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अध्यात्म- रहस्य
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मोहको निकालकर अलग करदेना चाहिये; तभी शुद्धात्माके सम्पर्क में से अपना आत्मा शुद्ध हो सकेगा ।
शुद्धि हेतु रागादिकके विनाशका उपाय
भावयेच्छुद्धचिद्रूपं स्वात्मानं नित्यमुद्यतः । रागाद्युदग्र- शत्रूणामनुत्पत्त्यै क्षयाय च ॥ २६ ॥ 'रागादि अति उग्र शत्रुओं की अनुत्पत्ति और विनाशके लिये नित्य ही उद्यमी होकर शुद्ध- चिद्रूप - स्वात्माकी भावना करनी चाहिये ।'
व्याख्या - राग, द्वेप और मोह आत्मा के श्रतीव उग्र शत्रु हैं; ये उत्पन्न नहीं होवे और यदि कदाचित् उत्पन्न होवें तो इनका शीघ्र ही नाश हो जावे, इसके लिये बड़ी तत्परताके साथ शुद्ध-चिद्रूप-स्वात्माको अपनी नित्यकी भावनाका विषय बनाना चाहिये - ध्यानमें नित्य ही आत्माके शुद्ध-चिद्रूपको सामने लाते रहना चाहिये । यह आत्म-शत्रुओंकी अनुत्पत्ति तथा नाशका परम उपाय है। इन रागादिकका संक्षिप्त परिचय अगले पद्यमें दिया गया है। राग, द्वेष और मोहका स्वरूप
रागः प्रेम' रतिर्माया लोभं हास्यं च पंचधा । मिथ्यात्वभेदयुक् सोपि मोहो द्वेषः क्रुधादि षट् २७
१ स्त्रीपुन्नपुं रुकबेदरूपम् । २ क्रोधमानाऽरर्ति-शोकभयजुगुप्साः ।