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प्रस्तावना
२६
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चऩता (२७)' ।
1 श्रत एकान्तकी ऐसी सदोषावस्थामें ब्रह्मको वेदान्तकी परिभाषा के अनुसार सर्वथा अद्वैत मानने और सारी अच्छी-बुरी, जड़-चेतन सृष्टि अथवा चराचर जगत्को एक ही रूपमें अंगीकार करनेसे ब्रह्मकी भारी विडम्बना हो जाती है और वह कोई आराध्य वस्तु नहीं रहती ।
2.
(४) सांख्यने बुद्धिको जड - प्रकृतिका कार्य माना है और वेदान्तने उसे मायासे उत्पन्न बतलाया है; परन्तु जैनदर्शन के अनुसार वह न तो नड - प्रकृतिका कार्य है और न म्रायासे उत्पन्न, वह चैतन्यरूप है, उसका आत्माके साथ सीधा घनिष्ठ एवं तादात्म्य सम्बन्ध है और उस सम्बन्ध - को समझकर आत्माको पहिचाननेकी ग्रंथ में प्रेरणा की गई है (१६,१७) ।
इस ग्रन्थमें जो कुछ लिखा गया है वह सब अध्यात्मयोग द्वारा संसारी अशुद्ध जीवोंके आत्म-विकासको लक्ष्य - में लेकर लिखा गया है । प्रारम्भसे ही योगकी बात उठाई गई है और उस योगीको योगका पारगामी वतलाया है
* इस युक्तिसे अद्वैत ब्रह्मके निगुए, निष्क्रिय, अनवद्य और निरंजन विशेषण भी नहीं बनते वे अपने अस्तित्व के लिये गुण, क्रिया, अवद्य (पाप) और अंजन ( कर्मादिमल ) के अस्तित्वकी अपेक्षा रखते हैं ।
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