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अध्यात्म-रहस्य
लक्षण-भेदसे स्व-पर-भेदकी सिद्धि ययो'लक्षणभेदस्तौ भिन्नौ तोयानलौ यथा। सोस्ति च स्वात्म-परयोरिति सिद्धात्र युक्तिवाक् २३
'जिन दोमें परस्पर लक्षण-भेद होता है वे दोनों एक दूसरेसे मिन्न होते हैं; जैसे जल और अनल (अग्नि)। स्वात्मा और परमें वह लक्षणभेद है, इसलिये दोनों भिन्न हैं, यह युक्ति-वचन यहॉ सिद्ध है-प्रमाणसे बाधित नहीं है।'
व्याख्या-यहाँ, लक्षण-मेदसे वस्तु-भेदके न्यायकी घोषणा करते हुए, यह प्रतिपादन किया है कि, कि स्वात्मा और परद्रव्योंमें ( पूर्वपद्यानुसार ) लक्षण-भेद है और वह लक्षणभेद ऐमा है जैसा कि नल और अग्निमेंएक शीतलस्वभाव तो दूसरा उसके विपरीत उष्णस्वभावअतः दोनोंकी भिन्नता युक्ति-सिद्ध है।
___उपयोगका स्वरूप और भेद उपयोगश्चितः स्वार्थ-ग्रहण-व्यापृतिः२ श्रुतेः। शब्दगो दर्शनं ज्ञानमर्थगस्तन्मयः पुमान् ॥२४॥
"चिन्मय आत्माके स्व और अर्थके ग्रहणरूप व्यापारको 'उपयोग कहते हैं। श्रुतिकी दृष्टिसे शब्दगत उपयोग 'दर्शन' और अर्थगत उपयोग 'ज्ञान' कहलाता है। और पुरुष (आत्मा) तन्मय है-दर्शन और ज्ञानरूप हैं।' पुद्गल-जीवयोः । २ कर्णस्य स्वार्थः शब्दः, तस्य ग्रहणं व्यापार.।