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८६ सन्मति-विद्या प्रकाशमाला --उसे ही अपना विषय बनाये रखती है, दूसरे पदार्थ उसकी दृष्टिमें गौण होते हैं।
. निश्चय और व्यवहार सम्यग्ज्ञानका स्वरूप निर्विकल्प-स्वसंवित्तिरनर्पित-परग्रहा। सज्ज्ञानं निश्चयादुक्तं व्यवहारनयात्परम् ॥६८ ___'पर-पदार्थोके ग्रहणको गौण किये हुए निर्विकल्प स्वसंवेदनको निश्चयनयकी दृष्टिसे 'सम्यग्ज्ञान' कहा गया है, और व्यवहारनयसे पर-पदार्थोके ग्रहणरूप सविकल्प ज्ञानको 'सम्यग्ज्ञान' कहा गया है।'
व्याख्या-निश्चयनयसे उस निर्विकल्प-स्वसंवेदनका नाम सम्यग्ज्ञान है जो स्वात्मासे भिन्न परपदार्थोके ग्रहणको गौण किये रहता है, और व्यवहारनयसे सम्यग्ज्ञान उस सविकल्पज्ञानका नाम है जो पर-पदार्थोके ज्ञानको मुख्य किये रहता है। यों स्व-परका ज्ञान दोनों ही प्रकारके सम्यग्ज्ञानोंका विषय है, चाहे वह सविकल्प हो या निर्विकल्प । विकल्प नाम मेद, विशेष, तथा पर्यायका है, जो इससे युक्त वह सविकल्प और जो इससे रहित है वह निर्विकल्प कहा जाता है।
सविकल्प ज्ञानका स्वरूप यदेव ज्ञानमर्थेन संसृष्टं प्रतिपद्यते। वाचकत्वेन शब्दः स्यात्तदेव सविकल्पकम् ॥६६