________________
A
अध्यात्म-रहस्य पूर्व-संचित कर्मोकी जहाँ निर्जरा होती है वहाँ नवीन कर्मोंका आना (श्रामब) भी रुक जाता है और इस तरह उसका श्रात्म-विकास सहन ही सघता है। इसी तत्चको आत्मा यहाँ अपने अनुभवमें ला रहा है।
जिस स्वात्माधीन आनन्दका यहाँ उल्लेख है उसे तत्वादुशासनमें वचनके अगोचर बतलाया है, और यह ठीक ही है। इन्द्रियोंकी पराधीनताको लिये हुए जो सुख है वही वचनके गोचर होता है, अतीन्द्रिय सुखका वर्णन वचन क्या कर सकता है ? उसका तो कुछ संकेतमात्र ही किया जा सकता है। जैसा कि प्रस्तुत ग्रंथके ४१वें पद्यमें किया गया है कि 'वह आनन्द ऐसा है जो चक्रवर्ती, इन्द्र, अहमिन्द्र और घरणेन्द्रको भी कभी प्राप्त नहीं होता।
रही निर्जरा और संवरकी बात, वे तो धर्म्य-ध्यानका फल ही है, इस बातको तचानुशासनमें 'एकाग्रचिन्तनं ध्यानं निर्जरा-संवरौ फलं' (३८) इस वाक्यके द्वारा व्यक्त किया गया है। .
- पिछली मूलका सिंहावलोकन अनन्तानन्तचिच्छक्ति-वक्रयुक्तोपि तत्त्वतः । अनाद्यविद्या-संस्कारवशादर्बहिः स्फुरन् ॥४८ १ शुद्धनिश्चयनयापेक्षया।
-
-