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सन्मतिविद्या प्रकाशमाला
त्वां योगिनो जिन ! सदा परमात्मरूप - मन्वेषयन्ति हृदयाऽम्बुज - कोष- देशे । पूतस्य निर्मलरुचे यदि वा किमन्यदक्षस्य संभवपदं ननु कणिकायाः ॥ १४ ॥ शुद्ध-स्वात्माका स्वरूप
यो न मुह्यति नो रज्यत्यपि न द्वेष्टि कस्यचित् । स्वात्मा इग्बोधसाम्यात्मा स शुद्ध इति बुध्यताम् ॥
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'जो किसीके साथ राग नहीं करता, द्वेष भी नहीं करता और न मोहको ही प्राप्त होता है वह दर्शन - ज्ञान - चारित्ररूप परिणत स्वात्मा ही शुद्धस्वात्मा है, ऐसा सझना चाहिए ।
व्याख्या— शुद्धस्वात्मा वास्तवमें स्वात्मासे भिन्न कोई अलग वस्तु नहीं है, स्वात्मा ही जिस समय रागद्वेष- मोहसे छूटकर सम्यग्दर्शन -ज्ञान - चारित्ररूप परिणत होता है, उस समय उसे शुद्धस्वात्मा समझना चाहिए । इस तरह परिणति अथवा पर्यायकी दृष्टिसे स्वात्माके शुद्ध और शुद्ध ऐसे दो भेद हो जाते हैं ।
यहाँ 'साम्य' शब्द 'सम्यक्चारित्रका वाचक है। श्रीकुन्दकुन्दाचार्यने प्रवचनसारमें 'चारिचं खलु धम्मो धम्मो जो
मोखो' इस गाथाके द्वारा समताभावरूप आत्मपरिणामको ही सम्यक्चारित्र बतलाया है, जो राग-द्वेष