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२.मिति-विद्या प्रकाशमाला अनुरागको लेकर जो आत्मपरिणति है वह शुभोपयोग है और अपने चैतन्य-स्वरूपमें लीनतारूपसे जो आत्मपरिणति है उसको शुद्धोपयोग समझना चाहिये।
शुद्धात्माकी भावनाका फल स एवाहं स एवाहमिति भावयतो मुहुः। योगः स्यात्कोपि निःशब्दः शुद्धस्वात्मनि यो लयः ___ 'वही शुद्धस्वरूप मै हूँ, वही शुद्धस्वरूप मैं हूँ, इस प्रकार बार-बार भावना करनेवाले आत्माके शुद्ध स्वात्मामें जो लय बनता है वह कोई अनिर्वचनीय योग कहलाता है।
व्याख्या-'जो शुद्धस्वरूप परमात्मा है वही मैं हूँ इसकी वारवार दृढताके साथ भावना करते हुए शुद्धस्वात्मामें जो लीनता वनतीहै वह कोई ऐसा योग अथवा समाधिरूप ध्यान है जो वचनके अगोचर है-वचनके द्वारा उसके विषयमें विशेष कुछ कहा नहीं जा सकता; क्योंकि वचनमें उसको स्पष्ट करके बतलानेकी शक्ति ही नहीं। वह तो उस शुद्ध स्वात्माके द्वारा अनुमव किया जाता है जिसमें राग-द्वेषादिकी कल्लोलें नहीं उठतीं। जिसके मनमें राग-द्वेषादिकी कल्लोलें उठ रही हों वह 'मनुष्य तो आत्म-तत्वका दर्शन ही नहीं कर पाता जैसा * सोऽहमित्यात्तसंस्कारस्वस्मिन्मावनया पुनः। तत्रैव दृढसंस्काराल्लमते ह्यात्मनि स्थिति ॥२८॥ (समाधितंत्र)