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प्रस्वावना
'यदि अद्वैत एकान्तको माना जाय तो कारकों (कर्ता, कर्म, करणादि) का और क्रियाओंका जो मेद (नानापन) प्रत्यक्ष-प्रमाणसे जाना जाता अथवा स्पष्ट दिखाई देने वाला लोक-प्रसिद्ध सत्य है वह विरोधको प्राप्त होता हैमिथ्या ठहरता है। और जो कोई एक है-सर्वथा अकेला एवं असहाय है-वह अपनेसे ही उत्पन्न नहीं होता-उसका उस रूपमें कोई जनक और जन्मका कारपादिक दूसरा ही होता है, दूसरेके अस्तित्व एवं निमित्तके विना वह स्वयं विभिन्न कारकों तथा क्रियाओंके रूपमें परिणत नहीं हो सकता (२४)। __'सर्वथा अद्वैत-सिद्धान्तके मानने पर कर्म-द्वैतशुभ-अशुम कर्मका जोड़ा, फल-द्वैत-पुण्य-पापरूप अच्छेबुरे फलका जोड़ा, और लोक-द्वैत-फल भोगनेके स्थानरूप इहलोक-परलोका जोड़ा नहीं बनता । (इसी तरह) विद्याअविद्याका त (जोड़ा) तथा वन्ध-मोक्षका द्वैत (बोड़ा) भी नहीं बनता। इन द्वैतों से किसी भी द्वैतके मानने पर सर्वथा अद्वैतका एकान्त बाधित होता है। इनमेंसे किसी भी जोड़ेकी एक वस्तुका लोप और दूसरी वस्तुका -ग्रहण करने पर उस दूसरी वस्तुके लोपका भी प्रसंग आता हैं। क्योंकि एकके. विना दूसरीका अस्तित्व नहीं बनता । और इस तरह भी सारे व्यवहारका लोप ठहरता है (२५)।'