'शुद्धे' दिया गया है, जो ख़ास तौरसे यहाँ ध्यान में लेने योग्य है ।
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इसी तरह सद्गुरुका अभिप्राय मात्र अपने दीक्षागुरु या विद्यागुरुसे नहीं है, बल्कि उस गुरुसे है जिससे प्रथमतः श्रुतिकी और अन्ततः श्रात्म-साक्षात्कार करनेवाली दृष्टिकी प्राप्ति होती है और वह व्यवहार तथा निश्चयके मेदसे दो मेदरूप है, जिनका विशेषस्वरूप आगे बतलाया गया है ।
स्वात्माका स्वरूप
स स्वात्मेत्युच्यते शश्वद्भाति हृत्पंकजोदरे । योऽहमित्यंजसा शब्दात्पशूनां स्वविदा विदाम् ॥४
'जो आत्मा निरन्तर हृदय - कमलके मध्य में - उसकी कर्णिकाके अन्तर्गत - 'अहं' शब्दके वाच्यरूपसे 'मैं' के भावको लिए हुए - पशुओं - मूढों तकको और स्वसंवेदन(स्वानुभूति) से ज्ञानियों को स्पष्ट प्रतिभासित होता है वह 'स्वात्मा' कहा जाता है ।
व्याख्या – अपना आत्मा, निजात्मा और स्वात्मा Hars at sोतक शब्द हैं। आत्माका निनत्व वाचक 'स्व' विशेषण परनीवोंके आत्माओंसे अपने
१ आत्मा । २ भूर्खाणाम् । ३ स्वस्य ज्ञानेन ।
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अध्यात्म - रहस्य
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श्रात्माके पृथक व्यक्तित्वका सूचक हैं | द्रव्यदृष्टिसे अथवा गुणोंकी अपेक्षा आत्माओं के परस्पर समान होते हुए भी व्यक्तित्वकी या भिन्नप्रदेशोंकी दृष्टिसे सब आत्माएँ अलग अलग हैं, सबकी साधना और विकास क्रम भी अलगअलग हैं, और इसलिये विकासमार्ग में आत्माके पृथक् व्यक्तित्वको सबसे पहले ध्यानमें लेने की जरूरत है। आत्मा-का यह पृथग्व्यक्तित्व सभी संज्ञी ( समनस्क) जीवोंकोचाहे वे मूढसे मूढ अथवा पशु ही क्यों न हों- 'अहं' शब्दके वाच्यरूपमें भासमान होता है। अर्थात् जो यह अनुभव करता है कि मैं सुखी हूँ, मैं खाता हूँ, में पीता हूँ, मैं सोता हूँ, मैं जागता हूँ, मैं चलता हूँ, मैं बैठता हूँ, मैं सर्दी-गर्मीभूख-प्यास अथवा वध - बन्धनादिसे पीड़ित हॅू इत्यादि, वह स्वात्मा है और स्वात्मा मुख्यतः हृदय- कमलके मध्यमें, जिसे कणिका कहते हैं, भासमान रहता है। कमलकी कर्णिकामैं जिस प्रकार अक्ष ( कमल-बीज ) का वास है उसी प्रकार हृदय - कमलके मध्य में अक्ष (आत्मा) का वास है, जिसे आत्मज्ञानी जन स्व-संवेदन अथवा स्वानुभूतिसे लक्षित किया करते हैं। शुद्धात्मा - परमात्माका अनुसंधान भी योगिजनोंके द्वारा इसी हृदय कमलकी कर्णिकाके मध्य में किया जाता है; जैसा कि 'कल्याणमन्दिर' स्तोत्रके निम्न वाक्यसे प्रकट है:--
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सन्मतिविद्या प्रकाशमाला
त्वां योगिनो जिन ! सदा परमात्मरूप - मन्वेषयन्ति हृदयाऽम्बुज - कोष- देशे । पूतस्य निर्मलरुचे यदि वा किमन्यदक्षस्य संभवपदं ननु कणिकायाः ॥ १४ ॥ शुद्ध-स्वात्माका स्वरूप
यो न मुह्यति नो रज्यत्यपि न द्वेष्टि कस्यचित् । स्वात्मा इग्बोधसाम्यात्मा स शुद्ध इति बुध्यताम् ॥
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'जो किसीके साथ राग नहीं करता, द्वेष भी नहीं करता और न मोहको ही प्राप्त होता है वह दर्शन - ज्ञान - चारित्ररूप परिणत स्वात्मा ही शुद्धस्वात्मा है, ऐसा सझना चाहिए ।
व्याख्या— शुद्धस्वात्मा वास्तवमें स्वात्मासे भिन्न कोई अलग वस्तु नहीं है, स्वात्मा ही जिस समय रागद्वेष- मोहसे छूटकर सम्यग्दर्शन -ज्ञान - चारित्ररूप परिणत होता है, उस समय उसे शुद्धस्वात्मा समझना चाहिए । इस तरह परिणति अथवा पर्यायकी दृष्टिसे स्वात्माके शुद्ध और शुद्ध ऐसे दो भेद हो जाते हैं ।
यहाँ 'साम्य' शब्द 'सम्यक्चारित्रका वाचक है। श्रीकुन्दकुन्दाचार्यने प्रवचनसारमें 'चारिचं खलु धम्मो धम्मो जो
मोखो' इस गाथाके द्वारा समताभावरूप आत्मपरिणामको ही सम्यक्चारित्र बतलाया है, जो राग-द्वेष
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अध्यात्म-नहस्य
मोहकी निवृत्ति अथवा उपशान्तिको लिये होता है। रागद्वेष-मोह ही आत्माकी तुलाको समसे विषम बनाये रखते हैं और इसीलिये राग-द्वेषकी निवृत्ति ही चारित्रका मुख्य लक्ष्य है। इसीसे स्वामी समन्तभद्र ने कहा है-"रागद्वेप-निवृत्यै चरणं प्रतिपद्यते साधुः ।" ग्रंथकी टिप्पणीमें मी, जो संभवतः ग्रंथकारके द्वारा ही की गई जान पड़ती है, 'दृम्बोधसाम्यात्मा' पदके लिये 'दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप ऐसा अर्थपद दिया है। दर्शन-ज्ञान-चारित्र ही 'रत्नत्रय' कहलाते हैं, इन्हींकी सूचना ग्रंथके १४वें पद्यमें 'रत्नत्रयात्मस्वात्मैव मोक्षमार्गः इस वाक्यके द्वारा की गई है।
श्रुतिका लक्षण आप्तोपज्ञमदृष्टष्ट-विरोधा'द्धर्म्य-शुक्लयोः । ध्यानयोःशास्ति या ध्येयं सा गुरूक्तिरिति श्रुतिःभ६ _ 'जो गुरूक्ति-गुरुवाणी-आप्त-द्वारा उपज्ञ-प्रथमतः ज्ञात एवं उपदिष्ट-ध्येयको ध्यानके विषयभूत शुद्धात्मा को-धर्म्यध्यान तथा शुक्लध्यानमें दृष्ट (प्रत्यक्ष ) और इष्ट (भागम) के अविरोधरूपसे अथवा प्रत्यक्ष-परोक्षप्रमाणका विरोध न करके शासित-आयोजित एवं व्यवस्थित करती है उसका नाम 'श्रुति' है। १ परोक्ष-प्रत्यक्ष-विरोधाभावात् । २ आत्मानं प्रति रहस्य इत्यर्थः ।
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सन्मति-विद्या प्रकाशमाला ___ व्याख्या-यहाँ सामान्यतः गुरुवाणी मात्रका नाम श्रुति नहीं है, किन्तु उस विशिष्ट-गुरुवाणीका नाम श्रुति है नो प्राप्तके द्वारा उपदिष्ट ध्येयको धर्म्य-ध्यान और शुक्लध्यानमें इस तरहसे आयोजित करनेकी व्यवस्था करती हो जिससे प्रत्यक्षादि प्रमाणोंके साथ कोई विरोध घटित न होता हो । दूसरे शब्दोंमें यों कहिये कि जिस गुरुवाणीकी स्वात्माको घHध्यान और शुक्लध्यानकी ओर लगाकर उसके ध्येयको प्राप्त करानेकी निर्दोष शासना हो उसे 'श्रुति' कहते हैं।
यहाँ ध्येयका 'आप्तोपज्ञ' विशेषण इस वातको सूचित करता है कि वह ध्येय कोई यद्वा तद्वा पदार्थ न होना चाहिये, बल्कि वह होना चाहिये जो आप्तके द्वारा धर्म्यध्यान और शुक्लध्यानके उपयुक्त विपयरूपमें निर्दिष्ट हुआ है, और वह है आत्माका शुद्धस्वरूप, रहस्य तथा उसकी साधन-सामग्री।
आप्तका लक्षण स्वामी समन्तभद्रने अपने समीचीन धर्मशास्त्र (रत्नकरण्ड) की 'प्राप्तेनोत्सन्नदोपेण सर्वज्ञेनाऽऽगमेशिना भवितव्यं' इत्यादि कारिकामें दिया है। इसके अनुसार जो वीतराग, सर्वज्ञ और आगमेशी अथवा परमहितोपदेशी हो उसे 'आप्त' समझना चाहिये और उसीके द्वारा उपदिष्ट ध्येयका यहाँ पर ग्रहण है । आप्तका उपदेश
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अध्यात्म-रहस्य अपनेको आचार्य-गुरु-परम्परासे प्राप्त है और वह अनेक शास्त्रोंमें निबद्ध है। शास्त्र-निबद्ध अमुक उपदेश आसोपज्ञ है या कि नहीं? इसकी प्रमुख कसौटी यही है कि वह दृष्ट तथा इष्टके विरोधको तो लिये हुए नहीं है। यदि ऐसे विरोधको लिये हुए है तो समझना चाहिये कि वह
आप्तोपज्ञ नहीं है, क्योंकि सर्वज्ञ वीतराग और परम हितोपदेशी प्राप्तका वचन स्वरूपतः सदा ही ऐसे विरोधसे रहित होता है । इसीसे यहाँ ध्येयकी ध्यानमें शासनाके लिये 'अदृष्टेष्टविरोधाद' पदकी खास तौरसे योजना की गई है।
अब रही गुरुवाणीकी बात; जिस गुरुवाणीको यहाँ अति कहा गया है उसका अभिप्राय एकमात्र उस गुरुवाणीसे नहीं है जो साक्षात् गुरुने अपने मुखसे कही हो और शिष्यने अपने कानोंसे सुनी हो, बल्कि उस गुरुवाणीका भी अभिप्राय है जो गुरु-परम्परासे अपनेको प्राप्त हुई हो अथवा परम्परा-गुरुके द्वारा किसी शास्त्रमें निवद्ध की गई हो और उस शास्त्रको पढ़ने सुनने आदिके द्वारा यह अपनेको उपलब्ध हुई हो।
धर्म्य और शुक्ल नामके जिन दो घानांका यहाँ उल्लेख है वे प्रशस्त ध्यान है, आध्यात्मिक दृष्टिसे उन्हींकी मान्यता है और वे ही आत्मविकासमें सहायक होनेसे उपादेय है। शेष प्रार्च और रौद्र नामके दूसरे दो ध्यान
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सन्मति -विद्या-प्रकाशमाला
प्रशस्त कहलाते हैं, वे आत्म-विकास में बाधक हैं और इसलिये मुमुक्षुओंके द्वारा त्याज्य हैं । सम्यग्दर्शन-ज्ञानचारित्ररूप रत्नत्रयधर्मसे, उत्तमक्षमादिरूप दशलक्षण धर्म -
मोह-क्षोभादिसे रहित आत्मपरिणामरूप चारित्रधर्मसे अथवा वस्तुके याथात्म्यरूप स्वभावधर्म से जो उपयुक्त है वह 'ध्यान कहलाता है । शुक्लध्यान उसका नाम है जो शुभ और अशुभ दोनों प्रकारके मलसे रहित होनेके कारण विशुद्धि (शुचिगुणके प्रकर्पयोग) को प्राप्त है अथवा कपाय- रजके क्षय या उपशमके कारण सुनिर्मल एवं निष्प्रकम्प बना हुआ है और साथही तत्त्वज्ञानमय उदासीनभावको लिये हुए होता है। यह ध्यान पूर्वकरणादि गुणस्थान-धारी सुनियोंके ही बन सकता है 1 | धर्म्यध्यानके स्वामी अविरतसम्यग्दष्टि, देशसंयमी, प्रमत्त और अप्रमत ऐसे चार गुणस्थानवर्ती जीव कहे गये हैं, जिनमें प्रथम दो गुणस्थान गृहस्थोंसे और शेष दो मुनियोंसे सम्बन्ध रखते हैं, और इस तरह गृहस्थ भी धर्म्यध्यानके अधिकारी हैं।
अब देखना यह है कि ध्यान किसको कहते हैं ? तच्चार्थसूत्रादि ग्रंथों में 'एकाग्र चिन्तानिरोषो ध्यानम्' जैसे वाक्योंके द्वारा एकाग्रमें चिन्ताके निरोघको ध्यान कहा है।
तत्त्वानुशासन ३४ + तत्त्वा० ५१-५५ तत्त्वा० २२१, २२२
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• अध्यात्म-रहस्य - अब देखना यह है कि ध्यान किसको कहते हैं? तत्वार्थसूत्रादि ग्रंथों में 'एकाग्र-चिन्ता-निरोधो ध्यान जैसे वाक्योंके द्वारा एकाग्रमें चिन्ताके निरोधको ध्यान कहा है ।। इस लक्षणात्मक वाक्यमें एक, अग्र, चिन्ता और निरोध ये चार शब्द हैं। इनमें एक प्रधानका, अन पालम्बनका, चिन्ता-स्मृतिका और निरोध शब्द नियंत्रणका वाचक है, और इससे लक्षणका फलितार्थ यह हुआ कि 'किसी एक प्रधान आलम्बनमें चाहे वह द्रव्यरूप हो या पर्यायरूपस्मृतिका नियंत्रित करना--नाना आलम्बनोंसे हटाकर उसी में उसे रोक रखकर अन्यत्र न जाने देना--'ध्यान' कहलाता है । अथवा 'अंगति जानातीत्यग्र आत्मा' इस नियुक्तिसे 'अन' नाम आत्माका है, सारे तच्चोंमें अग्रगण्य होनेसे भी आत्माको अग्र कहा जाता है । व्याथिकनयसे 'एक' नाम केवल, असहाय या तयोदित (खालिस-शुद्ध) का है; 'चिन्ता' अन्तःकरणकी वृत्तिको और 'निरोध' नियंत्रण -तथा अभावको भी कहते हैं। इस दृष्टिसे एक मात्र शुद्धा.
