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सन्मति -विद्या-प्रकाशमाला
ही है । मेरे इस शुद्धरूपका ही ब्रह्मके साथ अद्वैतभाव है । अर्थात् मैं ही अपने शुद्ध स्वरूपमें परम ब्रह्मरूप हूँ । इस अद्वैत - दृष्टिके विषय में श्रीरामसेनाचार्यने तच्चानुशासनमें स्पष्ट लिखा है
आत्मानमन्य-संपृक्तं पश्यन् द्वैतं प्रपश्यति ।
पश्यन् विभक्तमन्येभ्यः पश्यत्यात्मानमद्वयं ॥ १७७॥ 'जो आत्माको अन्यसे — कर्मादिकसे -- सम्बद्ध देखता है वह द्वैतको देखता है - श्रात्माको जड - चेतनादि द्वैतरूपमें अनुभव करता है - और जो आत्माको दूसरे सब पदार्थोंसे विभक्त एवं भिन्न देखता है वह अद्वैतको देखता हैआत्माको एक ही सच्चिदानन्दरूपमें सर्वत्र अनुभव करता और इसलिये अपनेको सच्चिदानन्द - लक्षणसे भूषित ब्रह्म समझता है ।'
आत्माके सत्स्वरूपका स्पष्टीकरण
सन्नेवाहं मया वेद्ये स्वद्रव्यादि-चतुष्टयात् । स्थित्युत्पत्तिव्ययात्मत्वादसन्नेव विपर्ययात् ॥ ३१
'स्वद्रव्यादि - चतुष्टयकी दृष्टिसे —— स्वकीय द्रव्य-क्षेत्रकाल - भावकी अपेक्षासे - तथा ( प्रतिक्षण) स्थित्यात्मक, उत्परयात्मक और व्ययात्मक होनेकी दृष्टिसे मैं सतरूप ही हूँ; प्रत्युत इसके, परद्रव्य-क्षेत्र - काल - भावकी अपेक्षा तथा प्रतिक्षण स्थित्युत्पत्ति - व्ययात्मक न होनेकी दृष्टिसे मैं