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अध्यात्म-रहस्य
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यत्पश्यामीन्द्रियैस्तन्मे नास्ति यनियतेन्द्रिय अन्तः पश्यामि सानन्दं तदन्तु ज्योतिरुत्तमम् ॥१॥ 'इन्द्रियोंके द्वारा जो शरीरादिक मैं देखता हूँ वह भी मेरा रूप नहीं है । मेरा रूप तो वह परमानन्दमय उत्तम ज्योति है जिसे मैं इन्द्रियोंको नियन्त्रित करके अपने अन्त:करणमें देखता हूँ, अथवा स्वसंवेदन-ज्ञानके द्वारा अनुभव करता हूँ। __ वस्तुतः शरीर तथा वचनमें आत्माकी धारणा वही करता है जो शरीर तथा वचनके विषयमें प्रान्त है-उनके यथार्थ स्वरूपको न समझकर वहिरात्मदृष्टिसे उनमें आत्माकी कल्पना किये हुए है। जो अभ्रान्त हैअन्तरात्मा है-वह शरीर, वचन और आत्माके तत्वको अलग-अलग समझता है और इसलिये एकको दूसरेके साथ मिलाता नहीं है। जैसा कि समाधितन्त्रके निम्न वाक्यसे प्रकट है
शरीरे वाचि चात्मानं सन्धचे वाक्-शरीरयो। भ्रान्तोऽभ्रान्तः पुनस्तत्त्वं पृथगेषां निवुष्यते ॥ ५४॥
आत्म-ज्योतिके दर्शनकी प्रेरणा अहमेवाहमित्यन्त ल्प-संपृक्त-कल्पनाम् । त्यक्त्वावाग्गोचरं ज्योतिः स्वयं पश्येदनश्वरम् ॥१४
'मैं ही मै हुँ, इस अन्तर्जल्पके साथ सम्बद्ध कल्पनाको