मामें चित्तवृत्तिके नियंत्रण एवं चिन्तान्तरके अभावको ध्यान कहते हैं, जो कि केवल स्व-संवित्तिमय होता है। - ध्यानमें एकाग्रताको सबसे अधिक महत्व प्राप्त है, वह व्यग्रतामय अज्ञानकी निवृत्तिरूप है और उससे शक्ति * तत्त्वानुशासन ५६-६५।
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सम्मति-विद्याप्रकारामाला केन्द्रित एवं बलवती होकर शीघ्र ही सफलताकी प्राप्ति होती है।
धर्म्यध्यानके भेद-प्रभेदों, ध्यानके अंगों, ध्यानकी सामग्री तथा साधन-विधि और उसके फल आदिका विशेष वर्णन ध्यान-विषयक शास्त्रोंसे-तचानुशासन तथा ज्ञानार्यवादि जैसे ग्रंथोंसे भले प्रकार जाना जा सकता है। यहां प्रकृत विपयको समझने के लिए कुछ अत्यन्त उपयोगी वातोंको ही स्पष्ट किया गया है।
मतिका लक्षण श्रुत्या निरूपितः सम्यक् शुद्धः स्वात्माञ्जसा यया। युक्त्या व्यवस्थाप्यतेसौ मतिरत्रानुमन्यताम् ॥७॥ _ 'श्रुतिके द्वारा सम्यक निरूपित शुद्ध स्वात्मा जिससे युक्ति-पूर्वक व्यवस्थापित किया जाता है उसे यहाँ-इस अध्यात्मशास्त्रम–'मति' मानना चाहिये।
व्याख्या-गुरुवाणीने 'जिसका भले प्रकार निरूपण किया हो वह शुद्ध-स्वात्मा जिसके द्वारा युक्तिपूर्वक व्यवस्थापित अथवा नय-प्रमाणके बलपर संसिद्ध किया जाता है उसका यहाँ 'मति के नामसे निर्देश किया गया है । गुरुवाणी प्रायः 'उपदेश या आदेशके रूपमें होती है, उसमें कारण-विशेषके विना युक्तिवादके लिये स्थान
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अध्यात्म-रहस्य
नहीं रहता और युक्तिवादके विना विषयको हृदयंगम करनेमें दृढता नहीं पाती-यह कोरी श्रद्धाको दृढ बनाती तथा उनकी साधनामें प्राणका संचार करती है। इसीसे श्रुतिके वाद मतिका स्थान रक्खा गया है। मंतिका दूसरा नाम 'धुद्धि' भी है, जिसका ग्रंथमें आगे प्रयोग किया गया है। 'मति' शब्द कहीं-कहीं स्मृति आदि दूसरे अर्थोंमें भी प्रयुक्त होता है। जैसाकि "मतिः स्मृतिः संज्ञा चिन्ताऽमिनिबोध इत्यनन्तरं" इस तत्त्वार्थसत्रसे जाना जाता है। यहाँ उसका प्रकृत अथवा प्रस्तुत अर्थ लेनेकी सूचनाके लिये ही मूलमें 'अनुमन्यता से पहले 'अत्र' शब्दका प्रयोग किया गया है।
__ ध्यातिका लक्षण सन्तत्या वर्तते बुद्धिः शुद्धस्वात्मनि या स्थिरा। ज्ञानान्तरास्पर्शवती' साध्यातिरिह गृह्यताम् ॥८॥
'जो बुद्धि सन्ततिसे-सन्तान-क्रम अथवा प्रवाहरूपसे-शुद्धस्वात्मामें स्थिर वर्तती है-अपने शुद्धात्माका अनुभव करती रहती है और ज्ञानान्तरका-शुद्धस्वात्माके ज्ञानसे मिन्न पर-पदार्थोके ज्ञानका स्पर्श नहीं करती उसे यहाँ "ध्याति' नामसे ग्रहण करना चाहिये। १ परद्रव्याऽस्पर्शवती स्वद्न्यस्पर्शवती इत्यर्थः ।
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सम्मति-विद्या प्रकाशमाला wimmmmam.commmmmmmmcimmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm
- व्याख्या-प्रवाहरूपसे, शुद्धस्वात्मामें वर्तनेवाली बुद्धि जब शुद्ध-स्वात्मामें इतनी अधिक स्थिर अथवा एकाग्र होजाती है कि शुद्धस्वात्मासे भिन्न किसी दूसरे पदार्थक ज्ञानका स्पर्श तक नहीं करती तब वह- ध्यानारूढ अथवा --ध्यानरूप परिणत बुद्धि ही 'ध्याति' नामको प्राप्त होती है। । यहाँ बुद्धिका 'स्थिरा' विशेषणके साथ 'ज्ञानान्तराऽस्पर्शवती' विशेषण ख़ास तौरसे ध्यानमें लेने योग्य है 'और वह · 'एकाग्र-चिन्ता-निरोध'का द्योतक है, जो कि ध्यानको प्रसिद्ध लक्षण है, और उसके द्वारा यह सूचित किया गया है कि यदि बुद्धि भ्यानके समय ध्येयके अतिरिक्त किसी दूसरे पदार्थ-ज्ञानका भी स्पर्श कर रही है तो समझना चाहिये कि वह ध्येयके प्रति एकाग्र नहीं, और इसलिये 'च्याति' पदके योग्य नहीं । ध्यातिको ध्यान व्रतलाते हुए यही बात श्रीरामसेनाचार्यने तत्वानुशासनके निम्न वाक्यमें प्रतिपादन की है, — इष्टे ध्येये स्थिरा बुद्धिर्या स्यात्सन्तानवसिनी ।ज्ञानान्तराऽपरामृष्टी साध्यतिथ्यानमीरिता joir
दृष्टिका लक्षण शुद्धः स्वात्मा यया साक्षातं क्रियते ज्ञानविग्रहः। -विशिष्टभावना-स्पष्ट-श्रुतात्मा-दृष्टिस्त्र सामा।
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प्रध्यात्स-हस्य
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जिसके द्वारा शुद्ध-स्वात्मा ज्ञानशरीरी तथा विशिष्ट भावनाके पलपर श्रुतको अपनेमें स्पष्ट किये हुए साक्षाद किया जाता है--प्रत्यक्षरूपमें प्रतिभासित होता है वह यहाँ (इस अध्यात्म-योगशास्त्रमें) 'दृष्टि' कही जाती है।'
व्याख्या-ध्यातिके अनन्तर शुद्धस्वात्माका जिसके द्वारा साक्षात्-प्रत्यक्ष अवलोकन किया जाता है उसका नाम 'दृष्टि' है। यह दृष्टि बाहिरी चर्मचक्षुओंसे देखनेवाली दृष्टि नहीं है, किन्तु वह अन्तष्टि है जो व्यवधानोंको भेदकर शुद्ध-स्वात्माका साक्षात् दर्शन करानेवाली है । इस दृष्टिके द्वारा खात्मा अपने शुद्ध-स्वरूपमें रागादिक विकल्पोंसे रहित 'ज्ञानशरीरी' नजर आता है और ऐसा जान पड़ता है कि वह विशिष्ट-भावनाके बलपर सारे श्रुतज्ञानको अपने में स्पष्ट अथवा अंकित किये हुए है।
संवित्ति और दृष्टिका स्पष्टीकरण निज-लक्षणतो लक्ष्यं यद्वानुभवतः(ति) सुखम् । सासंविचिष्टिरात्मा लक्ष्यं दृग्धीश्च लक्षणम् १० ___'अथवा जो अपने लक्षणसे लक्ष्यको अच्छी तरह अनुभव करे-जाने वह संविति 'दृष्टि' कहलाती है। यहॉपर आत्मा लक्ष्य है और दर्शन-ज्ञान उसका लक्षण है।' व्याख्या-यहॉ प्रकारान्तरसे संवित्तिके रूपमें दृष्टिके
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२२
सन्मति-विद्या प्रकाशमाला स्वरूपका प्रतिपादन किया गया है। क्योंकि अध्यात्मविषयके अनेक ग्रंथोंमें दृष्टि-विषयके इस आत्मसाक्षात्कारको 'संवित्ति' के नामसे उल्लेखित किया है, जो आत्मारूप लक्ष्यको उसके निजी लक्षण दर्शन और ज्ञानके द्वारा भले प्रकार अनुभव किया करती है।
दृष्टिका माहाम्य सैव सर्वविकल्पानां दहनी दुःखदाय॑िनाम् । सैव स्याचत्परं ब्रह्म सैव योगिभिरर्थ्यते ॥११ ___ 'वह शुद्धस्वात्माको साक्षात् करनेवाली दृष्टि ही समस्त दुःखदायी विकल्पोंको भस्म करनेवाली है, वही उस प्रसिद्ध परमब्रह्मरूप है और वही योगियोंके द्वारा उपादेय होकर प्रार्थना की जाती है।'
व्याख्या-इस पबमें शुद्धस्वात्माका साक्षात्कार कराने वाली दृष्टिके माहात्म्यका वर्णन है और उसके द्वारा यह प्रकट किया गया है कि वह दृष्टि ही उन विकल्पोंको जला डालनेवाली है जो अपने आत्माको दुःख तथा कट दिया करते हैं, वही (परंब्रह्मको प्राप्त करानेसे) परब्रह्मरूप है और उसकी प्राप्ति ही योगिजनोंका परम लक्ष्य रहता है, और इसीसे वे उसके लिये प्रार्थना एवं भावना किया करते हैं।
१ तत्प्रसिद्धं । २ उपादेयरूपां क्रियते याच्यते ।
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अध्यात्म-रहस्य
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श्रुतसागरके मन्थनका उद्देश्य जदर्थमेव मध्येत बुधैः पूर्वं श्रुतार्णवः । ततश्चामृतमप्यन्यद्वार्तमेव मनीषिणाम् ॥१२॥
'शुद्धस्वात्माको साक्षात् करानेवाली उस दृष्टिकी प्राप्ति अथवा संवितिके लिये ही बुधजनों द्वारा पहले श्रुतसागर मथा जाता है और उस मंथनसे अमृत(मोक्ष)की भी प्राप्ति होती है। अन्य सब तो मनीषियोंका नैपुण्य अथवा बुद्धिकौशल है।
व्याख्या-यहाँ वुधजनों द्वारा श्रुतमागरके मंथनका साररूपमें इतना ही उद्देश्य दिया है कि उससे शुद्धस्वात्माको साक्षात् करानेवाली दृष्टिकी प्राप्ति होती है और साथमें अमृतकी-अमरत्वरूप मोक्षकी-भी उपलब्धि होती है। यही दोनों श्रुताभ्यासके प्रमुख लच्य हैं। और सब तो बुद्धिशालियांका वुद्धिकौशल है, जिसके द्वारा वे श्रुत-सागरको मथकर अन्य अनेक बातोंका आविष्कार किया करते हैं।
व्यवहार और निश्चय सद्गुरुका स्वरूप - यदगिराभ्यस्यतःसा स्याद् व्यवहारात्स सदगुरुः। स्वात्मैव निश्चयात्तस्यास्तदन्तर्वाग्भवत्वतः॥१३
'जिसकी वाणीके निमित्तसे योगाभ्यासीको उक्त दृष्टि प्राप्त होती है वह व्यवहार (नय)से सद्गुरु है, निश्चय
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सन्मति विद्य-कांशमाला (नय) से स्वात्मा ही उस दृष्टि या गुरुवाणीका सद्गुरु है, अतः उसका अन्तर्नाद होवे--सुनाई पड़े। ___ व्याख्या—यहाँ सद्गुरुके दो भेद किये गये हैं, एक व्यवहारगुरु और दूसरा निश्चयगुरु । व्यवहारगुरु वह है जिसकी शब्दावरमयी वाणी उस दृष्टिकी प्राप्सिमें वाहा निमित्त पड़ती है, और निश्चयगुरु अपना आत्मा ही है, जिसका अन्तर्नाद उस दृष्टिके ग्रहणमें अन्तरंग (भीतरी) कारण पड़ता है और जिसके विवेक-विना व्यवहारगुरुका वचन भी अपना कार्य करनेमें समर्थ नहीं होता । इसीसे श्रीपूज्यपादाचार्यने समाधितन्त्रमें कहा है कि परमार्थ से आत्माका गुरु अपना आत्मा ही है, अन्य नहीं है
"गुस्रात्माऽऽत्मनस्तस्मानाऽन्योऽस्ति परमार्थतः ।।
निसे यहाँ व्यवहारगुरु कहा है वह साक्षात्गुरु तथा परम्परागुरु दोनों रूपमें हो सकता है, उसकी वाणी भी साक्षात् तथा परम्परासे सुनी जानेवाली हो सकती है
और वह किसी शास्त्रमें निबद्ध भी हो सकती है। ___ यहाँ स्वात्माके अन्तर्नादकी जो भावना की गई है वह प्रशंसनीय है और अपनेको स्वात्माभिमुखी बनानेमें सहायक है । अन्तरात्माकी आवाज़ अथवा Conscuence की पुकार बहुधा हुआ करती है और वह प्रायः ठीक तथा सन्मार्ग-दर्शक होती है। परन्तु मनुष्य अपने अहंकारादिके
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अध्यात्म-रहस्य
mmmmminmmmmmmmca.comm. वश बहुधा उसकी अवहेलना तथा उपेक्षा कर.जाता है और इसलिये सन्मार्गसे च्युत होजाता अथवा वना रहता है।
मोक्षमार्ग और उसकी आराधना करलत्रयात्म-स्वात्मैव मोक्षमार्गोजसास्ति तत् । स पृष्टव्यः स एष्टव्यः स द्रष्टव्यो मुमुक्षुभिः ॥१४॥ _ 'रत्नत्रयात्मक-सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप-वह शुद्ध स्वात्मा ही यथार्थतः मोक्षमार्ग है। अतः मुमुक्षुओंके द्वारा वही पृच्छनीय, वही अभिलपणीय और वही दर्शनीय है। ___ व्याख्या-यहाँ उसी निश्चयनयकी दृष्टिसे कथन है, बो शुद्धस्त्रात्माको ही परमार्थतः गुरु वतलाती है । उसकी दृष्टिमें जत्र शुद्धस्वात्मा सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्ररूप है तो वही वास्तवमें साक्षात् मोक्षमार्ग है, तब मुमुक्षुओंको उसे छोड़कर अन्य किससे मोक्षमार्ग पूछना चाहिये, किसकी अभिलाषा करनी चाहिये और किसके दर्शनोंकी इच्छा रखनी चाहिये ? एकमात्र अपने उस रत्नत्रयात्मक स्वात्माको ही गुरु मानकर उमसे पूछना चाहिये और उसको अपना अमिलवणीय तथा दर्शनीय बनाना चाहिये । जब कोई अपने शुद्ध स्वात्मासे गाढ • अविद्याभिदुरं ज्योतिः परं ज्ञानमयं महत् । प्रिष्टव्यं तदेष्टव्यं तद्रष्टव्यं मुमुक्षुभिः॥४॥
---इष्टोपदेशे, पूज्यपादाचार्य:
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२६ सन्मतिविद्या प्रकाशमाला सम्पर्क स्थापित करेगा तब उसके द्वारा सब कुछ प्राप्त कर सकेगा उसे अन्यत्र भटकनेकी जरूरत नहीं रहेगी।
व्यवहार और निश्चय रत्नत्रयका स्वरूप शुद्धचिदानन्दमयं
स्वात्मानं प्रति तथाप्रतीत्यनुभूत्योः। स्थित्यां चाभिमुखत्वं गोण्या दृग्धीक्रियास्तदुपयोगोऽग्र्याः ॥१५॥
'शुद्धचिदानन्दमय स्वात्माके प्रति जो तद्रूप प्रतीति, अनुभूति और स्थितिमें अभिमुखता है वह क्रमशः गौण (व्यवहार) दर्शन, ज्ञान और चारित्र है । और उन प्रतीतिअनुभूति तथा स्थितिमें नो उपयुक्तता (उपयोगकी प्रवृत्ति) है वह मुख्य (निश्चय) दर्शन, ज्ञान और चारित्र है। ___ व्याख्या-पिछले पद्यमें सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र-रूप जिस रत्नत्रयका उल्लेख है यहाँ उन तीनों रत्नोंका स्वरूप व्यवहार तथा निश्चयनयकी दृष्टिसे दिया है और व्यवहार को 'गौण तथा निश्चयको मुख्य रूपसे प्रतिपादन किया है। इस स्वरूप-कथनमें शुद्धचिदानन्दमय स्वात्माके प्रति प्रतीतिका नाम 'दर्शन,' अनुभूतिका नाम 'ज्ञान' और स्थितिका नाम 'चारित्र' है। इस प्रतीति, अनुभूति और स्थितिमें १मुख्या।
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अध्यात्म-रहस्य जब अमिमुखता होती है तब दर्शन, ज्ञान और चारित्र गौण्य कहलाते हैं-व्यवहारनयके विषयरूपसे निर्दिष्ट होते है। और जब इस प्रतीति, अनुभूति और स्थिति उपयुक्तता होती है तब वे दर्शन, ज्ञान और चारित्र मुख्य कहे जाते हैं-निश्चनयके विषयरूपसे निर्दिष्ट होते हैं। इतना ही दोनों में परस्पर उभयनयकी दृष्टि से अन्तर है। शुद्ध-चिदानन्दमय स्वात्माको दोनों ही प्रकारके रत्नत्रय अपनी प्रतीति आदिका विषय बनाते हैं ।
निश्चय रत्नत्रयको स्पष्ट मॉकी बुद्धयाधानाच्छद्दधानः स्वं संवेदयते स्वयम्। यथा संवेद्यमाने स्वे लीयते च त्रयीमयः ॥१६
'सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्ररूप त्रिगुणात्मक जीव बुद्धयाधानसे-बुद्धिमें आत्माकी धारणासे-स्वात्माका श्रद्धान करता हुआ खात्माका इस तरह संवेदन करता है कि संवेद्यमान स्वात्मामें स्वयं लीन होजाता है।' ___ व्याख्या-यहाँ संवेदनकी एकाग्रताके माहात्म्यका योतन किया गया है और यह प्रकट किया गया है कि उसके प्रभावसे संवेदनकर्ता स्वात्मा बुद्धयाधानसे शुद्ध स्वात्माका श्रद्धान करता हुआ अपने संवेद्यमान शुद्धस्वरूपमें स्वयं लीन हो जाता है। यह लीनता ही उसके १ रत्नत्रयमयः।
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२८ , सन्मति-विद्या प्रकाशमाला सम्यक्चारित्र-गुणका उच्च विकास है, जिसका प्रधान कारण शुद्धस्वात्माका श्रद्धान है, जो कि बुद्धिमें स्वात्माकी धारणासे बनता है । और इस तरह बुद्धिमें स्वात्माकी . धारणाको बड़ा महत्त्व प्राप्त है। जो जीव देहादिकमें आत्म-धारणा किये हुए हैं वे भ्रान्त हैं, बहिरात्मा हैं
और उनका आत्म-विकास उस वक्त तक नहीं बन सकता जब तक कि वे वैसी धारणाको अपनाए रहते हैं।
जिस वुद्धिका यहां उन्लेख है उसका स्वरूप आगे दिया गया है।
बुद्धिका लक्षण यथास्थितार्थान् पश्यन्ती धीःस्वात्माभिमुखी सदा। बुद्धिरत्र तदा बन्धो बुद्धयाधानं तदन्वियात् १७ ___ 'जिस रूपमें पदार्थ स्थित हैं उसी रूपमें उनको देखतीजानती हुई धी (मति), जो सदा स्वात्माभिमुखी होती है वह, यहाँ वुद्धिके रूपमें ग्राह्य है। तब हे बन्धु ! उस बुद्धिके आत्म-सम्बन्धको समझो।'
व्याख्या-यहाँ बुद्धि उस सुमतिका नाम है जो जिस रूपमें पदार्थ स्वरूपसे स्थित हैं उनको उसी रूपमें देखती* बहिरात्मा शरीरादौ जातात्मभ्रान्तिः । (समाधितंत्रे पूज्यपादः) १ तस्याः बुद्ध, श्राधानं सम्बन्धः बुद्धधाधानं कथ्यते । । जानीयात् ।
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अध्यात्म-रहस्य.. बानती है अन्यथा अथवा न्यूनाधिकरूपमें नहीं और सदा स्वात्माके सम्मुख रहती है-स्वात्माके ज्ञानसे कभी विमुख नहीं होती और इस तरह जो स्व-पर-प्रकाशिका होती है। ऐसी बुद्धिका नाम ही मम्यग्ज्ञान है। यहाँ वुद्धिके आत्म-सम्बन्धको समझनेकी प्रेरणा की गई है। आत्माके साथ बुद्धिका घनिष्ठ अथवा तादात्म्य सम्बन्ध है। बुद्धिके विना आत्मा और आत्माके विना बुद्धि नहीं होती.। जो बुद्धिको आत्मरूपमें ग्रहण करता है, चाहे वह कितनी ही अल्प-विकसित अवस्थामें क्यों न हो, वह आत्माको ग्रहण करता है और एक दिन उसका अधिकाधिक विकास करनेमें समर्थ हो सकता है। प्रत्युत इसके, जो बुद्धिके आत्म-सम्बंधको नहीं समझता, बुद्धिको अचेतन पदार्थों का-पृथ्वी, जल, अग्नि और वायुरूप भूतचतुष्ककाकार्य मानता है वह आत्मज्ञानसे शून्य है और इसलिए अात्मविकासको सिद्ध करनेमें समय नहीं हो सकता।
