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अध्यात्म-रहस्य व्याख्या-जो योगी उक्त प्रकारकी परम-एकाग्रताको प्राप्त होता है उसके सब अशुभ श्रास्रव रुक जाते हैं, अर्जित पापोंका नाश हो जाता है और इस प्रकार वह जीवन्मुक्त-अवस्थाको प्राप्त होता है। जीवन्मुक्त-अवस्थाको प्राप्त करानेवाली यह परम-एकाग्रता शुक्लध्यानकी एकाग्रता है. जिससे मोहनीय, ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय नामके चार घातियाकर्म जलकर भस्म हो जाते हैं। वस्तुतः ध्यानकी इस एकाग्रतामें बहुत बड़ी शक्ति है । इसीसे ध्यानको संवर तथा निर्जराका हेतु बतलाया गया है।
त्रिविधकर्मके त्यागकी भावना यद्भावकर्मरागादि यज्ज्ञानावरणादि तत् । द्रव्यकर्म यदङ्गादि नोकर्मोन्झामि तद् बहिः॥६० _'जो रागादिरूप भावकर्म हैं, जो ज्ञानावरणादिरूप द्रव्यकर्म हैं और जो शरीरादिरूप नोकर्म हैं वे सव (मेरे स्वरूपसे) वाह्य पदार्थ हैं, उन्हें में छोड़ता हूँ-उनसे उपेक्षा धारण करता हूँ।' ___ व्याख्या-यहाँ रागादि भावकर्म, ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्म और शरीरादि नोकर्मरूप तीनों ही प्रकारके कर्मोको यह समझकर त्यागनेकी भावना की गई है कि वे मेरे स्वरूपसे वाह्य हैं । इस प्रकारकी हार्दिक भावना एवं तदनुकूल प्रवृत्तिसे कर्मों तथा उनसे उत्पन्न होनेवाले