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अध्यात्म-रहस्य
वेदान्त-सम्मत उस परब्रह्मका जिसे नित्य शुद्ध और विमुक्त होने पर भी माया व्याप्त होती है तथा जिसके अनेकानेक अंशों-अंगोंको अविद्या सताती है और 'अहं' शब्द स्वात्माका वाचक है, जो कि अपने प्रदेशों तथा गुणोंकी दृष्टिसे अपना स्वतन्त्र तथा मिन अस्तित्व रखता हुआ भी द्रव्यदृष्टिसे परमब्रह्म-परमात्माके ही समान है। दोनों में एक ही जैसे गुणोंका सद्भाव है, अन्तर केवल इतना ही है कि एकमें वे गुण पूर्णतः विकसित हो चुके हैं और दूसरे अविकसित तथा अल्पविकसित-दशामें अवस्थित हैं। गुणोंकी दृष्टिसे मैं वही हूँ जो परमब्रह्म-परमात्मा, इस सोऽहंकी निरन्तर भावना-द्वारा विकसित श्रात्म-गुणोंको अपने सम्पर्क में लाकर स्वात्मामें शक्तिरूपसे स्थित गुणोंका विकास किया जाता है, और इस तरह स्वात्माको परमब्रह्म अथवा परमात्मा बनाया जाता है (५७-५६)। मिनात्मा परब्रह्मकी गाढ आराधना अथवा उसमें लीनतासे स्वात्मा उसी प्रकार परब्रह्म-परमात्मा बन जाता है जिस प्रकार कि तैलादिसे सुसज्जित बत्ती प्रज्वलित दीपककी गाढ-आलिंगन द्वारा उपासना करती हुई तद्रप ही दीपशिखा बनकर प्रज्वलित हो उठती है। जैसा कि श्री पूज्यपादाचार्यके निम्न वाक्यसे भी प्रकट है।