“स्वसंवेदनके अतिरिक्त अन्यके त्यागका विधान अहमेवाहमित्यात्म-ज्ञानादन्यत्र चेतनाम् । । इदमस्मि करोमीदमिदं मुंज इति नि॥१८॥ - मैं ही मैं हूँ, इस आत्मज्ञानसे मित्र , अन्यमें 'यह मैं १चिन्तनाम्।
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सन्मति विद्या प्रकाशमाला
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हूँ, मैं यह करता हूँ, मैं यह भोगता हूँ, इस प्रकारकी चेतना - चिन्तनाको ( हे भाई ! ) तुम छोड़ो ।'
व्याख्या -- यहाँ स्वात्माको श्रपने शुद्ध स्वरूपमें स्थिर तथा दृढ करनेके लिये यह उपदेश दिया गया है कि वह 'एकमात्र मैं ही मैं हूँ — अन्य मैं नहीं हूँ — इस श्रात्म 'ज्ञानसे भिन्न अन्यत्र - - शरीरादिक्रमें अपनी चेतनाको
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न भ्रमावे | अर्थात् 'यह शरीरादिक मैं हूँ, शरीरादिकी अमुक क्रिया मैं करता हूँ, अमुक भोग मैं भोगता हू' इस प्रकार की चिन्तना अथवा विचारणाको छोडे, क्योंकि इस प्रकारकी विचार धाराएँ पर - पदार्थ के साथ अपना सम्बन्ध स्थापित करती है और इस तरह अपने उस शुद्ध आत्मज्ञानमें बाधक होती हैं । इसीसे समाधितंत्र में श्रीपूज्यपादाचार्यने कहा है कि - 'आत्मज्ञानसे भिन्न अन्य कार्य को चिरकाल तक बुद्धिमें धारण नहीं करना चाहिये, यदि प्रयोजन-वश कुछ समय के लिये उसे वचन तथा कायसे करना भी पड़े तो तत्परता - अनासक्तिके साथ करना चाहिये - आसक्त होकर नहीं:
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आत्मज्ञानात्पर कार्य न बुद्धौ धारयेच्चिरम् । कुर्यादर्थवशात्किंचिद्वाक्कायाभ्यामतत्परः ॥५०॥ इसी भावको पुष्ट करनेके लिये आचार्य महोदयने आगे यह भी लिखा है
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यत्पश्यामीन्द्रियैस्तन्मे नास्ति यनियतेन्द्रिय अन्तः पश्यामि सानन्दं तदन्तु ज्योतिरुत्तमम् ॥१॥ 'इन्द्रियोंके द्वारा जो शरीरादिक मैं देखता हूँ वह भी मेरा रूप नहीं है । मेरा रूप तो वह परमानन्दमय उत्तम ज्योति है जिसे मैं इन्द्रियोंको नियन्त्रित करके अपने अन्त:करणमें देखता हूँ, अथवा स्वसंवेदन-ज्ञानके द्वारा अनुभव करता हूँ। __ वस्तुतः शरीर तथा वचनमें आत्माकी धारणा वही करता है जो शरीर तथा वचनके विषयमें प्रान्त है-उनके यथार्थ स्वरूपको न समझकर वहिरात्मदृष्टिसे उनमें आत्माकी कल्पना किये हुए है। जो अभ्रान्त हैअन्तरात्मा है-वह शरीर, वचन और आत्माके तत्वको अलग-अलग समझता है और इसलिये एकको दूसरेके साथ मिलाता नहीं है। जैसा कि समाधितन्त्रके निम्न वाक्यसे प्रकट है
शरीरे वाचि चात्मानं सन्धचे वाक्-शरीरयो। भ्रान्तोऽभ्रान्तः पुनस्तत्त्वं पृथगेषां निवुष्यते ॥ ५४॥
आत्म-ज्योतिके दर्शनकी प्रेरणा अहमेवाहमित्यन्त ल्प-संपृक्त-कल्पनाम् । त्यक्त्वावाग्गोचरं ज्योतिः स्वयं पश्येदनश्वरम् ॥१४
'मैं ही मै हुँ, इस अन्तर्जल्पके साथ सम्बद्ध कल्पनाको
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सन्मति-विद्या प्रकाशमाला छोड़कर वचनके अगोचर, अनश्वर-ज्योतिका स्वयं अवलोकन करना चाहिये । .. . , , , ii .व्याख्या यहाँ पिछले पद्यमें दिये गये उपदेशको 'कुछ आगे बढ़ाया गया है और ऐसा भाव व्यक्त किया गया है कि 'मैं ही में हूँ' इस अन्तर्जल्प (भीतरी पातचीत) से सम्बद्ध आत्मज्ञानकी कल्पनामें ही न उलझे रहना चाहिये किन्तु उस आत्मज्योतिको स्वयं देखना भी चाहिये, जो कि अनिर्वचनीय होनेके साथ साथ कमी नाश न होनेवाली है। और इस तरह यहाँ स्वात्मदर्शन की भावनाको खास तौरसे प्रोत्साहन दिया गया है ।
आत्म-दर्शनका उपाय .. यद्यदुल्लिखति स्वान्तं तत्तदस्वतया' त्यजेत् । तथा विकल्पानुदये दोद्योत्यात्माच्छचिन्मये ॥२०॥ ___ 'हृदय जिम-जिसका उल्लेख करता-चित्र खींचताहै उस-उसको अनात्माकी दृष्टिसे-यह आत्मा नहीं, ऐसा समझ कर छोड़ना चाहिये । उर्स प्रकारके विकल्पोंके उदय न होने पर 'आत्मा अपने स्वच्छ चिन्मयरूपमें प्रकाशमान होता है।
व्याख्या-पिछले पद्यमें जिस-आत्मदर्शनकी प्रेरणा की गई, है उसका प्रयत्न करते समय हृदय जो जो चित्र सामने १ परवस्तुतया ।
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अध्यात्म रहस्य उपस्थित करे उन सबको अनात्मा समझकर छोड़ते जाना चाहिये, जब हृदयमें उस प्रकारके विकल्पोंका उदय होनाचित्र खिंचना-रुक जाय तब आत्मा स्वयं अपने निर्मल चैतन्यस्वरूपमें प्रकाशित होता है। यह उसके दर्शनकी एक पद्धति है।
आत्मज्योतिकी दृश्यता और अदृश्यता स विश्वरूपोनन्तार्थाकार-प्रसर-मूत्वतः । सोरिदृशामलक्ष्योपि लक्ष्यः केवल-चक्षुषाम् २१
'वह ज्योति अनन्त पदार्थोके आकार-प्रसारको भूमि होनेसे विश्वरूप है और छमस्थोंके लिये अदृश्य-अलक्ष्य होती हुई भी केवल-चक्षुओंसे लक्ष्य है-देखी जाती है ।' ___ व्याख्या-जिस आत्म-ज्योतिके दर्शनकी प्रेरणादिका पिछले दो पद्योंमें उन्लेख है उसके विषयमें यहाँ यह प्रकट किया गया है कि 'वह ज्योति अनन्त पदार्थोके
आकार-प्रसारकी भूमि है-विश्वके सारे पदार्थ अपने पूर्ण आकारके साथ उसमें प्रतिबिम्बित होते हैं और इसलिये वह विश्वरूप है । ऐसी विश्वरूप ज्योतिछबस्थोंके लिये प्रायः अदृश्य होती हुई भी केवल-ज्ञानियों के चतुओंसे दृश्य है- स्पष्ट देखी जाती है। - - -
१छमस्थानाम् ।
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सन्मति-विद्या-प्रकाशमाला
मात्म-ज्योतिका लक्षण तस्य लक्षणमन्त गुरुपयोगो हतया । नित्यमन्यतया भाग्भ्यःपरेभ्योन्यत्र लक्षणात् २२
'उस ज्योतिका लक्षण अहंताकी दृष्टिसे अन्तर्वर्ती उपयोग है; क्योंकि वह नित्य ही अन्यताकी दृष्टिसै लक्षित पृथग्भूत परपदार्थोंके--अचेतनद्रव्योंके--लक्षणोंसे भिन्न है।" ___ व्याख्या-यहाँ उस आत्मज्योतिका लक्षण, जो पद्य नं० ४ के अनुसार अहंताकी दृष्टिसे लक्षित होती है, अन्तर्वर्ती उपयोग बतलाया है और साथ ही यह प्रतिपादन किया है कि यह लक्षण सदैव अन्यताकी दृष्टिसे लक्षित होनेवाले अचेतनद्रव्योंके लक्षणोंसे भिन्न है।
छह द्रव्योंमें जीवद्रव्य ही एक ऐसा द्रव्य है जो चेतनगुणसे विशिष्ट है और इसलिये दर्शन तथा ज्ञानरूप उपयोग उसीका लक्षण है। शेष पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल नामके द्रव्य अचेतन होनेके कारण इस उपयोग-लक्षणसे रहित हैं। उन द्रव्योंके दूसरे अलग अलग लक्षण हैं, जिन्हें आगे सूचित किया गया है। उपयोगका 'अन्तर्वर्ती' विशेषण आत्माके साथ उसके वादात्म्यका-आत्मभूतताका--सूचक है। १ पृथग्भूतः अन्तरं भजतीति अन्तर्भाक् । • पृथग्मूतेभ्यः कथंचित् ३अचेतनद्रव्येभ्यः।
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अध्यात्म-रहस्य
लक्षण-भेदसे स्व-पर-भेदकी सिद्धि ययो'लक्षणभेदस्तौ भिन्नौ तोयानलौ यथा। सोस्ति च स्वात्म-परयोरिति सिद्धात्र युक्तिवाक् २३
'जिन दोमें परस्पर लक्षण-भेद होता है वे दोनों एक दूसरेसे मिन्न होते हैं; जैसे जल और अनल (अग्नि)। स्वात्मा और परमें वह लक्षणभेद है, इसलिये दोनों भिन्न हैं, यह युक्ति-वचन यहॉ सिद्ध है-प्रमाणसे बाधित नहीं है।'
व्याख्या-यहाँ, लक्षण-मेदसे वस्तु-भेदके न्यायकी घोषणा करते हुए, यह प्रतिपादन किया है कि, कि स्वात्मा और परद्रव्योंमें ( पूर्वपद्यानुसार ) लक्षण-भेद है और वह लक्षणभेद ऐमा है जैसा कि नल और अग्निमेंएक शीतलस्वभाव तो दूसरा उसके विपरीत उष्णस्वभावअतः दोनोंकी भिन्नता युक्ति-सिद्ध है।
___उपयोगका स्वरूप और भेद उपयोगश्चितः स्वार्थ-ग्रहण-व्यापृतिः२ श्रुतेः। शब्दगो दर्शनं ज्ञानमर्थगस्तन्मयः पुमान् ॥२४॥
"चिन्मय आत्माके स्व और अर्थके ग्रहणरूप व्यापारको 'उपयोग कहते हैं। श्रुतिकी दृष्टिसे शब्दगत उपयोग 'दर्शन' और अर्थगत उपयोग 'ज्ञान' कहलाता है। और पुरुष (आत्मा) तन्मय है-दर्शन और ज्ञानरूप हैं।' पुद्गल-जीवयोः । २ कर्णस्य स्वार्थः शब्दः, तस्य ग्रहणं व्यापार.।
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सन्मति-विद्या प्रकाशमाला व्याख्या-यहाँ उपयोगके स्वरूपका प्रतिपादन करते हुए अति(कर्ण-विषय) की दृष्टिसे उसके दो भेद किये गये है-एक शब्दगत, जो शब्दको अपना विषय करे और दूमरा अर्थगत, जो पदार्थको अपना विषय करे । शब्दगतको 'दर्शनोपयोग' और अर्थगतको 'ज्ञानोपयोग' कहते हैं और जीवात्माको दोनों उपयोगरूप प्रतिपादित किया गया है।
आत्मशुद्धिका मार्ग अमुह्यन्तमरज्यन्तमद्विपन्तं च यः स्वयम् । शुद्धे निधत्ते स्वे शुद्धमुपयोगं स शुद्धयति ॥२५॥
'जो (ध्यानी) पुरुष स्वयं अपने शुद्ध-आत्मामें राग, द्वेष तथा मोहसे रहित शुद्ध उपयोगको धारण करता है वह शुद्धिको प्राप्त होता है। ____व्याख्या-यहाँ आत्माकी शुद्धिके प्रकारका निर्देश है और वह यह है कि, आत्माके शुद्ध स्वरूपका चिन्तन करके उसमें अपने शुद्ध उपयोगको लगानेसे प्रात्माकी शुद्धि होती है । शुद्ध उपयोग वह कहलाता है जो राग, द्वेष और मोहसे रहित होता है। राग द्वेप और मोह, ये अशुद्धिके बीज हैं; इनसे उपयोग मलिन होता है और ऐसे मलिन उपयोगको धारण करनेसे आत्माकी शुद्धि नहीं वनतो। अतः आत्माको यदि शुद्ध करना है तो अपने उस उपयोगसे, जिसे शुद्धात्माके प्रति लगाना है, राग-द्वेष
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मोहको निकालकर अलग करदेना चाहिये; तभी शुद्धात्माके सम्पर्क में से अपना आत्मा शुद्ध हो सकेगा ।
शुद्धि हेतु रागादिकके विनाशका उपाय
भावयेच्छुद्धचिद्रूपं स्वात्मानं नित्यमुद्यतः । रागाद्युदग्र- शत्रूणामनुत्पत्त्यै क्षयाय च ॥ २६ ॥ 'रागादि अति उग्र शत्रुओं की अनुत्पत्ति और विनाशके लिये नित्य ही उद्यमी होकर शुद्ध- चिद्रूप - स्वात्माकी भावना करनी चाहिये ।'
व्याख्या - राग, द्वेप और मोह आत्मा के श्रतीव उग्र शत्रु हैं; ये उत्पन्न नहीं होवे और यदि कदाचित् उत्पन्न होवें तो इनका शीघ्र ही नाश हो जावे, इसके लिये बड़ी तत्परताके साथ शुद्ध-चिद्रूप-स्वात्माको अपनी नित्यकी भावनाका विषय बनाना चाहिये - ध्यानमें नित्य ही आत्माके शुद्ध-चिद्रूपको सामने लाते रहना चाहिये । यह आत्म-शत्रुओंकी अनुत्पत्ति तथा नाशका परम उपाय है। इन रागादिकका संक्षिप्त परिचय अगले पद्यमें दिया गया है। राग, द्वेष और मोहका स्वरूप
रागः प्रेम' रतिर्माया लोभं हास्यं च पंचधा । मिथ्यात्वभेदयुक् सोपि मोहो द्वेषः क्रुधादि षट् २७
१ स्त्रीपुन्नपुं रुकबेदरूपम् । २ क्रोधमानाऽरर्ति-शोकभयजुगुप्साः ।
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'प्रेम ( त्रिवेद रूप - परिणति ), रति, माया, लोभ और हास्य के भेदसे राग पाँच प्रकारका है, दर्शनमोहनीयके मिथ्यात्व - भेदसे युक्त वही राग 'मोह' कहलाता है और क्रोधादिके भेदसे द्वे छह प्रकारका है ।
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व्याख्या - जिन राग, द्वेष और मोहको आत्माका परम शत्रु बतलाया गया है और जिनकी चर्चा ग्रंथमें तक चली आई है उनका क्या स्वरूप है अथवा विषयरूपसे उनमें क्या कुछ शामिल है उसीका निर्देश इस पद्यमें किया गया है । राग पाँच भेदरूप है - प्रेम, रति, माया, लोभ और हास्य | इनमें माया और लोभ ये दो तो कषाय शेष प्रेमादि तीन नो ( ईषत् ) कपाय हैं । प्रेमका आशय यहाँ स्त्री, पुरुष तथा नपुसकरूप तीन वेदोंमेंसे किसी भी वेदरूप परिणतिका है । द्वेष छह भेद रूप है - क्रोध, मान, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा । इनमेंसे पहले दो भेद कषायरूप और शेष नोकपायरूप हैं । मोह उस रागका नाम है जो दर्शनमोहके मिथ्यात्वभेदसे युक्त होता है । इसीसे मोहको 'मिथ्यादर्शन' भी कहा जाता है, जैसा कि तत्त्वानुशासनके निम्न वाक्यसे प्रकट है:
" दृष्टिमोहोदयान्मोहो मिथ्यादर्शनमुच्यते" । इसतरह राग द्वेष और मोह इन तीन भेदों में प्रायः सारे
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ही मोहनीय कर्मका भाव समाविष्ट होजाता है, जो कि आत्माका सबसे बड़ा शत्रु है, जिसने आत्माके विकासको रोक रक्खा है और जिसे स्वामी समन्तभद्र "अनन्तदोषाशय - विग्रहो ग्रहो विषंगवान् मोहमयश्चिरं हृदि" जैसे शब्दोंके द्वारा उल्लेखित करते हैं । राग-द्वेषरूप प्रवृत्तिका फल
सर्वत्रार्थादुपेदयेपि इदं में हितमित्यधीः । गृह्णन् प्रीयेऽहितमिति श्रयन् दूयेन कर्मभिः २८ 'वस्तुतः राग और द्वेष सर्वत्र उपेक्षाके योग्य होने पर भी, अज्ञानी जीव कमसे प्रेरित होकर 'यह मेरा हित है' ऐसा मानता हुआ किसी वस्तुमें प्रीति (राग) करता और 'यह मेरा हित है' ऐसा समझता हुआ किसी पदार्थ में अप्रीति (द्वेष ) धारण करता है, और इस तरह कर्मोंसे पीड़ित होता है ।'
व्याख्या - - राग और द्वेष दोनों बन्धके कारण होनेसे मुमुक्षुओं के द्वारा सदा उपेक्षा किये जाने एवं त्यागनेके योग्य हैं, फिर भी अज्ञानी जीव परपदार्थों में हित-अहित की कल्पना करके किसीमें राग और किमी में द्वेष धारण करते * श्रीरामसेनाचार्यने भी, तत्त्वानुशासनमें, निम्नवाक्यके द्वारा इसी भावको सूचित किया है:"ताभ्यां (राग-द्वेषाभ्यां पुनः कषाया :स्युर्नोकषायाश्च तन्मयाः ।" १ प्रीति करोति । २ पीड्यते ।
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सन्मति-विद्या प्रकाशमाला हैं, फलतः अनेक प्रकारके कर्मवन्धनोंसे बँधकर अन्तको दुखी होते हैं। . . कर्मजनित सुख-दुःखकी कल्पना अविद्या है । बन्धतः सुगतौ खाथैः सुखाय दुर्गतौ मुहुः। : दुःखाय चेत्यविद्यैव मोहाच्छेद्याद्य विद्यया ॥२६ * 'सुगतिका बन्ध होनेसे उसमें इन्द्रियों के विषयोंद्वारा बार-बार सुखकी प्राप्ति होती है, और दुर्गतिका बन्ध होनेसे उसमें वार-बार दुखकी प्राप्ति होती है, ऐसा समझना मोहके कारण-मोहके उदयवश-अविद्या ही है। यह अविद्या अत्र विद्यासे छेदन की जानी चाहिये।
व्याख्या-यहाँ कर्मवन्धको सुगतिकी प्राप्ति होनेपर इन्द्रिय-विपयोंके लाभसे सुखका कारण और दुर्गतिकी प्राप्ति होनेपर इन्द्रिय-विपयोंके अलामसे दुखका कारण माननेको अविद्या बतलाया है और उस अविद्याका कारण मोह ठहराया है। क्योंकि मोहके उदयवश ही यह अज्ञानी प्राणी बंधनको भी, जिसमें पराधीनता होती है, सुखका हेतु समझता है, परपदार्थोको सुख-दुखका दाता मानता है और इन्द्रिय-विषयोंको भी सुखरूप समझता है। जब कि वे वास्तवमें सुखरूप नहीं हैं; जैसा कि कुन्दकुन्दाचार्यके निम्न वाक्यसे प्रकट है:'', सपरं बाधासहियं विच्छिएणं बंधकारणं विसमं ।
जं इंदिएहि लद्धं तं सव्वं दुक्खमेव तहा।। (प्रवचनसार ७६)
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इसीसे सम्यग्दृष्टि ऐसे वास्तविक सुखमें अनास्था रखता हुआ उसकी आकांक्षा नहीं करता, जो कर्माधीन है, अन्तसहित है, उदयकालमें दुखसे अन्तरित है और - पापका चीज है ।
उक्त अविद्याको यहाँ विद्यासे—यथार्थ वस्तुस्थितिके परिज्ञानरूप सम्यग्ज्ञानसे अथवा उस उपेक्षा नामकी विद्यासे जिसका पद्य ४२ में उल्लेख है - छेदन करनेकी प्रेरणा की गई है ।
निश्चयसे आत्मा सच्चिदानन्दरूप है निश्चयात् सच्चिदानन्दाद्वयरूपं तदस्म्यहम् । ब्रह्म ेति सतताभ्यासालीये स्वात्मनि निर्मले ॥३०
'निश्चयनयसे जो सत् चित और आनन्द के साथ अद्वैतरूप ब्रह्म है वह मैं ही हूँ, इस प्रकारके निरन्तर अभ्यास से ही मैं अपने निर्मल आत्मा में लीन होता हू ।'
व्याख्या - यहाँ अपने शुद्ध-स्वात्मामे लीन होनेकी पद्धतिका कुछ निर्देश है और वह इतना ही है कि निरन्तर इस प्रकारके अभ्यासको बढाया जावे कि निश्चयनयकी दृष्टिसे जो सत्, चित् और आनन्द से अभिन्न रूप ब्रह्म है वह मैं ही हूँ- मेरे सच्चिदानन्दरूपसे कथित ब्रह्मका रूप अलग नहीं है और न इस रूपसे भिन्न ब्रह्म नामकी कोई अलग वस्तु * समीचीनधर्मशास्त्र (रत्नकरण्ड) १२ ।
