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अध्यात्म-रहस्य.
परिणत पुद्गल पिण्डमें जो अज्ञान तथा रागद्वेषादिरूप फलदानकी शक्ति है उसीका नाम वस्तुतः भावकर्म है, रागादिकको जो भावकर्म कहा जाता है वह कार्यमें कारणके उपचारकी दृष्टिसे है। .
द्रव्यकर्मका स्वरूप बोधरोधादिरूपेण बहुधा पुद्गलात्मना । विकायति चिदात्मापि येनात्मा द्रव्यकर्म तत्॥ _ 'जिस ज्ञानावरणादिरूप पुद्गलात्मक कर्मके द्वारा चैतन्य स्वरूप होते हुए भी आत्मा बहुधा विरूपक होता हैकर्मानुरूपास्थाको धारण करता है--वह 'द्रव्यकर्म' है।
व्याख्या-उस पुद्गल-प्रचयका वाम 'द्रव्यकर्म' है जो आत्माके ज्ञानादि गुणोंको आवृत अथवा विकृत करनेकी शक्ति एवं प्रकृतिसे सम्पन्न होता है और अपनी इस प्रकृति के अनुरूप ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय, अन्तराय, वेदनीय, नाम, गोत्र, आयु ऐसे आठ मूल-मेदोंमें विभक्त है-जिनके उत्तरोत्तर भेद असंख्य है-और जिसके साथ बंधको प्राप्त होनेसे यह चैतन्यस्वरूप आत्मा मी बहुधा विकारको प्राप्त होता है-अपने स्वरूपसे च्युत होकर उस कर्मके अनुसार प्रवृत्ति किया करता है । इस द्रव्यकर्मके मेद-प्रभेदों, बंध, सन्च, उदय-उदीरणा,संक्रमण, १ पुद्गलस्वभावेन । २ विरूपको(कर्मरूपो) भवति । ३ कर्मणा।