________________
अध्यात्म-रहस्य
M
-
श्रुतसागरके मन्थनका उद्देश्य जदर्थमेव मध्येत बुधैः पूर्वं श्रुतार्णवः । ततश्चामृतमप्यन्यद्वार्तमेव मनीषिणाम् ॥१२॥
'शुद्धस्वात्माको साक्षात् करानेवाली उस दृष्टिकी प्राप्ति अथवा संवितिके लिये ही बुधजनों द्वारा पहले श्रुतसागर मथा जाता है और उस मंथनसे अमृत(मोक्ष)की भी प्राप्ति होती है। अन्य सब तो मनीषियोंका नैपुण्य अथवा बुद्धिकौशल है।
व्याख्या-यहाँ वुधजनों द्वारा श्रुतमागरके मंथनका साररूपमें इतना ही उद्देश्य दिया है कि उससे शुद्धस्वात्माको साक्षात् करानेवाली दृष्टिकी प्राप्ति होती है और साथमें अमृतकी-अमरत्वरूप मोक्षकी-भी उपलब्धि होती है। यही दोनों श्रुताभ्यासके प्रमुख लच्य हैं। और सब तो बुद्धिशालियांका वुद्धिकौशल है, जिसके द्वारा वे श्रुत-सागरको मथकर अन्य अनेक बातोंका आविष्कार किया करते हैं।
व्यवहार और निश्चय सद्गुरुका स्वरूप - यदगिराभ्यस्यतःसा स्याद् व्यवहारात्स सदगुरुः। स्वात्मैव निश्चयात्तस्यास्तदन्तर्वाग्भवत्वतः॥१३
'जिसकी वाणीके निमित्तसे योगाभ्यासीको उक्त दृष्टि प्राप्त होती है वह व्यवहार (नय)से सद्गुरु है, निश्चय