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ही है । मेरे इस शुद्धरूपका ही ब्रह्मके साथ अद्वैतभाव है । अर्थात् मैं ही अपने शुद्ध स्वरूपमें परम ब्रह्मरूप हूँ । इस अद्वैत - दृष्टिके विषय में श्रीरामसेनाचार्यने तच्चानुशासनमें स्पष्ट लिखा है
आत्मानमन्य-संपृक्तं पश्यन् द्वैतं प्रपश्यति ।
पश्यन् विभक्तमन्येभ्यः पश्यत्यात्मानमद्वयं ॥ १७७॥ 'जो आत्माको अन्यसे — कर्मादिकसे -- सम्बद्ध देखता है वह द्वैतको देखता है - श्रात्माको जड - चेतनादि द्वैतरूपमें अनुभव करता है - और जो आत्माको दूसरे सब पदार्थोंसे विभक्त एवं भिन्न देखता है वह अद्वैतको देखता हैआत्माको एक ही सच्चिदानन्दरूपमें सर्वत्र अनुभव करता और इसलिये अपनेको सच्चिदानन्द - लक्षणसे भूषित ब्रह्म समझता है ।'
आत्माके सत्स्वरूपका स्पष्टीकरण
सन्नेवाहं मया वेद्ये स्वद्रव्यादि-चतुष्टयात् । स्थित्युत्पत्तिव्ययात्मत्वादसन्नेव विपर्ययात् ॥ ३१
'स्वद्रव्यादि - चतुष्टयकी दृष्टिसे —— स्वकीय द्रव्य-क्षेत्रकाल - भावकी अपेक्षासे - तथा ( प्रतिक्षण) स्थित्यात्मक, उत्परयात्मक और व्ययात्मक होनेकी दृष्टिसे मैं सतरूप ही हूँ; प्रत्युत इसके, परद्रव्य-क्षेत्र - काल - भावकी अपेक्षा तथा प्रतिक्षण स्थित्युत्पत्ति - व्ययात्मक न होनेकी दृष्टिसे मैं
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असतुरूप ही हूँ; ऐसा मैं अनुभव करता हूँ। '
व्याख्या ——यहाँ आत्माके सत् और असत् रूपकी दृष्टिको स्पष्ट करके बतलाया गया है । सत्की दो दृष्टियाँ हैं - एक स्वद्रव्यादि - चतुष्टयकी और दूसरी प्रतिक्षणश्रव्योत्पत्ति - व्ययात्मक होनेकी । इन दोनों दृष्टियोंसे जो रहित है - परद्रव्यादि - चतुष्टयकी दृष्टिको लिये हुए है अथवा प्रतिक्षण धौव्योत्पत्ति-व्ययात्मक नहीं है वह असत् है । तच्चार्थसूत्र में 'सद्द्रव्यलक्षणम्' सूत्रके द्वारा द्रव्यमात्रका सामान्य लक्षण 'सत्' देकर फिर उस सत्का लक्षण ही 'उत्पाद-व्यय-धौव्ययुक्त सत्' दिया है । और स्वामी समन्तभद्रने देवागममें साफ लिखा है:--
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४३
सदेव सर्व को नेच्छेत्स्वरूपादि-चतुष्टयात् । असदेव विपर्यासान्न चेन्न व्यवतिष्ठते ॥ १५ ॥ अर्थात् — सर्वद्रव्य स्वरूपादि - चतुष्टयकी दृष्टिसे सत् - रूप ही हैं और पररूपादि चतुष्टयकी दृष्टिसे असवरूप ही हैं। यदि ऐसा नहीं माना जायगा तो सत् और असत् दोनोंमेंसे किसीकी भी व्यवस्था नहीं बन सकेगी ।
स्वामीजीके इस वाक्यको लेकर ही रामसेनाचार्यने तवानुशासनमें निम्न वाक्यकी सष्टि की है—
सन्नैवाऽह सदाऽप्यस्मि स्वरूपादि-चतुष्टयात् । असन्तेवाऽस्मि चात्यन्तं पररूपाद्यपेक्षया ॥ १५४ ॥
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इन्हीं दोनों अथवा तीनों आचार्योंके उपदेशानुसार यहाँ श्रात्माका सत्-असत् रूपसे प्रतिपादन किया गया है। आत्मा जगत नहीं है
* यथा जातु जगन्नाहं तथाहं न जगत् कचित् । कथंचित्सर्वभावानां मिथोव्यावृत्ति - वित्तितः ॥३२
'जैसा जगत है वैसा मैं कभी नहीं हूँ और जैसा मैं हूँ वैसा जगत कभी नहीं है; क्योंकि कथंचित सर्व पदार्थोंकी पारस्परिक विभिन्नताका अनुभव होता है ।'
व्याख्या —— यहाँ आत्मा जगतके स्वरूपसे अपने स्वरूपको भिन्न अनुभव करता है । उसे विचारने पर कथंचित् सर्व-पदार्थोंकी विभिन्नताका बोध होता है । ग्रंथ में भी आगे लक्षणादिके भेदसे द्रव्योंकी विभिन्नताका बोध कराया गया है ।
आत्माके चित्स्वरूपका स्पष्टीकरण
४४
+ यदचेतत्तथानादि चेततीत्थमिहाद्य यत् । चेतिष्यत्यन्यथाश्नन्तं यच्च चिद्द्रव्यमस्मि तत् ३३
* परस्पर-परावृत्ताः सर्वे भाषाः कथंचन । नैरात्म्य जगतो यद्वन्नैर्जगत्य तथात्मनः ॥ (तत्त्वानु० १७४५) १ परस्परम् । २ पृथक् स्वभाव-परिज्ञानम् ।
* यदचेतत्तथा पूर्व चेतिष्यति यदन्यथा । चेततीत्थ यदत्राद्य तच्चिद्रव्य समस्म्यहम् || १५६ || (तत्त्वानु०) ३ अन्येन प्रकारेण
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अध्यात्म-रहस्य 'जिसने अनादिकालसे उस प्रकार-उपयुक्त प्रकारजाना है, जो आज यहाँ इस प्रकारसे जान रहा है और जो अनन्तकाल तक अन्य किसी प्रकारसे नानता रहेगा वह चेतनद्रव्य मैं हूँ।
व्याख्या-यहाँ स्वात्मा अपनी अविच्छिन्न चेवनपरम्पराका अनुभव करता हुआ विचारता है कि मैं वह चेतन द्रव्य हूँ जिसने अनादिकालसे उस प्रकार जाना है, जो आज इस प्रकारसे जान रहा है और जो आगे भी अनन्तकाल तक अन्य प्रकारसे जानता रहेगा।
द्रन्यकी उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यात्मकता एकमेकक्षणे सिद्धं नश्यत् प्रागात्मना भवत् । सतारतिष्ठत्तदेवेदमिति वित्त्या यथेक्ष्यते ॥३४॥ द्रव्यं तथा सदा सर्व द्रव्यत्वात्तद्वदप्यहम् । विवर्तेनादिसन्तत्या चिद्विवतैः पृथग्विधैः ॥३५ ___'एक सिद्धद्रव्य जिस प्रकार एक ही क्षणमें पूर्व-पर्यायसे नष्ट होता हुआ, वर्तमान-पर्यायसे उत्पन्न होता हुआ और सद रूपसे सदा स्थिर रहता हुआ, 'यह वही है। इस प्रकारके ज्ञान (प्रत्यभिज्ञान) से लक्षित होता है, उसी प्रकार सारा द्रव्यसमूह उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यरूप अनुभव किया जाता है। मैं भी एक (चेतनात्मक) द्रव्य हूँ अतः
१ विद्यमानेन । २ ज्ञानेन । ३ नानाप्रकारैः।
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सन्मति-विद्या प्रकाशमाला अनादि-सन्ततिसे उसी प्रकारकी अपनी चेतन-पर्यायोंके द्वारा परिवर्तित हो रहा हूँ-अर्थात् प्रतिक्षण पूर्वपर्यायसे नष्ट और उत्तरपर्यायसे उत्पन्न होता हुआ भी चैतन्यरूपसे सदा स्थिर चेतनामय बना हुआ हूँ।'
व्याख्या-पिछले पद्यमें श्रात्माने अपनेको चेवन द्रव्यके रूपमें अनुभव किया है, जो कि एक सामान्यदृष्टि है। इन पद्योंमें वह अपने आत्मद्रव्यकी अनादि-सन्ततिमे चली
आई क्रमवर्ती चेतन-पर्यायोंको लन्य करके अपनेको उत्पाद, व्यय और धौव्यके रूपमें अनुभव कर रहा है, जो कि एक विशेष दृष्टि है । इस दृष्टिमें उसे यह भी प्रतिभासित हो रहा है कि द्रव्यमात्र प्रतिक्षण उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यसे युक्त हैकोई भी द्रव्य ऐसा नहीं जो किसी समय द्रव्यके इस सत्लक्षणसे रहित हो * । वह विषयकी स्पष्टताके लिये उदाहरणके रूपमें किसी एक प्रसिद्ध अथवा प्रमाणसिद्ध द्रव्यको, जैसे सुवर्णनामके पुद्गलद्रव्यको, अपनी कल्पनामें लेता है और देखता है कि सुवर्णकी डलीसे जिस समय कंकण बनाया जा रहा है उस समय डली-रूपके नाशसे सुवर्णका नाश नहीं हो रहा है और न कंकणरूपके उत्पादसे कोई नया सुवर्ण ही उसमें आरहा है। बल्कि वही पीतादिगुण-विशिष्ट सुवर्ण है जो पहले डली, सरी आदिके रूपमें स्थित सद्व्य-लक्षणम् । उत्पाद-व्यय-प्रौव्ययुक्तं सत् ।। (तत्त्वार्थः)
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४७
अध्यात्म-रहस्य था। इस तरह सुवर्णद्रव्य अपने गुणोंकी दृष्टिसे धौव्य
और पर्यायोंकी दृष्टिसे व्यय तथा उत्पाद के रूपमें लक्षित होता है। और यह सब एक ही समयमें घटित हो रहा है। व्यय और उत्पादका समय यदि मिन्न-भिन्न माना जायगा तो द्रव्यके सदरूपकी कोई व्यवस्था ही नहीं बन सकेगी; क्योंकि एक पर्यायके व्ययके समय यदि दूसरी पर्यायका आविर्भाव नहीं हो रहा है तो द्रव्य उस समय पर्यायसे शून्य ठहरेगा और द्रव्यका पर्यायसे शून्य होना गुणसे शुन्य होनेके समान उसके अस्तित्वमें बाधक है। इसीसे द्रव्यका लक्षण गुण-पर्यायवान भी कहा गया है, जो प्रत्येक समय उसमें पाया जाना चाहिये-एक क्षणका भी अन्तर नहीं बन सकता । एक समयका भी अन्तर द्रव्यके अमावका सूचक होगा और तब उत्पाद भी सर्वथा असदका उत्पाद कहलाएगा और इसलिये नहीं बन सकेगा । द्रव्यकी पूर्वपर्याय उत्तरपर्यायके उत्पादमें कारण पड़ती है, जब पूर्वपर्यायका पूर्वक्षणमें ही नाश हो गया और उत्तरक्षणमें उसका अस्तित्व नहीं रहा तव उत्पादके लिये कोई कारण भी नहीं रहता । अतः प्रत्येक द्रव्यमें उत्पाद-व्यय और ध्रौव्य तीनों एक क्षणवर्ती हैं, आत्मा भी चूँ कि द्रव्य है इसलिये उसमें भी ये प्रतिक्षण पाये जाते हैं, इसमें सन्देहके लिये कोई स्थान नहीं है।
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सन्मति-विद्या-प्रकाशमाला द्रव्य-गुण-पर्यायके लक्षण तथा जीव-गुण * गुण-पर्याय-वद्रव्यं गुणाः सहभुवोन्यथा' । पर्यायास्तत्र चैतन्यं गुणःपुस्यन्वयित्वतः३॥३६ ____ 'नो द्रव्य है वह गुण-पर्यायवान् है। जो सहभावी हैं वे गुण हैं, जो सहभावी न होकर क्रमभावी हैं वे पर्याय हैं। पुरुषमें--जीवात्मामें--चैतन्य गुण है। क्योंकि वह अन्वयी है-जीवके साथ सदा रहता है, कभी उससे अलग नहीं हो सकता। __व्याख्या-इस पद्यके प्रथम चरणमें द्रव्यका लक्षण तत्वार्थसूत्रके शब्दोंमें गुण-पर्यायवान दिया है। फिर गुणोंका लक्षण सहभावी और पर्यायोंका लक्षण क्रममावी देकर जीवात्माका गुण चैतन्य प्रकट किया है, जो कि उसका असाधारण अथवा विशेष गुण है और किसी भी काल तथा क्षेत्रमें उससे पृथक नहीं होता। • शेष द्रव्योंके गुण तथा अर्थपर्यायका सरूप रूपित्वं पूदगले धर्मे गत्युपग्राहिता तयोः । स्थित्युपग्राहिताऽधर्मे परिणेतृत्व-योजना॥३७॥ * सहवृत्ता गुणस्तत्र पर्यायाः क्रमवर्तिनः। ___ स्यादेतदात्मकं द्रव्यमेते च स्युस्तदात्मकाः ॥११४॥ (तत्त्वानु०) १ क्रमभुवः पर्यायाः।२ आत्मनि । ३ अनुगामित्वात् । , ४ जीव-पुद्गलयोः।
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अध्यात्म-रहस्य सर्वत्रकाले - सर्वेषां खेऽवगाहोपकारिता । सर्वेषामर्थ-पर्यायः सूक्ष्मः प्रतिक्षण-क्षयी ॥३८॥ __'पुद्गलद्रव्यमें रूपित्व-गुण, धर्मद्रव्यमें जीव-पुद्गल दोनोंके प्रति गत्युपकारिता-गुण, अधर्मद्रव्यमें दोनोंके प्रति स्थित्युपकारिता-गुण, कालमें सर्वत्र परिणेतृत्त्व-गुण और
आकाशमें सब द्रव्योंके प्रति अवगाहोपकारितागुण है । सर्व द्रव्योंकी अर्थ-पर्याय सूक्ष्म हैं और प्रतिक्षण विनश्वर है।'
व्याख्यान दो पद्योंमें शेष पॉच द्रव्योंके विशेष गुणोंका उल्लेख है; जैसे पुद्गलमें रूपित्व, धर्मद्रव्यमें जीवपुद्गलकी गतिमें सहकारिता, अधर्ममें दोनोंकी स्थितिमें सहकारिता, कालमें परिणेतृत्व और आकाशमें सब द्रव्योंकी अवगाहनामें सहकारिता नामका गुण है। माथ ही, पर्यायोंका उल्लेख करते हुए उन्हें मुख्यतः दो भागोंमें बांटा है-एक अर्थपर्याय और दूसरी व्यंजनपर्याय । अर्थपर्यायके विषयमें लिखा है कि वह सभी द्रव्योंकी सूक्ष्म-पर्याय है और क्षण क्षणमें नाश होनेवाली है।।
. जीव-पुद्गलकी व्यंजनपर्याय वागम्योऽनश्वरः स्यान्मूर्ती व्यंजनपर्ययः । जीव-पुद्गलंयोव्यं तन्मयं तेचे तन्मयाः॥३६ १ घटनाकाले।
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५०
सन्मति विद्या प्रकाशमाला
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'जीव- पुद्गलकी व्यंजनपर्याय वाग्गोचर है, नश्वर न
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होकर स्थिर है और मूर्तिक है । प्रत्येक द्रव्य अर्धपर्याय और व्यंजन पर्याय -मय है और वे पर्यायें द्रव्य-मय हैं ।'
व्याख्या - इस पद्यमें जीव और पुद्गल द्रव्योंकी
व्यंजनपर्यायका उल्लेख है और यह प्रकट किया है कि वह पर्याय वचनगोचर है, क्षणभंगुर न होकर टिकनेवाली है और सुर्तिक है। साथ ही, यह भी व्यक्त किया है कि प्रत्येक द्रव्य इन दोनों पर्यायरूप होता है और ये पर्याय
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द्रव्यके साथ तन्मय होती हैं—उससे अलग नहीं होतीं । मुक्ताहारके रूपमे आत्माकी भावना
चेतनोऽहमिति द्रव्ये शौक्ल्यं' मुक्ताश्च हारवत् । चैतन्यं चिद्विवर्ताश्च' मय्या मील्य मिलाम्यजे ४०
'जिस प्रकार हारमें हारकी, मोतियोंकी और शुक्लताकी पृथक् पृथक् प्रतीति होते हुए भी वे सब हार-मय हैं, उसी
•
प्रकार आत्मद्रव्य में 'मैं चेतन हूँ, मुझमें चैतन्य है और चेतन - पर्यायोंको अभिव्याप्त करके में अनरूप आत्मद्रव्यमें मिल रहा हूँ -- तन्मय हो रहा हूँ, ऐसी प्रतीति होती है ।'
व्याख्या -- वहाँ मुक्ताहारके रूपमे आत्माकी अनुभूि की गई है। मुक्ताहारमें जैसे मोती और मोतियोंमें शुक्रवा १ ज्ञान पर्यायान २ आत्मद्रव्ये ।
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गुण होता है उसी प्रकार चेतनद्रव्य-श्रात्मामें चिदात्मक पर्याये और पर्यायोंमे चैतन्यगुण रहता है, और ये सब हारस्थानीय आत्मद्रव्यके साथ तन्मय होकर मिले हुए हैं और आत्मद्रव्य इनके साथ तन्मय हो रहा है।
आत्माके आनन्द-स्वरूपका स्पष्टीकरण ॐ यश्चक्रीन्द्राहमिन्द्रादि-भोगिनामपि जातु न। शश्वत्सन्दोहमानन्दो मामेवाभिव्यनस्मितम्।४१
'जो आनन्द चक्रवर्ती, इन्द्र, अहमिन्द्र और धरणेन्द्रको भी कभी प्राप्त नहीं होता उस शाश्वत आनन्द-सन्दोहको मैं अपने में ही अनुभव करता हू ।'
व्याख्या-यहाँ आत्माके दूसरे विशेषगुण 'आनन्द'का उल्लेख है, जो आत्माके चैतन्यगुणकी तरह अन्य किसी भी द्रव्यमें नहीं पाया जाता | शुद्ध-स्वात्मा अपनेमें ही उस आनन्द-गुणका चिन्तन करता हुआ यह अनुभव करता है कि ऐसा शाश्वत आनन्द तो कभी चक्रवर्ती तथा इन्द्र-अहमिन्द्रादिको भी प्राप्त नहीं होता। उन्हें जो आनन्द प्राप्त होता है वह सब इन्द्रिय-जन्य तया पराधीन है और यह अतीन्द्रिय तथा स्वाधीन है। इससे स्पष्ट है कि * यदन्न चक्रिणां-सौख्यं यच स्वर्गे दिवौकसाम् । ___कलयापि न तत्तुल्यं सुखस्य परमात्मनाम् ।।२४६ (तत्त्वानु०) १ अनुभवामि।
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आत्माको जब अपने शुद्ध-स्वरूपकी अनुभूति हो जाती है तव उसे कितने अधिक सुखकी प्रासि होती है, जिससे सारे ही लौकिक सुख फीके पड़ जाते हैं।
आत्म-विकासका क्रम अविद्यां विद्यया मय्याप्युपेक्षा-संज्ञया सकृत् ।। कृन्ततो मदभिव्यक्तिः क्रमेण स्यात्परापि मे ४२
'मुझमें जो अविद्या-अज्ञता विद्यमान है उसे उपेक्षा नामकी विद्यासे निरन्तर काटते हुए मुझमें मेरे स्वरूपकी अभिव्यक्ति (प्रकटता) होती है और यह अभिव्यक्ति क्रमक्रमसे परा अर्थात् चरम-सीमाको भी प्राप्त हो जाती है।' ___व्याख्या-जब स्वात्मा अपनेमें चैतन्य और आनन्दजैसे सातिशय-गुणोंके अस्तित्वका अनुभव करता है और फिर यह देखता है कि उन गुणोंका यथेष्ट विकास नहीं हो रहा है तब वह उसका कारण अपनी अविद्याको पाता है और उस अविद्याके छेदनेका उपाय सोचता है। उसी उपायकी चिन्ता एवं कार्यरूप-परिणतिका इस पद्यमें उल्लेख है । अविद्याको जिम विद्यासे छेदा जाता है. उसका नाम है 'उपेक्षा' । उपेक्षा रागादिके अभावको कहते हैं। जितनी उपेक्षा बढ़ती जायगी अविद्या उतनी ही घटती
।
१ मम प्रकटता।
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अध्यात्म-रहस्य नायगी और उसीके अनुसार आत्माके गुणोंका विकास भी सधता जायगा, जो किसी समय अपनी उत्कृष्टावस्थ अथवा चरमसीमाको भी पहुँच जायगा। यही सब भाव इस पद्यमें संनिहित है।
द्रव्य और पर्याय-दृष्टिसे आत्माकी एकानेकता समस्तवस्तुविस्ताराकारकीर्णोपि पर्ययात् । द्रव्यार्थादेक एवास्मि वाच्यः कस्यापि नार्थतः ॥ ___ 'पर्यायष्टिसे समस्त वस्तुओंके विस्ताराकारसे पूर्व होता हुआ भी मैं द्रव्यदृष्टिसे एक ही हूँ और वस्तुतः (निश्चयतः) किसी भी शब्दका वाच्य नहीं हूँ-वचनके अगोचर हूँ। । व्याख्या-यहाँ खोन्मुख हुआ आत्मा सोचता है कि यद्यपि अनादिकालीन अनन्तपर्यायोंकी दृष्टिसे मैं समस्त वस्तुओंके विस्तार-जितने आकारोंको लिये हुए हूं फिर भी द्रव्य दृष्टिसे मैं एक ही हू-सब पर्यायोंमें एक ही द्रव्यरूपसे रहा हूँ। इसलिये वस्तुतः मेरा वाचक ऐसा कोई भी शब्द नहीं है जो मुझे पूर्णरूपमें प्रस्तुत या उपस्थित कर सके । और इस दृष्टि से मैं अनिर्वचनीय है।
१यवहारात् । २ बचनगोचरः। ३ निश्चयात् । . ...
