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सन्मति-विद्या-प्रकाशमाला गुरुके वचन-प्रकाशसे स्पष्ट दिखाई पड़ता है और तमी उसपर चलना बनता है । वह सद्गुरु कौन ? यह एक समस्या है जो यहाँ हल होनेके लिये रह जाती है। सद्गुरु अनेक होते हैं और अनेक विषयोंके अलग अलग भी होते हैं। यहाँ उस सद्गुरुका अभिप्राय है जिसकी वाणीके प्रसादसे अभ्यासी जनको उस दृष्टिकी प्राप्ति होती है जिससे शुद्धात्माको साक्षात् किया जाता अथवा देखा जाता है,
और वह सद्दष्टि ही मोक्ष-लक्ष्मीको अपनी ओर आकर्षित करती है । ऐसे सद्गुरु निश्चय और व्यवहारनयकी मेददृष्टि से दो प्रकारके होते हैं—व्यवहारगुरु तो वे लोकप्रसिद्ध गुरु हैं जिनके वचनोंको सुनकर तथा पढ़कर सद्दष्टिकी प्राप्ति होती है, वे चाहे साक्षात् मौजद हों या न हों। और निश्चयगुरु एक अपना अन्तरात्मा होता है, जिसकी वाणी अन्तर्नाद कहलाती है और जो कभी-कभी भीतर ही भीतर सुनाई पड़ा करती है । इसी निश्चयदृष्टिको लेकर श्रीपूज्यपाद आचार्यने अपने समाधितंत्रमें, 'श्रात्मैव गुरुरात्मनः' इस वाक्यके द्वारा, यह प्रतिपादन किया है कि वास्तवमें आत्मा ही आत्माका गुरु है।
योग-पारगामी योगी शुद्धे श्रुति-मति-ध्याति-दृष्टयः स्वात्मनि क्रमाव। यस्य सद्गुरुतः सिद्धाःस योगी योगपारगः॥३॥