________________
२५
अध्यात्म-रहस्य
' ( इसके सिवाय, यह प्रश्न पैदा होता है कि द्वैतकी सिद्धि किसी हेतुसे की जाती है या बिना किसी हेतुके ही १ उत्तर में) यदि यह कहा जाय कि श्रद्वैतकी सिद्धि हेतु से की जाती है तो हेतु (साधन) और साध्य दो की मान्यता होताच खड़ी होती है— सर्वथा अद्वैतका एकान्त नहीं रहता । और यदि विना किसी हेतुके ही सिद्धि की जाती है तो क्या वचनमात्रसे द्वैतापत्ति नहीं होती :साध्य अद्वैत और वचन, जिसके द्वारा साध्यकी सिद्धिको घोषित किया जाता है, दोनोंके अस्तित्व से श्रद्वै तता स्थिर नहीं रहती । और यह बात तो बनती ही नहीं कि जिसका स्वयं अस्तित्व न हो उसके द्वारा किसी दूसरेके अस्तित्वको सिद्ध किया जाय अथवा उसकी सिद्धिकी घोषणा की जाय । अतः अद्वैत एकान्तकी किसी तरह भी सिद्धि नहीं बनती, वह कल्पनामात्र ही रह जाता है (२६) ।'
1
' (एक बात और भी बतलादेनेकी है और वह यह है क) द्वैत विना श्रद्वैत उसी प्रकार नहीं होता जिस प्रकार कि हेतुके विना हेतु नहीं होता; क्योंकि कहीं भी संज्ञावान् कानामवालेका प्रतिषेध प्रतिषेध्यके विना - जिसका निषेध किया जाय उसके अस्तित्वके बिना नहीं बनता । 'द्वैत' शब्द एक संज्ञी है और इसलिये उसके निषेधरूप जो अद्वैत शब्द है वह द्वैत अस्तित्वकी मान्यता के बिना नहीं
1
-
-