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सन्मति-विद्या प्रकाशमाला
आत्मसस्कारका उपाय तदेव तस्मै कस्मैचित्परस्मै ब्रह्मणेऽमुना । सूक्ष्मेनेदं मनः शब्दब्रह्मणा संस्करोम्यहम् ॥४४॥ _ 'अतएव उस अनिर्वचनीय किसी परब्रह्मकी-परमोस्कृष्ट आत्मपदकी प्राप्तिके लिये इस सूक्ष्म शब्द-ब्रह्मके द्वारा-'सोऽहं इस प्रकारके अन्तर्जल्पसे-मैं इस मनको संस्कारित करता हूँ।' __व्याख्या—उक्त स्थितिमें आत्मा परब्रह्मपदकी प्राप्तिके लिये अपने मनको 'सोऽहं' इस सूक्ष्म शब्दब्रह्मके द्वारा संस्कारित करता है,उसीके संकल्पका इस पद्यमें उल्लेख है।
परंज्योतिका स्पष्टीक ण । हृत्सरोजेश्ष्टपत्रेऽधोमुखे द्रव्यमनोउम्बुजे । योगार्क-तेजसा बुद्ध स्फुरन्नस्मि परंमहः ॥४५॥ ' 'आठ पत्रोंवाले अधोमुख द्रव्यमनरूप कमलमें, योगरूप सूर्यके तेजसे विकसित हुदय-कमलके भीतर स्कुरायमान परंज्योति-स्वरूप मैं हूँ।'
व्याख्या-मूच्म शब्द-ब्रह्मरूप 'सोऽहं' की भावनासे अपने मनको संस्कारित करते हुए ध्यानावस्थामें आत्मा
१तस्मात्कारणात् २ गुण-दोष-विचार-स्मरणादि-प्रणिधानमात्मनोभावमनस्तदभिमुखस्यास्यैवाऽनुमाहि-पुद्गलोच्चयो द्रव्यमनः ।
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ऋध्य
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अध्यात्म-रहस्य ... यह अनुभव करता है कि आठ पत्रोंवाला अधोमुख द्रव्यमनरूप कमल योगात्मक (ध्यानरूप) सूर्यके तेजसे खिल मया है और उसमें जिस परंज्योतिरूप प्रकाशका दर्शन हो रहा है वह मैं हूं। ध्वस्ते मोहतमस्यन्त शास्तेऽन-मनोऽनिले। शून्योप्यन्यैः स्वतोशून्यो मया दृश्येयमप्यहम४६ ___ 'मोहान्धकारके नष्ट होने और इन्द्रिय तथा मनरूप वायुका संचार रुकने पर यह अन्योंसे शन्य तथा स्वतः प्रशन्य मैं ही अन्तष्टिसे मेरे द्वारा दिखाई दे रहा हूँ।
व्याख्या-जब मोहान्धकार नष्ट होता है और इन्द्रियों तथा मनका व्यापार रुकता है तब कुछ क्षणोंके लिये
अन्तदृष्टिसे आत्माके द्वारा ही आत्माका वह शुद्ध स्वरूप दिखाई पड़ता है जो अन्य परपदार्थोसे शन्य होते हुए मी अपने सम्यग्दर्शनादि गुणांसे शुन्य नहीं,किन्तु परिपूर्ण है। इसी दृश्यको यहाँ ध्यानमग्न आत्मा देख रहा है । इस विषयमें तत्वानुशासनके निम्न पद्य ध्यानमें लेने योग्य हैं:
तदा च परमैकाप्रथाबहिरर्थेषु सत्स्वपि । अन्यन्नकिंचनामाति स्वमेवात्मनि पश्यतः ॥१७२।। अतएवाऽन्यशून्योऽपि नात्मा शून्यः स्वरूपतः। शून्याऽशून्य-स्वभावोऽयमात्मनैवोपलभ्यते ॥१७॥ इनमें बतलाया है कि 'जब स्वरूपमें लीन हुआ योगी
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सन्मति-विद्या-प्रकाशमाला एकाग्रताको नहीं छोड़ता है तब उस परम-एकाग्रताकें कारण आत्मामें स्वात्माको ही देखते हुए, वाह्य पदार्थोके होते हुए भी अन्य कुछ भी प्रतिभासित नहीं होता (यह अवस्था मोहान्धकारके नष्ट होने तथा इन्द्रिय और मनोव्यापारके रुकने पर होती है)। अतएव अन्यसे शून्य होता हुआ भी आत्मा स्वरूपसे शून्य नहीं होता, और यह शून्याश्शून्य स्वभाव आत्माके द्वारा ही उपलब्ध होता है।'
आत्मानुभूतिका उपाय * मामेवाऽहं तथा पश्यन्नैकाप्रय परमश्नुवे । । भजे मत्कन्दमानन्द निर्जरा-संवरावहम् ॥४७॥ . 'उपर्युक प्रकारसे अपने आपको ही देखता हुआ मैं परम-एकाग्रताको प्राप्त होता हूँ और निर्जरा संवर दोनोंको प्राप्त होनेवाले आत्मोत्थ-आनन्दको भोगता हूँ और इस दृष्टिसे संवर तथा निर्जरारूप मैं ही हूँ।' ।
व्याख्या-पूर्वोक्त प्रकारसे अपनेमें ही अपना दर्शन करता हुआ आत्मा परम-एकाग्रताको प्राप्त होता है और आत्माधीन आनन्दको भोगता है, जिसके फल-स्वरूप वह निर्जरा तथा संवर दोनोंका भागी होता है, अर्थात् उसके
* तमेवाऽनुभवंश्चायमेकामय, परमृच्छति। . । तथात्माधीनमानन्दमेति वाचामगोचरम् ।।१७० (तत्त्वानु०)
१ मत्सम्भवं आत्मोत्यमिति यावत्। '
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अध्यात्म-रहस्य पूर्व-संचित कर्मोकी जहाँ निर्जरा होती है वहाँ नवीन कर्मोंका आना (श्रामब) भी रुक जाता है और इस तरह उसका श्रात्म-विकास सहन ही सघता है। इसी तत्चको आत्मा यहाँ अपने अनुभवमें ला रहा है।
जिस स्वात्माधीन आनन्दका यहाँ उल्लेख है उसे तत्वादुशासनमें वचनके अगोचर बतलाया है, और यह ठीक ही है। इन्द्रियोंकी पराधीनताको लिये हुए जो सुख है वही वचनके गोचर होता है, अतीन्द्रिय सुखका वर्णन वचन क्या कर सकता है ? उसका तो कुछ संकेतमात्र ही किया जा सकता है। जैसा कि प्रस्तुत ग्रंथके ४१वें पद्यमें किया गया है कि 'वह आनन्द ऐसा है जो चक्रवर्ती, इन्द्र, अहमिन्द्र और घरणेन्द्रको भी कभी प्राप्त नहीं होता।
रही निर्जरा और संवरकी बात, वे तो धर्म्य-ध्यानका फल ही है, इस बातको तचानुशासनमें 'एकाग्रचिन्तनं ध्यानं निर्जरा-संवरौ फलं' (३८) इस वाक्यके द्वारा व्यक्त किया गया है। .
- पिछली मूलका सिंहावलोकन अनन्तानन्तचिच्छक्ति-वक्रयुक्तोपि तत्त्वतः । अनाद्यविद्या-संस्कारवशादर्बहिः स्फुरन् ॥४८ १ शुद्धनिश्चयनयापेक्षया।
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भूद
सन्मति - विद्या प्रकाशमाला
यदा यदधितिष्ठामि तदा तत्स्वतया वपुः । विद्वांस्त 'दुवृद्धिहानिभ्यां स्वस्य मन्ये चयतयौ ४६
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'वस्तुतः -- शुद्ध निश्चयनयकी अपेक्षासे - अनन्तानन्त चैतन्यशक्तिके चक्रसे युक्त होते हुए भी मैंने अनादिश्रविद्याके संस्कारवश इन्द्रियों द्वारा स्फुरायमान होकर जब जिस शरीरको अधिकृत किया है तब उस शरीरको अपना स्वरूप माना है और उसकी वृद्धि हानिसे अपनी वृद्धि-हानि समझी है ।'
व्याख्या- इन दो पद्यों तथा अगले पद्यमें भी स्वात्मा अपनी पिछली भूलका सिंहावलोकन कर रहा है । वह सोच रहा है कि 'अनादिकालसे देहादिकमें आत्माकी आन्तिरूप विद्या संस्कारवश मैं इन्द्रियोंके द्वारा ही स्फुरित हो रहा हूँ - बाह्य-पदार्थोंके ग्रहण में प्रवृत्ति करता रहा हूँ - और इसलिये मैंने जब जब जिस पर्याय - शरीरको धारण किया है तत्र तत्र उस पर्याय - शरीरको ही श्रात्मा माना है - मनुष्य - शरीरमें स्थित होकर मैंने अपने को मनुष्य, तियंच - शरीर में स्थित होकर तिर्यच देवशरीरमें स्थित होकर देव और नारक शरीरमें स्थित होकर अपनेको नारकी माना है। साथ ही, उन शरीरोंमें जब
ज्ञातवान् । २ तस्य वपुषो वृद्धिश्च - हानिश्चतांभ्या
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अध्यात्म- रहस्य
५६.
जब पौष्टिक पदार्थोके संयोगसे कुछ वृद्धि और रोगादिके
कारण कोई हानि हुई तब तब उस वृद्धि हानिको भी मैंने अपने आत्माकी ही वृद्धि हानि समझा है। यह मेरी भारी भूल रही है; क्योंकि मै वस्तुतः उन शरीरादिरूप नहीं हू जो कि जड़ तथा क्षणभंगुर हैं। मैं तो उस अनन्तानन्तचैतन्य शक्तिसे युक्त हूँ जिसकी स्थिति कमी डांवाडोल नहीं होती।' इसी भावको श्रीपूज्यपादाचार्यने अपने समाधितंत्र afra artis द्वारा स्पष्टरूपसे व्यक्त किया है-
बहिरात्मेन्द्रिय-द्वारैरात्म-ज्ञान- पराङमुखः । स्फुरितः स्वात्मनो देहमात्वेनाऽध्यवस्यति ||७|| नरदेहस्थमात्मानमविद्वान् मन्यते नरम् । तिर्यचं तिर्यगनस्थं सुराङ्गस्थं सुरं तथा ||८|| नारकं नारकास्थं न स्वयं तत्त्वतस्तथा । अनन्तानन्वीशक्तिः स्वसंवेद्यो ऽचलस्थिति ॥ ६ ॥ ॥
दारादिवपुरप्येवं तदात्माधिष्ठितं विदन् । तदात्मत्वेन' तत्सौख्य-दुःखं संविभजे पुरा ॥ ५०॥
'इसी प्रकार स्वस्त्री आदिके आत्मा द्वारा अधिष्ठित शरीरको भी उनका श्रात्मा समझते हुए मैंने पहले तजनित उनके सुख और दुखमें भले प्रकार माग लिया है— उनमें आत्मीयताकी कल्पना कर उनके सुख-दुख को अपना सुखदुख समझकर भोगा है ।'
१ स्वकीयत्वेन ।
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सन्मति-विद्या-प्रकाशमाला । व्याख्या-यहाँ भी स्वात्मा अपनी उसी भूलके विषयमें सोच रहा है कि जिस प्रकार मैंने अपने द्वारा धारण किये हुए पर्याय-शरीरको पहले अपना आत्मा समझा है उसी प्रकार स्त्री-पुत्रादिके द्वारा धारण किये हुए उनके अचेतन पर्याय-शरीरको भी उनका आत्मा समझा है * और शारीरिक दृष्टिसे उन्हें अपना माननेके कारण उनके शरीर-जन्य सुख-दुःखोंका भी मैं भागी रहा हूँ। यह भी मेरी पिछली भूल थी, जिसे अब आत्माका ज्ञान प्राप्त होने पर मैंने भले प्रकार समझा है।
भूल-भ्रान्तिकी निवृत्तिपर आनन्दका अनुभव सम्प्रत्यात्मतयात्मानं देहं देहतयात्मनः । परेषां च विदन् साम्यसुधा चर्वनर विक्रियाम् ॥५१
'अब मैं अपने तथा दूसरोंके आत्माको आत्मरूपसे और देहको देहरूपसे जानता हुआ निर्विकार साम्यसुधाका.आस्वादन कर रहा हूँ।
व्याख्या-अपनी पिछली भूल मालूम पड़ने पर आत्माकी परिणति कैसी होती है उसीका इस पद्यमें उल्लेख
अब वह देहमें आत्माका आरोप नहीं करता-आत्मा * स्वदेहसदृशं दृष्ट्वा परदेहमचेतनम् ।
परात्माधिष्ठितं मूढः परत्वेनाऽव्यवस्यति ॥१०॥ (समाधितन्त्र) १ दारादीनाम् । २ अनुभवन् तिष्ठामि ।
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अध्यात्म-रहस्य .
को भात्मा और देहको देह समझता है चाहे वह अपना हो या परका, और ऐसा करके वह उस निर्दोष समतासुधाका आस्वाद लेरहा है जो अन्य प्रकारसे नहीं बनता। शरीर-जैसे अस्थिर और क्षण-क्षणमें विकारग्रस्त होनेवाले पदार्थमें आत्माकी धारणा करनेसे समता-सुखकी प्राप्ति कैसे हो सकती है ? नहीं हो सकती। वहॉ तो सदा दुःखदायिनी विषमताएँ धेरे रहती हैं-निराकुलताका कहीं नाम भी नहीं। अतः देहमें आत्मबुद्धि ही दुःखका मूल है । इसीसे स्त्री-पुत्र:मित्रादिकी कल्पनाएँ उत्पन होकर दुःखपरम्परा बढ़ती है ।।
___ तत्त्वज्ञानादिसे व्याप्त चित्तकी इन्द्रिय-दशा तत्त्वविज्ञान-वैराग्य-रुद्ध-चित्तस्य खानि मे। न मृतानि न जीवन्ति न सुप्तानि-न जाप्रति ५२ • . 'तच अथवा तचोंके विज्ञान और वैराग्यसे अवरुद्ध चिच हुआ जो मैं (आत्मा) उपकी इन्द्रियाँ न मरी है, न नीती हैं, न सोती हैं और न जागती हैं। -
व्याख्या-यहाँ इस रहस्यकी ओर संकेत है. कि सारा चित्त नब वस्तुतचके विज्ञानसे पूर्ण और वैराग्यसे * मूलं संसारदुःखस्य देह एवात्मधीः (समाधितत्र) + देहे स्वात्मधिया जाताः पुत्र-भार्यादि-कल्पना.। . सम्पत्तिमात्मनस्ताभिमन्यते हा हवं जगत् ॥ (समाधितंत्र-१४)
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सन्मति-विद्या प्रकाशमाला व्याप्त होता है तब-इन्द्रियोकी ऐसी अनिर्वचनीय दशा हो जाती है कि उन्हें न तो मृत कहा जाता है न जोवित, न सुस कहने में आता है और न जाग्रत । मृत इसलिये नहीं कहा जाता कि उनमें स्व-विषय-ग्रहणकी योग्यता पाई जाती है और वे कालान्तरमें अपने विषयको ग्रहण करती हुई देखी जाती है; जब कि मृतावस्थामें ऐसा कुछ नहीं बनता. जीवित इसलिये नहीं कहा जाता कि विषय-ग्रहणकी योग्यता होते हुए भी उनमें उस समय विषय-ग्रहणकी प्रवृत्ति नहीं होती । अथवा यों कहिये कि जीविनी शक्तिका कोई व्यवहार या व्यापार देखनेमें नहीं आता । सुस इसलिये नहीं कहा जाता कि विषयके अग्रहणमें उनके निद्राकी परवशता-जैसा कोई कारण नहीं है। और जानव इसलिये नहीं कहा जाता कि निद्राका अस्तित्व अथवा उदय न होनेसे उपयोगकी स्वतंत्रताके होते हुए भी वह उनके उन्मुख नहीं होता तत्वज्ञान और वैराग्यके ही सम्मुख बना रहता है-उपयोगकी अनुपस्थितिमें इन्द्रियाँ सुप्त न । होते हुए भी जागृतावस्था-जैसा कोई काम नहीं कर पातीं। विशद-ज्ञान-सन्ताने संस्कारो द्वोध-रोधिनि । जाग्रत्यजाग्रस्मृत्यादेः किं स्मरेत्कल्पनापि मे ५३ १ संकल्प-विकल्प । २ सति । ३ यद्यजाग्रत् । ४ द्वितीयार्थे षष्ठी। ५ वाह्यवस्तु प्रति किं स्मरेत् ? अपि न ! : कल्पना परिणतिक ीं
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अध्यात्म-रहस्य
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'सस्कारांके उद्बोधका निरोध करनेवाले विशदज्ञानकी सन्ततिके जाग्रत होनेपर यदि (किसी समय ) स्मरणादिविषयक मेरी कोई कल्पना जाग भी उठे तो वह क्या स्मरण करेगी ? कुछ भी स्मरण न कर सकेगी।'
व्याख्या - पुरातन - संस्कारोंके जाग उठने से जो संकल्पविकल्प चित्तमें उत्पन्न हुआ करते हैं उनको रोकनेवाले निर्मल ज्ञानकी सन्ततिके अन्तःकरण में जागृत होनेपर यदि किसी बाह्य वस्तुके प्रति स्मरणकी कोई कल्पना भी किसी समय जाग उठे तो क्या वह कल्पनास्थित स्मृति किसी वस्तुका स्मरण करेगी ? नहीं करेगी; किन्तु अन्तरंग में शुद्ध उपयोगकी धारा वरावर अविच्छिन्न रूपसे प्रवाहित हारी रहेगी ।
स्वानुभूतिकी वृद्धिके लिये भावना
निश्चित्यानुभवन् हेयं स्वानुभूत्यै बहिस्त्यजन् । श्रादेयं चाददानः स्यां भोक्तृ ' रत्नत्रयात्मकः ॥ ५४ 'स्वानुभूतिकी उत्तरोत्तर विशेषप्राप्ति के लिये मैं निश्चित रूपसे अपने आपको अनुभव करता हुआ हेयको, जो मेरे स्वरूपसे वाह्य है, छोड़ कर आयको, जो मेरा स्वरूप है, ग्रहण कर रत्नत्रयात्मक निजभावका भोक्ता बनू ( ऐसी मेरी भावना है) ।'
१ निजचैतन्यभावस्य भोक्ता अहं भवेयम् ।
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सन्मति - विद्या- प्रकाशमाला
व्याख्या– स्वानुभूतिकी वृद्धिके लिये शुद्ध-स्वात्मा निरन्तर यह भावना किया करता है कि मैं राग-द्वेषादिरूप हेयका त्याग और चिदानन्दरूप आदेयका' ग्रहण करता हुआ अपने रत्नत्रयात्मक शुद्धस्वरूपका भोक्ता बनूँ; क्यांकि के त्याग और आदेयके ग्रहण- विना आत्मा अपने शुद्धस्वरूपका भोक्ता नहीं बन सकता । शुद्धोपयोगका क्रम-निर्देश हित्वोपयोगमशुभं श्रुताभ्यासाच्छुभं श्रितः । शुद्धमेवाधितिष्ठेयं श्रेष्ठा निष्ठा हि सैव मे ॥५५
६४
'मैं, श्रुताम्यासके द्वारा शुभ उपयोगका आश्रय कर्ता हुआ, शुद्ध उपयोगमें ही अधिकाधिक स्थिर रहूँ, यही मेरी श्रेष्ठ - निष्ठा - श्रद्धाअ थवा धारणा - है ।'
व्याख्या – यहाँ शुद्ध-स्वात्माकी उस ~ श्रेष्ठ - निष्ठाका उल्लेख है जो अशुभ उपयोगको त्याग कर शास्त्राभ्यासके द्वारा शुभ-उपयोगका आश्रय लेते हुए शुद्धोपयोगमें ही अधिक स्थित रहने की रहती है। इसके द्वारा शुद्धोपयोगके क्रमका भी निर्देश हो जाता है और वह यह है कि पहले अशुमोपयोगका त्याग किया जाता है, दूसरे शुभोपयोगका
• आश्रय लिया जाता है, जो कि शास्त्राभ्यास - ( स्वाध्याय) -
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-के द्वारा सबसे अधिक ठीक बनता है; तीसरे शुद्धोपयोगमें
प्रवृत्ति तथा उसमें अधिक स्थिर रहने की भावना की जाती
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अध्यात्मरहस्य है। अशुभ-भावोंके त्याग और शुम-भावोंमें प्रवृत्तिके विना शुद्धोपयोग बनता ही नहीं। शुद्धोपयोग ही नहीं किन्तु सामान्य चारित्र भी नहीं बनता; क्योंकि अशुभसे विनिवृत्ति तथा शुभमें प्रवृत्तिका नाम व्यवहार चारित्र है, जो कि व्रत, समिति तथा गुप्तिरूप है; जैसा कि श्रीनेमिचन्द्राचार्यके द्रव्यसंग्रहकी निम्न गाथासे प्रकट है
असुहादो विणिवित्ती सुद्दे पवित्ती य जाण चारित्तं । बद-समिदि-गुत्तिरूव ववहारणया दु जिणभणियं ॥
