Book Title: Adhyatma Rahasya
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

View full book text
Previous | Next

Page 29
________________ 1224V. 9 प्रस्तावना २६ 4444444 1344 चऩता (२७)' । 1 श्रत एकान्तकी ऐसी सदोषावस्थामें ब्रह्मको वेदान्तकी परिभाषा के अनुसार सर्वथा अद्वैत मानने और सारी अच्छी-बुरी, जड़-चेतन सृष्टि अथवा चराचर जगत्को एक ही रूपमें अंगीकार करनेसे ब्रह्मकी भारी विडम्बना हो जाती है और वह कोई आराध्य वस्तु नहीं रहती । 2. (४) सांख्यने बुद्धिको जड - प्रकृतिका कार्य माना है और वेदान्तने उसे मायासे उत्पन्न बतलाया है; परन्तु जैनदर्शन के अनुसार वह न तो नड - प्रकृतिका कार्य है और न म्रायासे उत्पन्न, वह चैतन्यरूप है, उसका आत्माके साथ सीधा घनिष्ठ एवं तादात्म्य सम्बन्ध है और उस सम्बन्ध - को समझकर आत्माको पहिचाननेकी ग्रंथ में प्रेरणा की गई है (१६,१७) । इस ग्रन्थमें जो कुछ लिखा गया है वह सब अध्यात्मयोग द्वारा संसारी अशुद्ध जीवोंके आत्म-विकासको लक्ष्य - में लेकर लिखा गया है । प्रारम्भसे ही योगकी बात उठाई गई है और उस योगीको योगका पारगामी वतलाया है * इस युक्तिसे अद्वैत ब्रह्मके निगुए, निष्क्रिय, अनवद्य और निरंजन विशेषण भी नहीं बनते वे अपने अस्तित्व के लिये गुण, क्रिया, अवद्य (पाप) और अंजन ( कर्मादिमल ) के अस्तित्वकी अपेक्षा रखते हैं । !

Loading...

Page Navigation
1 ... 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137