________________
.
.
.
-
-
-
२६ सन्मतिविद्या प्रकाशमाला सम्पर्क स्थापित करेगा तब उसके द्वारा सब कुछ प्राप्त कर सकेगा उसे अन्यत्र भटकनेकी जरूरत नहीं रहेगी।
व्यवहार और निश्चय रत्नत्रयका स्वरूप शुद्धचिदानन्दमयं
स्वात्मानं प्रति तथाप्रतीत्यनुभूत्योः। स्थित्यां चाभिमुखत्वं गोण्या दृग्धीक्रियास्तदुपयोगोऽग्र्याः ॥१५॥
'शुद्धचिदानन्दमय स्वात्माके प्रति जो तद्रूप प्रतीति, अनुभूति और स्थितिमें अभिमुखता है वह क्रमशः गौण (व्यवहार) दर्शन, ज्ञान और चारित्र है । और उन प्रतीतिअनुभूति तथा स्थितिमें नो उपयुक्तता (उपयोगकी प्रवृत्ति) है वह मुख्य (निश्चय) दर्शन, ज्ञान और चारित्र है। ___ व्याख्या-पिछले पद्यमें सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र-रूप जिस रत्नत्रयका उल्लेख है यहाँ उन तीनों रत्नोंका स्वरूप व्यवहार तथा निश्चयनयकी दृष्टिसे दिया है और व्यवहार को 'गौण तथा निश्चयको मुख्य रूपसे प्रतिपादन किया है। इस स्वरूप-कथनमें शुद्धचिदानन्दमय स्वात्माके प्रति प्रतीतिका नाम 'दर्शन,' अनुभूतिका नाम 'ज्ञान' और स्थितिका नाम 'चारित्र' है। इस प्रतीति, अनुभूति और स्थितिमें १मुख्या।
W