अशुभ, शुभ और शुद्ध उपयोगोका स्वरूप उपयोगोशुभो राग-द्वेष-मोहैः क्रियात्मनः। शुभःकेवलिधर्मानुरागाच्छुद्धःस्वचिल्लयात् ५६ __'राग-द्वेप-मोहके द्वारा आत्माकी जो क्रिया-परिणति होती है वह अशुभ उपयोग है; केवलि-प्रणीत-धर्ममें अनुगण रखनेसे जो आत्माको परिणति होती है वह शुभ उपयोग है और अपने चैतन्यस्वरूपमें लीन होनेसे आत्माकी जो परिणति बनती है वह शुद्ध उपयोग है।
व्याख्या-यहाँ अशुभ, शुभ और शुद्ध तीनों प्रकारके उपयोगोंका स्वरूप दिया है । राग, द्वेष और मोहके साथ जो आत्माकी खुली परिणति है-उमका-नाम-अशुभोयोम है; केवलि-द्वारा प्रणीत हुए मुनि तथा श्रावक धर्मके
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२.मिति-विद्या प्रकाशमाला अनुरागको लेकर जो आत्मपरिणति है वह शुभोपयोग है और अपने चैतन्य-स्वरूपमें लीनतारूपसे जो आत्मपरिणति है उसको शुद्धोपयोग समझना चाहिये।
शुद्धात्माकी भावनाका फल स एवाहं स एवाहमिति भावयतो मुहुः। योगः स्यात्कोपि निःशब्दः शुद्धस्वात्मनि यो लयः ___ 'वही शुद्धस्वरूप मै हूँ, वही शुद्धस्वरूप मैं हूँ, इस प्रकार बार-बार भावना करनेवाले आत्माके शुद्ध स्वात्मामें जो लय बनता है वह कोई अनिर्वचनीय योग कहलाता है।
व्याख्या-'जो शुद्धस्वरूप परमात्मा है वही मैं हूँ इसकी वारवार दृढताके साथ भावना करते हुए शुद्धस्वात्मामें जो लीनता वनतीहै वह कोई ऐसा योग अथवा समाधिरूप ध्यान है जो वचनके अगोचर है-वचनके द्वारा उसके विषयमें विशेष कुछ कहा नहीं जा सकता; क्योंकि वचनमें उसको स्पष्ट करके बतलानेकी शक्ति ही नहीं। वह तो उस शुद्ध स्वात्माके द्वारा अनुमव किया जाता है जिसमें राग-द्वेषादिकी कल्लोलें नहीं उठतीं। जिसके मनमें राग-द्वेषादिकी कल्लोलें उठ रही हों वह 'मनुष्य तो आत्म-तत्वका दर्शन ही नहीं कर पाता जैसा * सोऽहमित्यात्तसंस्कारस्वस्मिन्मावनया पुनः। तत्रैव दृढसंस्काराल्लमते ह्यात्मनि स्थिति ॥२८॥ (समाधितंत्र)
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अध्यात्म-रहस्य कि श्रीपूज्यपादाचार्यके निम्न वाक्यसे प्रकट है:
रागद्वेषादि-कल्लोलैरलोलं यन्मनो जलम् । स पश्यत्यात्मनस्तत्त्व वत्तत्त्व नेतरो जनः ॥३५॥(समाधितंत्र)
शुद्धात्मस्वरूपमे लीन योगीकी निर्भयता शुद्ध-बुद्ध-स्वचिद्रूप एव लीनः कुतोऽपि न । बिभेति परमानन्द एव विन्दति भावकम् ॥५८॥
'शुद्ध-बुद्ध-स्वचिद्रूप परमानन्दमें लीन हुआ योगी किसीसे भी भयको पास नहीं होता । किन्तु वह निर्भय हुआ भावकका-परमानन्दका-ही अनुभव करता रहता है।'
व्याख्या-यहाँ अपने शुद्ध-बुद्ध-चिदानन्दमयी रूपमें लीन होनेके फलको दर्शाया है और यह बतलाया है कि.ऐसा स्वात्मलीन योगी किसीसे भी भयको प्राप्त नहीं होता--- चाहे किसीके द्वारा कैसा भी उपद्रव क्यों न किया जाता हो-वह परमानन्दरूप आत्मरसका ही आस्वादन करता रहता है। ___ यहाँ जिस 'परमानन्द'का उल्लेख है उसके विषयमें श्रीपूज्यपादाचार्यके इष्टोपदेश-गत निम्न दो वाक्य खास तौरसे ध्यानमें लेने योग्य हैं:
आत्माऽनुष्ठान-निष्ठस्य व्यवहार-बहिस्थितेः। जायते परमानन्दः कश्चिद् योगेन योगिनः ॥४७॥ १ परमानन्दम् ।
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सन्मति-विद्या प्रकाशमाला .. .. ... आनन्दो निहल्यनं कर्मेन्धनमनारतम् । ..... न चाऽसौ खियते योगी वहिदुखवचेतनः ॥४i .,
इनमें बतलाया है कि 'जो आत्माके अनुष्ठानमें-आत्माको देहादिकसे मिन्न करके आत्मामें ही अवस्थापित करनेमें-तत्पर है और प्रवृत्ति-निवृत्ति अथवा ग्रहण-त्यागरूप , व्यवहारसे बाह्य है उस ध्याता योगीके स्वात्मध्यानरूप
योगके कारण कोई ऐसा अनिर्वचनीय आनन्द उत्पन्न 'होता है जो परम है-अन्यत्र असंभव है । यह परमानन्द प्रचुर कर्मसन्ततिको उसी तरह जला डालता है जिस तरह कि अग्नि ईधनको । ऐसा परमानन्द-मग्न योगी-ध्यानी 'बाह्य दुःखोंमें-परीषह, उपसर्ग तथा क्लेशादिकोंमें'अचेतन रहता है-~-उमे उनका अनुभव नहीं होता और इसलिये वह खेद अथवा संक्लेशको प्राप्त नहीं होता है।
जीवन्मुक्तिकी ओर अग्रसरता तटैकाग्रय पर प्राप्ती निरुन्धनशुभासवम।'
क्षपयनर्जितं चैनो जीवन्नप्यस्ति निवृतिः॥५६ • ''उस परमैकाग्रताको प्राप्त हुआ तथा अशुभासवको 'रोकता हुआ और उपार्जित पापको क्षय करता हुआ,(योगी) जीवित रहता हुआ भी निवृत है-जीवन्मुक्त है।' * एकाग्र-चिन्तामोधो यः परिस्पन्देन वर्जितः। .. तद्ध्यानं निर्जरा-हेतुः संवरस्य च कारणम् । (तत्वानु० ५६)
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अध्यात्म-रहस्य व्याख्या-जो योगी उक्त प्रकारकी परम-एकाग्रताको प्राप्त होता है उसके सब अशुभ श्रास्रव रुक जाते हैं, अर्जित पापोंका नाश हो जाता है और इस प्रकार वह जीवन्मुक्त-अवस्थाको प्राप्त होता है। जीवन्मुक्त-अवस्थाको प्राप्त करानेवाली यह परम-एकाग्रता शुक्लध्यानकी एकाग्रता है. जिससे मोहनीय, ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय नामके चार घातियाकर्म जलकर भस्म हो जाते हैं। वस्तुतः ध्यानकी इस एकाग्रतामें बहुत बड़ी शक्ति है । इसीसे ध्यानको संवर तथा निर्जराका हेतु बतलाया गया है।
त्रिविधकर्मके त्यागकी भावना यद्भावकर्मरागादि यज्ज्ञानावरणादि तत् । द्रव्यकर्म यदङ्गादि नोकर्मोन्झामि तद् बहिः॥६० _'जो रागादिरूप भावकर्म हैं, जो ज्ञानावरणादिरूप द्रव्यकर्म हैं और जो शरीरादिरूप नोकर्म हैं वे सव (मेरे स्वरूपसे) वाह्य पदार्थ हैं, उन्हें में छोड़ता हूँ-उनसे उपेक्षा धारण करता हूँ।' ___ व्याख्या-यहाँ रागादि भावकर्म, ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्म और शरीरादि नोकर्मरूप तीनों ही प्रकारके कर्मोको यह समझकर त्यागनेकी भावना की गई है कि वे मेरे स्वरूपसे वाह्य हैं । इस प्रकारकी हार्दिक भावना एवं तदनुकूल प्रवृत्तिसे कर्मों तथा उनसे उत्पन्न होनेवाले
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सन्मति-विद्या-प्रकाशमाला कार्यों अथवा कर्म-फलोंमें आसक्ति घटती है और एक दिन उन सबसे निवृत्तिकी भी प्राप्ति हो जाती है।
भावकर्मका स्वरूप भाव्यते ऽभीक्ष्णमिष्टार्थ-पीत्याद्यात्मतयात्मना। वेद्यते यत्करोतीमं यद्वशेष भावकर्म तत् ॥६१॥
'जो निरन्तर इट अर्थकी प्रोति (राग) आदिके रूपसे आत्माके द्वारा अनुभव किया जाता है और जिसके । वशवर्ती होने पर संसारी जीव राग-द्वेषादिरूप प्रवृत्ति करता है, वह 'भावकम है।
व्याख्या-राग-द्वेप-काम-क्रोधादिके रूपमें जिसे सदा अनुभव किया जाता है उसको तथा कर्मरूप परिणत पुद्गल पिण्डकी उस शक्तिको भावकर्म कहते हैं जिसके वश यह नीव रागादिकका कर्ता होता है । गोम्मटसार-कर्मकाण्डकी छठी गाथामें द्रव्यकर्म और भावकर्मका स्वरूप बतलाते हुए "पोग्गलपिंडो दवं तस्सत्ती भावकम्मं तु" यह वाक्य दिया है और गाथाकी टीकामें लिखा है_ "प्रागुक्तं सामान्यकर्म कर्मत्वेन एकं तु पुनः द्रव्य-भाव-भेदाद् द्विविधं । तत्र द्रव्यकर्म पुद्गलपिण्डो भवति । पिंडगतशक्तिः कार्ये कारणोपचारात् शक्तिजनिताऽज्ञानादिर्वा मावकर्म भवति।"
इससे मालूम होता है कि ज्ञानावरादि-द्रव्यकर्मरूप१वेद्यते । २ सति।
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अध्यात्म-रहस्य.
परिणत पुद्गल पिण्डमें जो अज्ञान तथा रागद्वेषादिरूप फलदानकी शक्ति है उसीका नाम वस्तुतः भावकर्म है, रागादिकको जो भावकर्म कहा जाता है वह कार्यमें कारणके उपचारकी दृष्टिसे है। .
द्रव्यकर्मका स्वरूप बोधरोधादिरूपेण बहुधा पुद्गलात्मना । विकायति चिदात्मापि येनात्मा द्रव्यकर्म तत्॥ _ 'जिस ज्ञानावरणादिरूप पुद्गलात्मक कर्मके द्वारा चैतन्य स्वरूप होते हुए भी आत्मा बहुधा विरूपक होता हैकर्मानुरूपास्थाको धारण करता है--वह 'द्रव्यकर्म' है।
व्याख्या-उस पुद्गल-प्रचयका वाम 'द्रव्यकर्म' है जो आत्माके ज्ञानादि गुणोंको आवृत अथवा विकृत करनेकी शक्ति एवं प्रकृतिसे सम्पन्न होता है और अपनी इस प्रकृति के अनुरूप ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय, अन्तराय, वेदनीय, नाम, गोत्र, आयु ऐसे आठ मूल-मेदोंमें विभक्त है-जिनके उत्तरोत्तर भेद असंख्य है-और जिसके साथ बंधको प्राप्त होनेसे यह चैतन्यस्वरूप आत्मा मी बहुधा विकारको प्राप्त होता है-अपने स्वरूपसे च्युत होकर उस कर्मके अनुसार प्रवृत्ति किया करता है । इस द्रव्यकर्मके मेद-प्रभेदों, बंध, सन्च, उदय-उदीरणा,संक्रमण, १ पुद्गलस्वभावेन । २ विरूपको(कर्मरूपो) भवति । ३ कर्मणा।
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सन्मति -विद्या-प्रकाशमाला
उत्कर्षण, अपकर्षण और फलादिके वर्णनोंसे ग्रंथ मरे हुए हैं । अतः इस विपयकी विशेष जानकारीके लिये षट्खंडागम, कसायपाहुड, धवल, जयधवल, महाबन्ध, कम्मपयडी, गोम्मटसार और पंचसंग्रह जैसे ग्रन्थोंको देखना चाहिये । नोकर्मका स्वरूप
यज्जीवेऽङ्गादि तद्वृद्धि-हान्यर्थ: पुद्गलोच्चयः । तथा विकुरुते कर्मवशान्नकर्म नाम तत् ॥६३॥
'जीवमें जो अंगादिक हैं उनकी वृद्धि हानिके लिये जो पुद्गल-समूह कर्मोदयवश तद्रूप विकारको प्राप्त होता है। उसका नाम 'नोकर्म' है ।'
व्याख्या -- संसारी जीवोंके शरीरों और पर्याप्तियोंकी पुष्टि तथा क्षीणतादिके निमित्त पुद्गल - परमाणुओं का जो समूह नामादि कर्मोंके उदयवश उन अंगादिकी पुष्टि आदि
रूपमें परिणमता है उसे 'नोकर्म' कहते हैं । 'नो' शब्द यहाँ अभाव अर्थका वाचक न होकर ईपत्, अल्प, लघु अथवा किंचित् अर्थका वाचक है। 'अंग' शब्दसे औदारिक, वैक्रियिक और आहारक इन तीन शरीरोंका श्रमिप्राय है और 'आदि' शब्द के द्वारा यहाँ पट् पर्याप्तियोंका ग्रहण विवचित है; क्योंकि श्रभयचन्द्रादि आचार्यांने 'तीन शरीर और छह पर्याप्तियोंके योग्य पुद्गल के परिणाम तथा
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अध्यात्म-रहस्य
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आदान (ग्रहण)को नोकर्म बतलाया है। जैसा कि निम्न वाक्योंसे प्रकट हैशरीरत्रय-पर्याप्तिषटक-योग्य-पुद्गलपरिणामो नोकर्म ।
• --लघीयस्त्रय-टीकायां, अभयचन्द्र: शरीरपर्याप्ति-योग्य-पुद्गलाऽऽदान नोकर्म । (न्यायकुमुदचन्द्र)
हेय और उपादेयका विवेक व्यवहारेण मे हेयमसद्ग्राह्य च सवहिः । सिद्धय निश्चयतोऽध्यात्म मिथ्येतरहगादिकम् ॥
'सिद्धिके अर्थ-स्वात्मोपलब्धिके लिये-मेरे व्यवहारनयकी अपेक्षा बाह्य-विषयक मिथ्यादर्शनादिक हेय (त्याज्य) है, जो कि असत् है; और बाह्य-विश्यक सम्यग्दर्शनादिक उपादेय (प्राय) हैं, जो कि सत् है। और निश्चयनयकी दृष्टिसे अध्यात्म-विषयक मिथ्यादर्शनादिक मेरे हेय हैं, जो कि असद हैं, और अध्यात्म-विषयक सम्यग्दर्शनादिक उपादेय है, जो कि सत् हैं।'
व्याख्या-यहाँ स्वात्मोपलब्धिरूप सिद्धिके लिये व्यवहार तथा निश्चय दोनों नयोंकी दृष्टिसे हेय तथा उपादेयका निर्देश किया गया है। दोनों ही नयोंकी दृष्टिसे यद्यपि मिथ्यादर्शन-ज्ञान-चारित्र हेय हैं-दुखका कारण होनेसे, और सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र उपादेय हैं-सुखका १ मिध्याहगादिकं हेय सम्यग्गादिकं प्रायम् ।
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सन्मति-विद्या प्रकाशमाला कारण होनेसे; फिर भी नयदृष्टिसे मिथ्यादर्शनादिके तथा सम्यग्दर्शनादिके विषयोंमें परस्पर अन्तर है । व्यवहारनयके विषयभूत मिथ्यादर्शनादिक तथा सम्यग्दर्शनादिक अध्यामसे भिन्न बाह्य-विषयोंसे सम्बन्ध रखते हैं; जैसे क्रुदेवागमगुरु आदिके श्रद्धानादिरूप मिथ्यादर्शनादिक तथा सुदेवागम गुरु या सप्ततचादिके श्रद्धानादिरूप सम्पग्दर्शनादिक ।
और निश्चयनयके विषयभूत मिथ्यादर्शनादिक तथा सम्यग्दर्शनादिक एकमात्र अपने आत्म-विषयसे सम्बन्ध रखते हैं--पर-पदार्थोके मिथ्या अथवा सम्यक श्रद्धानादिसे उनका सम्बन्ध नहीं है।
हेय और उपादेयके इस विवेकको तत्वानुशासनमें अच्छा खुलासा करके बतलाया गया है । अतः विशेष जानकारीके लिये उसे देखना चाहिये। न मे हेयं न चाऽऽदेयं किंचित्परमनिश्चयात् । तयत्नसाध्या वाऽयलसाध्या वा सिद्धिरस्तु मे।६५
(किन्तु) परमशुद्ध-निश्चयनयकी दृष्टिसे मेरे लिये न कुछ हेय है और न कुछ प्रादेय(प्राय)। मुझे तो सिद्धिस्वात्मोपलब्धि-चाहिये, चाहे वह यत्नसाध्य हो या अयत्नसाध्य-उपाय करनेसे मिले या विना उपायके ही।'
व्याख्या-यहाँ परमनिश्चयनयकी दृष्टिसे यह प्रतिपादन किया है कि मेरे लिये न कोई पदार्थ हेय है और न
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अध्यात्म - रहस्य
उपादेय । हेय इसलिये नहीं कि मेरे श्रात्मस्वरूपको कोई भी नपदार्थ अन्यथा करनेमें समर्थ नहीं, और उपादेय इसलिये नहीं कि कोई भी परपदार्थ मेरे स्वरूपमें किसी प्रकारकी वृद्धि करनेमें समर्थ नहीं है । मुझे तो स्वात्मोपलब्धिरूप सिद्धि चाहिये, चाहे वह यत्नसे मिलो या बिना यत्नके ही । यदि बिना यत्नके ही मिल जाय तो बहुत अच्छी बात है, अन्यथा यत्न करना ही होगा। उस यत्नमें उक्त नयदृष्टिसे किसीको हेय या उपादेय मानकर राग-द्वेष करने की मुझे जरूरत नहीं है ।
इस पद्य तथा इससे पूर्ववर्ती पद्यमें श्रीपूज्यपादाचार्य के निम्न पद्यकी दृष्टि अथवा भावको ही कुछ दूसरे शब्दोंमें, नयोंकी विवक्षा एवं बाह्य तथा आभ्यन्तर विषयकी स्पष्टताको साथमें लेते हुए, व्यक्त किया गया है
त्यागाऽऽदाने वर्हिमूढ. करोत्यध्यात्ममात्मवित् । नान्तर्बहिरुपादानं न त्यागो निष्ठितात्मन ॥ (स०त० ४७) इसमें बतलाया है कि 'देहादिक में आत्मबुद्धि रखनेवाला मूढ जन बाह्य वस्तुओं में ही त्याग और ग्रहणकी प्रवृत्ति करता है— उसके त्यागका कारण प्रायः द्वेषका उदय तथा अभिलापाका अभाव और ग्रहणका कारण प्रायः रागका उदय और अभिलाषाकी उत्पत्ति होता है; किन्तु श्रात्मज्ञानी अपने आत्मस्वरूपमें ही त्याग - ग्रहणकी प्रवृत्ति करता है
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सन्मति -विद्या-प्रकाशमाला
उसका त्याग राग-द्वेषादिका तथा अन्तर्जन्परूप - विकल्पका होता है, जो आत्मस्वरूपको मलिन क्रिये रहते हैं, और ग्रहण अपने शुद्धचिदानन्द-स्वरूपका होता है । परन्तु जो इन दोनों अवस्थाओंको-हिरात्म तथा अन्तरात्म- दशा
को-पार करके निष्ठितात्मा बन गया है – स्वात्मस्थित अथवा आत्मनिरत कृतकृत्य हो गया है— उसके लिये फिर वाह्य तथा आभ्यन्तर किसी भी प्रकारके त्याग - ग्रहणकी - कोई बात नहीं बनती अथवा नहीं रहती ।
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अहंकार-भवितव्यताके त्याग - ग्रहणकी प्रेरणा भवितव्यतां भगवती - १ मधियन्तु र रहन्त्वहं करोमीति । यदि सद्गुरूपदेश
व्यवसित- जिनशासनरहस्याः ॥ ६६ ॥
'यदि सद्गुरुके उपदेशसे' जिनशासन के रहस्यको आपने ठीक निश्चित किया है- समझा है - तो 'मैं करता हूँ' इस अहंकारपूर्ण कर्तृत्वकी भावनाको छोड़ो और भगवती भवितव्यताका आश्रय ग्रहण करो ।'
व्याख्या—यहाँ 'रहन्त्वहं करोमीति' वाक्य खास तौर से ध्यानमें लेने योग्य है । इसमें 'मैं करता हूँ' इस अहंकार
१ माहात्म्यवतीम् । २ श्राश्रयन्तु । ३२ त्यजन्तु ।.
