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सन्मति-विद्या प्रकाशमाला को रखना और दोनोंको एक साथ नमस्कार करना भी रहस्यसे खाली नहीं है। इसके द्वारा भगवानका अपने भक्तको निजपद प्रदान कर स्वसमान बना लेनेका सुन्दर एवं स्पष्ट उदाहरण सामने रक्खा गया है। इन्द्रभूति गौतम श्रीवीरभगवानके प्रमुख शिष्य और प्रधान गणधर ही नहीं थे बल्कि अनन्यभक्त थे और अपनी उस असाधारण भक्तिके वश तदनुरूप आचरण करके उन्हींके समान मुक्तिपदको प्राप्त हुए हैं-आराधकसे आराध्य और सेवकसे सेव्य बनकर नमस्कारके पात्र बने हैं। इसीसे श्रीवीरस्वामीके साथ उन्हें भी नमस्कार किया गया है। प्रस्तुत पद्यमें 'नम:' शब्द एक होते हुए भी देहली-दीप-न्यायसे दोनों के लिये समानरूपमें प्रयुक्त हुआ है अथवा 'च' शब्दके साथमें अपनी पुनरावृत्तिकी सूचनाको लिये हुए है।
वस्तुतः सच्ची सविवेक भक्ति ही भक्तको भगवान बनानेमें समर्थ होती है और उसके लिये सदा तदनुरूप आचरणकी जरूरत रहती है। तदनुकूल आचरणके बिना भक्तिके कोरे गीत गाने अथवा यंत्र-संचालित-जैसी भावशन्य-क्रियाएँ करनेसे वह नहीं बनती। गौतमस्वामीने तदनुकूल आचरण करके वीरमगवानके प्रति अपनी भक्तिको चरितार्थ किया है और इसीसे वे उनके पदको प्राप्त करनेमें समर्थ हुए हैं। दोनोंके साथ 'श्री' विशेषण भी