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सन्मति-विद्या प्रकाशमाला
को निश्चय-रत्नत्रयका साधन बतलाया है और इससे यह स्पष्ट है कि व्यवहार सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रके विना निश्चय सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रकी सिद्धि नहीं हो सकती। इसलिये निश्चय तथा व्यवहार दोनों ही रत्नत्रय अपनी अपनी नय दृष्टिसे मोक्षके हेतु हैं । और इसीसे दोनोंको ही यहाँ कल्याणकारी घोपित किया गया है
मोक्ष-हेतुः पुनद्वैधा निश्चयाद्-व्यवहारतः। तत्राऽऽद्यः साध्यरूपः स्याद् द्वितीयस्तस्य साधनम् ॥
-तत्वानुशासन २८ हृदयमै परब्रह्मरूपके स्फुरणको भावना . शश्वच्चेतयते यदुत्सवमयं ध्यायन्ति यद्योगिनो येन प्राणिति विश्वमिन्द्रनिकरा यस्मै नमः कुर्वते । वैचित्री जगतो यतोस्ति पदवी यस्यान्तर-प्रत्ययो मुक्तिर्यत्र लयस्तदस्तुमनसि स्फूर्जत्परब्रह्म मे ॥७२
'नो निरन्तर आनन्दमय-चैतन्यरूपसे प्रकाशित रहता है, जिसको योगी जन ध्याते हैं, जिसके द्वारा यह विश्व प्राणित होता है, जिसे इन्द्रोंका समूह नमस्कार करता है, जिससे जगवकी विचित्रता विहित अथवा व्यवस्थित होती है, जिसका आन्तर प्रत्यय-हार्दिक श्रद्धान-पदवी (मार्ग) है
और जिसमें लय होना मुक्ति है। ऐसा वह परमब्रह्म मेरे मनमें (सदा) स्फुरायमान रहो।