· ·
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अध्यात्मरहस्य'.
७५ ......mor...wommerma orammar की मावचाके त्यागका उपदेश है। क्योंकि कोई भी कार्य अन्तरंग और बहिरंग अथवा उपादान और निमित्त इन दो मूल कारणोंके अपनी यथेष्ट अवस्थाओंमें मिले विना नहीं बनता और उन सब कारणों अथवा उन कारण-द्रव्योंकी उस उस अवस्थारूप तू स्वयं नहीं है और न उन पर-द्रव्योंको अपने रूप परिणमानेकी तुझमें शक्ति है-कोई भी द्रव्य अपने स्वभावको छोड़कर कभी दूसरे द्रव्यरूप परिणमता नहीं- तब तू अकेला उस कार्यका कर्ता कैसे हो सकता है ? नहीं हो सकता । अतः तेरा अहंकार व्यर्थ है, जो तुझे अपने स्वरूपसे भ्रान्त (गुमराह) रखकर पतनकी ओर ले जाता है । अथवा यों कहिये कि देहमें आत्मबुद्धि धारण कराकर संसारके दुःखोंका पात्र बनाता है। ऐसे ही अहंकारसे पीड़ित प्राणियोंको लच्य करके स्वामी समन्तभद्रने स्वयंभूस्तोत्रमें उन्हें अनीश्वर-असमर्थ बतलाते हुए निम्न वाक्य कहा है
अलव्यशक्तिर्भवितव्यतेयं हेतुद्वयाऽऽविष्कृत-कालिंगा।
अनीश्वरो जन्तुरहक्रियातः सहत्य कार्येष्विति साध्ववादी ॥ " ~ यहाँ कार्यमें कतत्वके अहंकारको त्यागनेकी बात कही गई है, न कि कार्यको',त्यागनेकी । कार्य तो किया जाना ही चाहिये; क्योंकि भवितव्यताका लक्षण भी वह कार्य है ॥ जो. : अन्तरंग और बहिरंग दोनों कारणोंके मिलनेसे
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सन्मति-विद्या प्रकाशमाला आविष्कृत होता है। बहिरंग कारण द्रव्य क्षेत्र-कालभावादिक रूपमें अनेक हुआ करते हैं, जिनमें तुम्हारा योग-दान भी एक कारण हो सकता है, और इसलिये योग्य-कारण-कलापके मिलापसे ही कार्य बनता हैकिसी अकेले अथवा एक ही कारणके वह. वशका नहींऔर इस प्रकारसे निष्पन्न होनेवाले कार्यका नाम भी भवितव्यता है। अथवा यों कहिये कि किसी कार्यके बननेविगड़नेके लिये तद्योग्य कारण-कलापके भावी मिलापका नाम भविव्यता है । यह नहीं हो सकता कि योग्य कारणकलाप मिले और कार्य न हो । इसीसे भवितव्यताको 'अलंध्यशक्ति' कहा है, जिसके लिये प्रकृत पद्यमें 'भगवती' शब्दका प्रयोग किया गया है। उसका यह अर्थ नहीं कि वाद्य तथा अन्तरंग दोनों प्रकारकी साधन-सामग्रीकी पूर्णता तो न हो और कार्य यों ही भवितव्यतावश वन जाय । इसीसे स्वामी समन्तभद्रने कार्योत्पत्तिमें इस उभय प्रकारकी साधनसामग्रीकी पूर्णताको द्रव्यगत स्वभावके रूपमें अति
आवश्यक बतलाया है। अन्यथा मोक्षकी कोई विधिव्यवस्था भी नहीं बन सकेगी; जैसा कि स्वामीजीके उक्त स्तोत्र-गत निम्न वाक्यसे प्रकट है:- . . बाह्य वरोपाधि समप्रतेय कार्येषु ते द्रव्यगतः स्वभावः । नैवाऽन्यथा मोक्षविधिश्च पुसा तेनामिवंधत्वमृषिर्बुधानी ॥
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अध्यात्म- रहस्य
ऐसी स्थिति में भवितव्यताका आश्रय लेनेका अभिप्राय इतना ही है कि स्वयं तत्परताके साथ कार्य करके उसे फलके लिये भवितव्यता पर छोड़ दो -- फलकी एपणा (अमिलापा ) से श्रातुर मत हो; क्योंकि इच्छित फलकी प्राप्ति उस सब साधन-सामग्रीकी पूर्णता पर अवलंबित है, जो तुम्हारे लेके वशकी नहीं है --तुम किसी द्रव्यके स्वभावको उससे पृथक नहीं कर सकते और न उसमें कोई नया स्वभाव उत्पन्न ही कर सकते हो । सब द्रव्योंका परिणमन उनके स्वभाव तथा उनकी परिस्थितियोंके अनुसार हुआ करता है। इसलिये कर्तृत्व-विपयमें तुम्हारा एकांगी अहंकार निःसार है।
यहाँ एक दृष्टान्त - द्वारा इस विपयको कुछ स्पष्ट किया जाता है। मोहनका हृदय सोहनके दुख-दारिद्र्यका परिचय पाकर द्रवीभूत होगया और उसने उसे एक अच्छी रकम दानमें देदी । दानकी रकमको पाकर सोहनकी दरिद्रता दूर हुई और वह अपनेको सुखी अनुभव करने लगा । इधर मोहनको यह अहंकार हो आया कि मैंने हो सोहनका दुख-दारिद्र्य दूर किया है और मैंने ही उसे सुखी बनाया है । परन्तु वह यह नहीं समझता कि उस दिन जो दान उसने दिया था वह दान उससे पहले क्यों नहीं 'दिया गया – सोहनकी 'वह दुख-दरिद्रावस्था तो महीनों
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सन्मति-विद्या-प्रकाशमाला से चल रही थी और उसका मोहनको कितना ही परिचय भी था, फिर भी सोहनका दुख-संकट मोचनके लिये मोहनके उस दानकी प्रवृत्ति उससे पहले नहीं हो सकी, जिसका कोई कारण तो होना ही चाहिये । और इसलिये कहना होगा कि या तो उससे पूर्व मोहनके दानान्तराय कर्मका उदय था-क्षयोपशम नहीं था, जिससे इच्छा रहते भी उमको दानमें प्रवृत्ति नहीं हो सकी; या उसे सोहनकी दुर्दशाका एसा परिचय प्राप्त नहीं हुआ था जिससे उसका हृदय दयासे द्रवीभूत होता और उसके फलस्वरूप दानकी भावना उत्पन्न होकर दानमें उसकी प्रवृत्ति होती; अथवा मोहनके भाग्यका उदय एवं लाभान्तराय कर्मका क्षयोपशम ही नहीं हुआ था, जिससे उसे उक्त धनकी पहलेसे' प्राप्ति होती-वह यही मोचता रहा कि 'यह दुःख-दारिद्र च कुछ दिनमें यों ही टल जायगा, क्यों किसीके आगे हाथ पसारा जाय ।' अन्तको जब दुःख-कट असह्य हो उठा और उधर सद्भाग्यका उदय हो आया-लाभान्तरायकर्मके क्षयोपशमने जोर पकड़ा-तब उसकी बुद्धि पलट गई और वह एक प्रभावशाली पुरुपको साथ लेकर मोहनके पास गया, जिसने सोहनकी सजनता और दुःखावस्थादिका ऐसा सजीव चित्र-प्रभावक-शब्दोंमें खींचकर मोहनके सामने रक्खा, जिससे उसका हृदय-एकदम पसीज गया और उसे उक्त
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अध्यात्म-रहस्य
१
प्रभावक पुरुपकी प्रेरणानुसार सोहनकी आर्थिक सहायता करते ही वन पड़ा। इस तरह मोहनके उस दिनके दानकार्यमें कितने कारणोंका योग जुड़ा, जिससे वह दानक्रिया सम्पन्न हो सकी, यह सहज ही जाना जा सकता है।
और इसलिये अकेले मोहनके यशका वह कार्य नहीं कहा जा सकता और न उसे ही उसका सारा श्रेय दिया ना सकता है। मोहनके उस ढानमें उसके दानान्तरायकर्मके क्षणोपरामादिके साथ मोहनके भाग्योदय एवं लाभान्तराय कमके क्षयोपशमादिका भी बहुत कुछ हाथ है। यदि वह न होता तो मोहन रुपयोंकी थैलियाँ ककर भी सोहनके विषयमें अपने उस दान-कार्यको चरितार्थ नहीं कर सकता था । इस सम्बन्धमें एक पुरानी कथा प्रसिद्ध है कि, किसी लकड़हारेके दुःख-कष्टसे द्रवीभूत होकर एक देवताने उसके , सामनेके मार्गमें कोई बहुमूल्य रत्न डाल दिया; परन्तु उसके भाग्यका उदय नहीं था और इसलिये उसी क्षण उसके हृदयमें यह भावना उत्पन्न हुई कि मै अन्धा होने पर भी मार्ग चल सकता हूँ या कि नहीं? और परीक्षणके लिये ऑख मीचकर चलते हुए वह उस बहुमूल्य रत्न पर पाँव रखता हुआ आगे निकल गया-उसे उस रत्नका लाभ नहीं हो सका । और एक दूसरे दरिद्री मनुष्यको ऐसे रत्नका लाम हुअा भी, तो उसने उससे दमड़ीके तेलकी
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सम्मति - विद्या प्रकाशमाला
बचतका लाभ समझा और वही लाभ उससे उठाया - अपने घर में उसे दीपकके स्थान पर प्रकाशके लिये रख दिया । इससे स्पष्ट है कि यदि किसीके भाग्यका उदय न हो तो दूसरा उसे क्या सहायता पहुँचा सकता है । रही सोहनको सुखी बनानेकी बात केवल धन देकर कोई किसीको सुखी नहीं बना सकता । धनका दुरुपयोग भी हो सकता है और वह विपत्तिका कारण भी वन सकता है । दानकी रात्रिको ही उस धनको चोर डाकू लेजा सकते थे और उसके कारण सोहन तथा उसके कुटुम्बीजनोंकी जानके लाले भी पड़ सकते थे । अतः एकमात्र दानकी उस रकमको सुखका कारण नहीं कहा जा सकता। सोहनके सुखी होनेका प्रमुख कारण उसके भाग्यका अथवा सातावेदनीय आदि शुभ कर्मो का उदय है, सुखमें बाधक अन्तरायादि कर्मोंका क्षयोपशम है, उसकी बुद्धिका विकास है, जिससे दानमें प्राप्त हुई उस रकमका वह सदुपयोग कर सका; और साथ ही उसके उन श्रात्म- दोषोंमें कमीका भी प्रभाव है जो उसे अशान्त तथा उद्विग्न बनाये हुए थे । ऐसी स्थिति में मोहनका सोहनको सुखी बनानेका अहंकार व्यर्थ है । वास्तवमें सुख पौद्गलिक घनका कोई गुण भी नहीं है। ऐसे प्रचुर धनके स्वामियोंको भी बहुधा दुखी देखने में आता है । सुख तो आत्माका निज गुण है और वह
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अध्यात्म-रहस्य
आत्म-शक्तियोंके विकास पर ही अपना आधार रखता है। __इसी दृष्टिको लेकर कर त्व-विषयके अहंकारकी नि:सारताको दूसरे कार्यों पर भी घटित कर लेना चाहिये। भवितव्यताका आश्रय लेनेकी दृष्टिको ऊपर स्पष्ट किया जा चुका है। इससे अधिक उसका यह आशय कदापि नहीं है कि जो कुछ होना है वह स्वयं हो रहेगा ऐसा समझकर सारे पुरुषार्थका त्याग करते हुए विल्कुल निष्क्रिय होकर वैठ जाना । ऐसा आशय लेना जिन-शासनके रहस्यको न समझनेके समान है, बडवत् आचारणके सदृश है और अपनी सारी विकास योजनाओं पर पानी फेर देनेके वराबर है । जिन-शासनमें ऐसे एकान्तके लिये कोई स्थान नहीं हैं। भवितव्यताका ऐसा एकान्त अर्थ ग्रहण करने पर हम अपने भोजनादिकी तय्यारीकी बात तो दूर रही, तय्यार भोजनको उदरस्थ भी नहीं कर सकेंगे--उसके लिये भी इच्छाके साथ हाथ-मुँहके पुरुषार्थकी-प्रयत्नकी जरूरत है। देवयोगसे प्राप्त हुई धनराशिको भी हण करने तथा उसका उपयोग करनेमें प्रवृत्त नहीं हो सकेंगे-उन सबके लिये भी सक्रिय होने तथा हस्त-पादादिकको हिलाकर कुछ प्रयत्ल करनेकी जरूरत पड़ती है। . भगवान् सर्वज्ञके ज्ञानमें जो कार्य जिस समय, जहाँ पर. जिसके द्वारा, जिस प्रकारसे होना झलका है वह उसी
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सन्मति-विद्या प्रकाशमाला समय, वहीं पर उसीसे द्वारा और उसी प्रकारसे सम्पन होगा, इस भविष्य-विषयक कथनसे भवितव्यताके उक्त आशयमें कोई अन्तर नहीं पड़ता; क्योंकि सर्वज्ञके ज्ञानमें उस कार्यके साथ उसका कारण-कलापभी झलका है, सर्वथा नियतिवाद अथवा निर्हेतुकी भवितव्यता, जो कि असम्भाव्य है, उस कथनका विषय ही नहीं है। इसके सिवाय सर्वज्ञके ज्ञानानुसार पदार्थोका परिणमन नहीं होता, किन्तु पदार्थोंके परिणमनानुसार सर्वज्ञके ज्ञानमें परिणमन अथवा झलकाव होता है-ज्ञान ज्ञेयाकार है न कि ज्ञेय ज्ञानाकार । साथ ही, सर्वज्ञके ज्ञानमें क्या कुछ होना झलका है उसका अपनेको कोई परिचय नहीं है, न उसको जाननेका अपने पास कोई साधन ही है और इसलिये सर्वज्ञके ज्ञानमें झलकना न झलकना अपने लिये समान है- कोई कार्यकारी नहीं। ऐसी स्थितिमें भवितव्यताके उक्त कथनसे पुरुषार्थ-हीनता, अनुद्योग तथा आलस्यका कोई पोषण नहीं होता और न उन्हें वस्तुतः किसी प्रकारका कोई प्रोत्साहनही मिलता है।
मूल पधमें जिनशासनके रहस्यको अधिगत करनेके फलस्वरूप अहंकृतिके त्याग तथा भवितव्यताका आश्रय लेनेकी बात कही गई है, इसीसे जिनशासनकी दृष्टिके साथ इस विषयको इतना स्पष्ट करके बतलानेकी जरूरत पड़ा है। जिससे वद्विरुद्ध कोई गलत धारणा कहीं जड़ान पकड़ सके,
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洽
अध्यात्म-रहस्य
उपादेयरूपमें जिन सम्यग्दर्शनादिककी विज्ञप्ति ६४वें पद्यमें की गई थी उनका क्रमशः स्वरूप निश्चय और व्यवहार दोनों नयोंकी दृष्टिसे आगे दिया जाता है । व्यवहार और निश्चय सम्यग्दर्शनका स्वरूप
शुद्ध-बुद्ध-स्व चिद्रपादन्यस्याभिमुखी रुचिः । व्यवहारेण सम्यक्त्वं निश्चयेन तथाऽऽत्मनः ॥६७ 'आत्माकी अपने शुद्ध बुद्ध - चिद्रपसे भिन्न जो अन्यामिमुखी - द्रव्यों तथा सप्ततच्चादिके अभिमुख - रुचि है वह व्यवहारनयसे सम्यक्त्व (सम्यग्दर्शन) है; निश्चयनयसे उस आत्माभिमुखी रुचिका नाम सम्यक्त्व है जो अपने शुद्ध-बुद्ध- चिद्रूपकी ओर प्रवृत्त होती है ।
व्याख्या - यहाँ व्यवहार तथा निश्चयनय की दृष्टिसे सम्यक्त्वका - सम्यग्दर्शनका - स्वरूप दिया है। आत्माकी उस रुचि - प्रतीतिका नाम व्यवहारसम्यग्दर्शन है जो अपने शुद्धबुद्ध- चिद्रपसे भिन्न जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल नामके छह द्रव्यों तथा जीव, अजीव, आसव, बन्ध, संबर, निर्जरा और मोक्ष नामके सप्त तच्चों अथवा पुण्यपाप-सहित नव पदार्थों आदि के अभिमुख रहती है- मुख्यतः उन्हें ही अपना विषय बनाये रखती है - और निश्चयसम्यग्दर्शन आत्माकी उस स्वात्माभिमुखी रुचिका नाम है जो मुख्यतः अपने शुद्ध-युद्ध - चिद्रूपकी ओर प्रवृत्त होती है
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८६ सन्मति-विद्या प्रकाशमाला --उसे ही अपना विषय बनाये रखती है, दूसरे पदार्थ उसकी दृष्टिमें गौण होते हैं।
. निश्चय और व्यवहार सम्यग्ज्ञानका स्वरूप निर्विकल्प-स्वसंवित्तिरनर्पित-परग्रहा। सज्ज्ञानं निश्चयादुक्तं व्यवहारनयात्परम् ॥६८ ___'पर-पदार्थोके ग्रहणको गौण किये हुए निर्विकल्प स्वसंवेदनको निश्चयनयकी दृष्टिसे 'सम्यग्ज्ञान' कहा गया है, और व्यवहारनयसे पर-पदार्थोके ग्रहणरूप सविकल्प ज्ञानको 'सम्यग्ज्ञान' कहा गया है।'
