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प्रस्तावना
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अन्यत्र न पाया जानेवाला गुण स्वीकार किया है ( ३६ ) । नन्दकी भी ऐसी ही स्थिति हैं, वह भी असाधारण गुण है और अन्यत्र नहीं पाया जाता। अतः ब्रह्मका जो
सच्चिदानन्दरूप उपयुक्त पद्यमें बतलाया है उसे जैनदृष्टिसे हो देखना चाहिये - वेदान्तदृष्टिसे नहीं ।
(३) ग्रन्थके उक्त पद्यमें ब्रह्मका जो स्वरूप दिया है उसमें प्रयुक्त 'अद्वय' शब्द यद्यपि 'अद्वैत'का वाचक है परन्तु वहाकी उस अद्वैतताका वाचक नहीं जो सर्वथा एकान्तके रूपमें स्थित है और ब्रह्मसे मित्र दूसरे किसी भी द्रव्य अथवा पदार्थकी सचाको ही स्वीकार नहीं करती; बल्कि सत्, चित् और आनन्द इन तीन गुणोंके साथ ब्रह्मकी अद्वैता - भिन्नताका वाचक है और साथ ही इस बातका भी सूचक है कि शुद्धात्मरूप ब्रह्म परके सम्पर्कसे रहित होता है, इसीसे ग्रन्थमें अन्यत्र उसे 'शून्योप्यन्यैः स्वतोs शून्यः' जैसे विशेषणपदोंके द्वारा उल्लेखित किया है (४६) और इस लिये श्रीरामसेनाचार्यके शब्दों में जो ब्रह्मको परके सम्पर्क से युक्त देखता है वह द्वैतरूप अशुद्ध ब्रह्मको देखता है और जो परके सम्पर्कसे रहित देखता है वह अद्वैतरूप शुद्ध ब्रह्मको देखता है, यह अद्वैतनाकी टि ठीक
* आत्मानमन्य-सम्पृक्तं पश्यन द्वैतं प्रपश्यति । पश्यन् विभक्तमन्येभ्यः पश्यत्यात्मानमद्वयं ॥ (तत्त्वानु०)
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