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अध्यात्म-रहस्य जब अमिमुखता होती है तब दर्शन, ज्ञान और चारित्र गौण्य कहलाते हैं-व्यवहारनयके विषयरूपसे निर्दिष्ट होते है। और जब इस प्रतीति, अनुभूति और स्थिति उपयुक्तता होती है तब वे दर्शन, ज्ञान और चारित्र मुख्य कहे जाते हैं-निश्चनयके विषयरूपसे निर्दिष्ट होते हैं। इतना ही दोनों में परस्पर उभयनयकी दृष्टि से अन्तर है। शुद्ध-चिदानन्दमय स्वात्माको दोनों ही प्रकारके रत्नत्रय अपनी प्रतीति आदिका विषय बनाते हैं ।
निश्चय रत्नत्रयको स्पष्ट मॉकी बुद्धयाधानाच्छद्दधानः स्वं संवेदयते स्वयम्। यथा संवेद्यमाने स्वे लीयते च त्रयीमयः ॥१६
'सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्ररूप त्रिगुणात्मक जीव बुद्धयाधानसे-बुद्धिमें आत्माकी धारणासे-स्वात्माका श्रद्धान करता हुआ खात्माका इस तरह संवेदन करता है कि संवेद्यमान स्वात्मामें स्वयं लीन होजाता है।' ___ व्याख्या-यहाँ संवेदनकी एकाग्रताके माहात्म्यका योतन किया गया है और यह प्रकट किया गया है कि उसके प्रभावसे संवेदनकर्ता स्वात्मा बुद्धयाधानसे शुद्ध स्वात्माका श्रद्धान करता हुआ अपने संवेद्यमान शुद्धस्वरूपमें स्वयं लीन हो जाता है। यह लीनता ही उसके १ रत्नत्रयमयः।
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