व्याख्या-निश्चयनयसे उस निर्विकल्प-स्वसंवेदनका नाम सम्यग्ज्ञान है जो स्वात्मासे भिन्न परपदार्थोके ग्रहणको गौण किये रहता है, और व्यवहारनयसे सम्यग्ज्ञान उस सविकल्पज्ञानका नाम है जो पर-पदार्थोके ज्ञानको मुख्य किये रहता है। यों स्व-परका ज्ञान दोनों ही प्रकारके सम्यग्ज्ञानोंका विषय है, चाहे वह सविकल्प हो या निर्विकल्प । विकल्प नाम मेद, विशेष, तथा पर्यायका है, जो इससे युक्त वह सविकल्प और जो इससे रहित है वह निर्विकल्प कहा जाता है।
सविकल्प ज्ञानका स्वरूप यदेव ज्ञानमर्थेन संसृष्टं प्रतिपद्यते। वाचकत्वेन शब्दः स्यात्तदेव सविकल्पकम् ॥६६
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अध्यात्म-रहस्य
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'जो ज्ञान पदार्थके साथ संसष्ट-संमिश्रित-रूपसे प्राप्त होता है उसका वाचक शब्द होनेसे वही ज्ञान सविकल्प उहरता है।'
व्याख्या-यहाँ सविकल्पज्ञानकी पहिचानके लिये दो बातोंका निर्देश किया है-एक तो यह कि, वह शुद्ध स्वामासे भिन्न किसी दूसरे पदार्थक साथ भी संसर्गको प्राप्त हो रहा हो, और दूसरे यह कि वह शब्दके वाच्यरूपमें स्थित हो-किसी शब्द या शब्द-समूहका विषय बना हुआ हो।
व्यवहार और निश्चय सम्यकचारित्रका स्वरूप सवृत्तं सर्वसावद्य-योग-व्यावृत्तिरात्मनः । गौणं स्यावृत्तिरानन्द-सान्द्रा कर्मच्छिदाञ्जसा ७० ___ 'आत्माकी सर्व-सावध-योगसे जो व्यावृत्ति (निवृत्ति) है उसका नाम गौण अथवा व्यवहार सम्यक्चारित्र है, और जो कर्मके छेदनसे उत्पन्न होनेवाली आनन्द-सान्द्रापरमानन्दमय-वृत्ति है उसका नाम अंजसा (मुख्य) अथवा निश्चय सम्यक चारित्र है।
व्याख्या-मन-वचन-कायके द्वारा किये जानेवाले हिंसादिक सभी पापकाँसे आत्माकी जो निवृत्ति है उसका नाम व्यवहार सम्यक्चारित्र है। और जो काँके नाशसे १व्यवहारम्।
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सन्मति -विद्या-प्रकाशमाला
उत्पन्न होनेवाली श्रात्माकी परमानन्दमय वृद्धि है उसका नाम निश्चय (अंजसा ) सम्यक्चारित्र है । व्यवहार सम्यक् - चारित्रको गौणचारित्र और निश्चय सम्यक् चारित्रको मुख्यचारित्र भी कहा जाता है ।
उभयरूप रत्नत्रयके कल्याणकारित्वकी घोषणा तत्त्वार्थाभिनिभेश-निर्णय- तपश्चेष्टामयीमात्मनः शुद्धिं लब्धिवशाद्भजन्ति विकलां यद्यच्च पूर्णामपि । स्वात्म - प्रत्यय - वित्ति-तल्लयमयों तद्भव्यसिंह-प्रियां भूयाद्वो व्यवहार- निश्चयमयं रत्नत्रयं श्रेयसे ॥७१
'जो जीव काल आदि किसी लब्धिके वशसे तत्त्वार्थके अभिनिवेशरूप-श्रद्धात्मक शुद्धिको, तत्त्वार्थके निर्णयरूपसम्यग्ज्ञानात्मक शुद्धिको और तपश्चरणमयी सम्यक्चारित्ररूप-शुद्धिको, जो कि सब विकल-व्यवहाररूप अपूर्ण है, धारण करते हैं वे स्वात्मप्रत्यय – निजात्मप्रतीतिरूप सम्यग्दर्शन, स्वात्मवित्ति - निनात्मज्ञानरूप सम्यग्ज्ञान और तल्लयमयी --- निजात्मनिमग्नतारूप सम्यक् चारित्रमयी उस पूर्ण-श्रात्मशुद्धिको प्राप्त करते हैं जो कि भव्यसिंहोंभव्योचमोंकी प्रिया है— उन्हें अति प्यारी है। इस प्रकार यह व्यवहार और निश्चयरूप रत्नत्रय धर्म तुम्हारे कल्याणके लिये होवे ।'
१ व्यवहाररूपां पूर्णामित्यर्थः ।
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अध्यात्म-रहस्य
व्याख्या-यहाँ ग्रन्थका उपसंहार करते हुए रत्नत्रयधर्मके व्यवहार और निश्चय दोनों रूपोंका एक साथ उल्लेख किया है और यह प्रतिपादन किया है कि जो जीव काललब्धि श्रादिके वश व्यवहार-रत्नत्रयको धारण कर अपूर्णशुद्धिको प्राप्त होते हैं वे निश्चय-रत्नत्रयके बलपर पूर्णशुद्धिको भी प्राप्त होते हैं । अन्तमें शुद्धिप्रिय-भव्यजीवोंको यह आशीर्वाद दिया है कि 'यह व्यवहार और निश्चयरूप रत्नत्रयधर्म तुम्हारा कल्याण करे ।
इस पद्यसे जहाँ व्यवहार तथा निश्चय रत्नत्रयका तुलनात्मक स्वरूप स्पष्ट होता है वहाँ यह भी स्पष्ट होता है कि रत्नत्रयके दोनों ही रूप आत्मशुद्धिके कारण हैंएकसे अपूर्ण शुद्धि बनती है तो दूसरेरो पूर्ण । अपूर्णसे पूर्णकी ओर गमन होता है अथवा अल्पशुद्धिके द्वारा ही महती शुद्धिकी साधना वनती है, इस दृष्टिसे व्यवहार रत्नत्रयको यहाँ प्रथम स्थान दिया गया है, तदनन्तर निश्चय रत्नत्रयको रक्खा गया है और दोनोंको एक ही धर्मके अंगरूपमें प्रतिपादन करते हुए दोनोंको ही कल्याणकारी घोषित किया है।
व्यवहार-रत्नत्रय निश्चय-रत्नत्रयका साधन है, इस विषयमें श्रीरामसेनाचार्यका निम्न वाक्य खास तौरसे ध्यानमें लेने योग्य है, जिसमें मोक्षके हेतुभूत व्यवहार-रत्नत्रय
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सन्मति-विद्या प्रकाशमाला
को निश्चय-रत्नत्रयका साधन बतलाया है और इससे यह स्पष्ट है कि व्यवहार सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रके विना निश्चय सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रकी सिद्धि नहीं हो सकती। इसलिये निश्चय तथा व्यवहार दोनों ही रत्नत्रय अपनी अपनी नय दृष्टिसे मोक्षके हेतु हैं । और इसीसे दोनोंको ही यहाँ कल्याणकारी घोपित किया गया है
मोक्ष-हेतुः पुनद्वैधा निश्चयाद्-व्यवहारतः। तत्राऽऽद्यः साध्यरूपः स्याद् द्वितीयस्तस्य साधनम् ॥
-तत्वानुशासन २८ हृदयमै परब्रह्मरूपके स्फुरणको भावना . शश्वच्चेतयते यदुत्सवमयं ध्यायन्ति यद्योगिनो येन प्राणिति विश्वमिन्द्रनिकरा यस्मै नमः कुर्वते । वैचित्री जगतो यतोस्ति पदवी यस्यान्तर-प्रत्ययो मुक्तिर्यत्र लयस्तदस्तुमनसि स्फूर्जत्परब्रह्म मे ॥७२
'नो निरन्तर आनन्दमय-चैतन्यरूपसे प्रकाशित रहता है, जिसको योगी जन ध्याते हैं, जिसके द्वारा यह विश्व प्राणित होता है, जिसे इन्द्रोंका समूह नमस्कार करता है, जिससे जगवकी विचित्रता विहित अथवा व्यवस्थित होती है, जिसका आन्तर प्रत्यय-हार्दिक श्रद्धान-पदवी (मार्ग) है
और जिसमें लय होना मुक्ति है। ऐसा वह परमब्रह्म मेरे मनमें (सदा) स्फुरायमान रहो।
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अध्यात्म-रहस्य
व्याख्या-यहाँ ग्रन्थके अन्तमें मंगलरूपसे उस परमब्रह्मका-परमविशुद्धिको प्राप्त सच्चिदानन्दमय-परमात्माकास्मरण किया गया है जो आनन्दके साथ अपने चैतन्यप्रकाशसे सदा ही प्रकाशमान है-कभी प्रकाशकी मन्दता या विकृतिको प्राप्त नहीं होता-,जिसको योगी जन आत्मचिन्तनके लिये सदा अपने ध्यानका विषय बनाते हैं, जिससे विश्व आत्म-विकासकी प्रेरणा प्राप्त करता है, जिसके लिये इन्द्रके समूह तक नतमस्तक होते हैं, जिसकी अनेकता एवं विविध-रूपतासे जगतकी विचित्रता सुघटित होती है-अन्यथा जगतसे जिसका (चिदात्माका) सम्बन्ध अलग होने पर जगतमें फिर कोई खास विचित्रता या विशेषता नहीं रहती-, जिसकी हार्दिक श्रद्धा आत्म-विकासका मार्ग है और जिसमें लीन होना मुक्ति है। साथ ही, यह भावना भी की है कि ऐसा परमब्रह्मरूप सर्वज्ञस्यों मेरे हृदयमें सदा स्फुरित रहे-उसका प्रकाश मुझे वरावर मिलता रहे।
अनगारधर्मामृतके ११वें पद्यकी स्वोपज्ञटीकामे 'ब्रह्मवद्वान्त्वहर्दिवम्' वाक्यका अर्थ देते हुए ग्रंथकारने 'ब्रह्मवत्' पदका अर्थ 'सर्वज्ञतुल्यम्' दिया है, और इस लिए यहाँ भी 'ब्रह्म शब्दको सर्वज्ञका वाचक समझना चाहिये-केवलज्ञानमय सर्वज्ञ ही परमप्रकाशरूप परमब्रह्म है।
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K
सन्मति -विद्या- प्रकाशमाला
अन्त्य - मंगल कामना
सद्गुरु वीर - समन्तभद्र प्रणम् सुखदाई, जिनकी भक्ति - प्रसाद रुचिर - व्याख्या बन आई । आशा घर निजहत पढ़ें सुनहें जो भाई, श्रात्म-सुनिधि पहिचान रमें निजमें हर्पाई ॥१॥
यथाशक्ति युगवीरने, श्रागमके अनुसार । व्याख्या श्रात्म-रहस्यकी, रची स्व-पर-हितकार ॥२॥
इति श्री आचार्यकल्प - पंडित - श्राशाघर - विरचितं अध्यात्मरहस्याऽपरनाम - योगोद्दीपनशास्त्रं हिन्दी - व्याख्या- मंडितं समाप्तम् ।
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अध्यात्मरहस्यकी पद्यानुक्रमणी
अ, आ
अनन्तानन्तचिच्छक्ति- अमुहन्तमरज्यन्तअविद्या विद्यया मय्याअहमेवाऽहमित्यन्तअहमेवाहमित्यात्मआप्तोपज्ञमहष्टेप्ट
५७ | नमः सद्गुरवे तस्मै
न मे हेयं न चादेयं निजलक्षणतो लक्ष्य निर्विकल्पस्वसंवित्ति
निश्चियात् सच्चिदानन्द- ४१ १३ निश्चित्याऽनुभवन् हेयं ६३
उपयोगश्चितः स्वार्थ
बन्धतः सुगती खायः ४० उपयोगोऽशुभो राग
बुद्धयाऽऽधानाच्छ्रद्दधानः २७ एकमेकक्षणे सिद्धं
बोध-रोधादिरूपेण ग, च
भ, म गुणपर्यायवद्रव्य
भवितव्यतां भगवती चेतनोऽहमिति द्रव्ये
भव्येभ्यो भजमानेभ्यो तत्त्वविज्ञान-वैराग्य
भावयेच्छुद्रचिद्रूप
३७ तत्त्वार्थाभिनिवेशनिर्णय- ५ भाव्यतेऽभीरणमिष्टार्थ- ७० तदर्थमेव मथ्येत २३ मामेवाऽहं तथा पश्यन् तदेव तस्मै कस्मैचित्
य तदैकापथ परं प्राप्तो ६८ यतीवेऽङ्गादि तवृद्धि- ७२ तस्य लक्षणमन्त - यथा जातु जगन्नाऽई
यथास्थितार्थान्पश्यन्ती दारादिवपुरप्येवं . ५६ | यदचेतत्तथानादिद्रव्य तथा सदा सर्व ४५ यदा यदधितिष्ठामि ध्वस्ते मोहतमस्यन्वर्डशा ५५ | यदेव ज्ञानमर्थेन
५४
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सन्मति-विद्या प्रकाशमाला
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पद्य
पृष्ठ पर यगिराऽभ्यस्यतः सा स्याद् २३ शुद्धबुद्धस्वचिद्रूपायद्भावकम रागादि ६६ / शुद्धः स्वात्मा यया साक्षा- २० यद्यदुल्लिखति स्वान्त ३२ शुद्धे श्रुति-मवि-ध्यातिययोलक्षणभेदस्तौ . ३५ श्रुत्या निरूपितः सम्यक् १८ यश्चक्रीन्द्राऽहमिन्द्रादियो न मुह्यति नो रज्यत्यपि
स एवाऽहं स एवाऽह
सवृत्तं सर्वसावधरत्नत्रयात्मस्वात्मैव
सन्तत्या वर्तते बुद्धिः रागः प्रेम रतिर्माया सन्नेवाऽई मया वेचे रूपित्वं पुद्गले धर्म समस्तवस्तुविस्तारा
सम्प्रत्यात्मतयाऽऽत्मानं वाग्गम्योऽनश्वरः स्थेयान् ४६ ) सर्वत्र काले सर्वेषां विशदज्ञान-सन्ताने | सर्वत्रार्थादुपेक्ष्येऽपि व्यवहारेण मे हेय- ७३ ] स विश्वरूपोऽनन्तार्था- ३३
स स्वात्मेत्युच्यते शश्वद् १०
सैव सर्वविकल्पानां शश्वच्चेतयते यदुत्सवमयं ६० ह शुद्धचिदानन्दमयं २६ / हित्वोपयोगमशुमं शुद्ध-बुद्ध-स्वचिद्रूप- ६७ हत्सरोजेऽष्टपत्रेऽधो
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व्याख्यामें उद्धृत वाक्योंकी अनुक्रमणी
पद्यादि पृष्ट पद्यादि अत एवाऽन्यशून्योपि ५५ | पोग्गलपिंडो दव्य । अलंध्यशक्तिर्भवितव्यतेयं ७७ प्रागुक्तं सामान्यकर्म० अविद्याभिदुर ज्योतिः २५ बहिरात्मा शरीरादौ असुहादो विणिवित्ती ६५ बहिरात्मेन्द्रियद्वार अंगति जानातीत्यप्रमात्मा । वाह्य तरोपाधिसमप्रतेयं आत्मज्ञानात्परं कार्य ३० ब्रह्मवदान्त्वहर्दिवम् आत्मानमन्यसंपृक्तं | मिन्नात्मानमुपास्यात्मा आत्मानुशननिष्ठस्य ६७ मतिः स्मृतिः संज्ञा० आनन्दो निर्दहत्यु ६८ मूल संसार-दु खस्य प्राप्तेनोत्सन्नदोषण १४ मोक्षहेतुः पुनधा इष्टे ध्येये स्थिरा बुद्धिः २०
| यत्पश्यामीन्द्रियैस्तन्मे उत्पाद-व्यय-प्रौव्य० ४३, ४६
यदचेतत्तथा पूर्व एकाग्र-चिन्तारोघो यः ६८
यदत्र चक्रिणा सौख्यं गुरुरात्माऽऽत्मनस्तस्मा- २४
(राग-द्वेष-निवृत्यैचरण चारित्तं खलु धम्मो १२
| रागद्वषादिकल्लोलेतत्र द्रव्यकर्म पुद्गलपिंडो ७० शरीरचयपर्याप्तिषटक सदाच परमैकाप्रथाद् ५५ शरीरपर्याप्तियोग्य तमेवाऽनुभवश्चाय- ५६ शरीरे वाचि चात्मानं वाभ्यां पुनः कषायाः स्यु- ३६ शुद्ध ज्ञाने शुचिनि चरिते त्यागाऽऽदाने वहिमूढः ७५ सदेव सर्व को नेच्छेत् ४३ त्वां योगिनो जिन सदा
सन्यलक्षणम् ४३,४६ दृष्टिमोहोदयान्मोहो सन्न वाऽहं सदाप्यस्मि देहे स्वात्मधिया जातार ६१ / सपरं बाधासहियं ४० नरदेहस्थमात्मान- ____8 | सहवृत्ता गुरणासत्र नारकं नारकाङ्गस्थं ५६ ! सोऽहमित्यात्तसंस्कारपरस्पर-परावृत्ताः ४४ स्वदेह-सदृश दृष्ट्वा
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व्याख्यामें सहायक ग्रन्थोंकी सूची
१ अध्यात्म-रहस्य-टिप्पणी १३ देवागम (समन्तभद्र) २ अनगार-धर्मामृत (आशाघर) | १४ द्रव्यसंग्रह निमिचन्द्र) ३ अनगारघ०-टीका (आशाघर) १५ न्यायकुमुदचन्द्र (प्रभाचन्द्र) ४ इष्टोपदेश (पूज्यपाद) १६ प्रवचनसार (कुन्दकुन्द) ५ इष्टोपदेश-टीका (आशाधर) १७ मोक्षप्रामृत (कुन्दकुन्द) ६ एकीभाव स्तोत्र (वादिराज) १८ लघीयत्रय-टीका (श्रमयचन्द्र) ७ कल्याणमन्दिर (कुमुदचन्द्र) १६ समयसार (कुन्दकुन्द)
गोम्मटसार (नेमिचन्द्र) २० समयसार-टीका (अमृतचन्द्र) ६ गोम्मटसारटीका(द्विप्नेमिचन्द्र) २१ समाधितंत्र (पूज्यपाद) १० ज्ञानार्णव (शुभचन्द्र) |२२ समाधितंत्र-टीका (प्रभाचन्द्र) ११ तत्त्वानुशासन (रामसेन) |२३ समीचीनधर्मशास्त्र (समन्तभद्र) १२ तत्त्वार्थसूत्र (उमास्वामी) २४ स्वयम्भूस्तोत्र (समन्तभद्र)
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