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सन्मति -विद्या- प्रकाशमाल
'प्रेम ( त्रिवेद रूप - परिणति ), रति, माया, लोभ और हास्य के भेदसे राग पाँच प्रकारका है, दर्शनमोहनीयके मिथ्यात्व - भेदसे युक्त वही राग 'मोह' कहलाता है और क्रोधादिके भेदसे द्वे छह प्रकारका है ।
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व्याख्या - जिन राग, द्वेष और मोहको आत्माका परम शत्रु बतलाया गया है और जिनकी चर्चा ग्रंथमें तक चली आई है उनका क्या स्वरूप है अथवा विषयरूपसे उनमें क्या कुछ शामिल है उसीका निर्देश इस पद्यमें किया गया है । राग पाँच भेदरूप है - प्रेम, रति, माया, लोभ और हास्य | इनमें माया और लोभ ये दो तो कषाय शेष प्रेमादि तीन नो ( ईषत् ) कपाय हैं । प्रेमका आशय यहाँ स्त्री, पुरुष तथा नपुसकरूप तीन वेदोंमेंसे किसी भी वेदरूप परिणतिका है । द्वेष छह भेद रूप है - क्रोध, मान, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा । इनमेंसे पहले दो भेद कषायरूप और शेष नोकपायरूप हैं । मोह उस रागका नाम है जो दर्शनमोहके मिथ्यात्वभेदसे युक्त होता है । इसीसे मोहको 'मिथ्यादर्शन' भी कहा जाता है, जैसा कि तत्त्वानुशासनके निम्न वाक्यसे प्रकट है:
" दृष्टिमोहोदयान्मोहो मिथ्यादर्शनमुच्यते" । इसतरह राग द्वेष और मोह इन तीन भेदों में प्रायः सारे