________________
सन्मति - विद्या प्रकाशमाला
शुद्धावस्था में उनकी सिद्धि नहीं बन सकती, इसी बातको द्योतन करनेके लिये 'स्वात्मनि' पदका विशेषण 'शुद्धे' दिया गया है, जो ख़ास तौरसे यहाँ ध्यान में लेने योग्य है ।
१०
इसी तरह सद्गुरुका अभिप्राय मात्र अपने दीक्षागुरु या विद्यागुरुसे नहीं है, बल्कि उस गुरुसे है जिससे प्रथमतः श्रुतिकी और अन्ततः श्रात्म-साक्षात्कार करनेवाली दृष्टिकी प्राप्ति होती है और वह व्यवहार तथा निश्चयके मेदसे दो मेदरूप है, जिनका विशेषस्वरूप आगे बतलाया गया है ।
स्वात्माका स्वरूप
स स्वात्मेत्युच्यते शश्वद्भाति हृत्पंकजोदरे । योऽहमित्यंजसा शब्दात्पशूनां स्वविदा विदाम् ॥४
'जो आत्मा निरन्तर हृदय - कमलके मध्य में - उसकी कर्णिकाके अन्तर्गत - 'अहं' शब्दके वाच्यरूपसे 'मैं' के भावको लिए हुए - पशुओं - मूढों तकको और स्वसंवेदन(स्वानुभूति) से ज्ञानियों को स्पष्ट प्रतिभासित होता है वह 'स्वात्मा' कहा जाता है ।
व्याख्या – अपना आत्मा, निजात्मा और स्वात्मा Hars at sोतक शब्द हैं। आत्माका निनत्व वाचक 'स्व' विशेषण परनीवोंके आत्माओंसे अपने
१ आत्मा । २ भूर्खाणाम् । ३ स्वस्य ज्ञानेन ।